“आजाद” का अर्थ, गाँधी के अनुसार--

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30 अगस्त 1942 की शाम को घूमते समय गाँधी ने सुशीला नैयर से कहा –

“छह महिने के अन्दर हमें जेल से बाहर निकलना ही है ।
हमारी लडाई सफ़ल हुई तो भी और लोग हारकर बैठ गये तो भी । मैं नहीं जानता, लोग क्या करेंगे लेकिन मैं यह जानता हूँ कि लोग लडाई के लिये तैयार नही थे । हमने तैयारी की ही नहीं थी । हम नहीं जानते कि ईश्वर ने
क्या सोच रखा है, जो भी हो, उनकी मर मिटने की तैयारी होनी ही चहिए । वे आजाद हुए बिना चैन नहीं लेंगे । अगर आजादी के लिये लडते-लडते वे खत्म
हो भी गये तो खुद तो आजाद हो ही जायेंगे ।” (पृ 109)

अगर तैयारी की ही नही थी तो लडाई क्या सिर्फ़ इसलिये छेडी थी कि लोगों को मरवाया जाए ? यह कहाँ की अहिंसा है कि हिन्दुस्तानी तो मरें, लेकिन
किसी अंग्रेज को ना मारा जाय ? फ़िर यह कहना कितना बडा सनकीपन है, कितनी निर्दयता है, कितनी बेवकूफ़ी है कि जो मरेंगे, वे तो आजाद
हो ही जायेंगे ?

अगर मर जाना ही आजाद हो जाना है तो खुद गाँधी मरने की बार-बार प्रतिज्ञा लेकर भी क्यों नहीं मरा ?

· 1921 में सत्याग्रह शुरू करते समय उसने कहा था कि अगर मैंने एक साल में स्वराज ना लिया तो मेरी लाश समुद्र पर तैरती नजर आयगी ।
o स्वराज्य नहीं मिला, मगर गाँधी जीवित रहा ।

· नमक सत्याग्रह में डाँडी को मार्च करते समय घोषणा की थी कि अगर मैं सफ़ल ना हुआ तो साबरमती आश्रम में बापस नहीं आऊँगा ।
o गाँधी असफ़ल रहा और साबरमती लौटने की बजाय सेवाग्राम नाम का दूसरा आश्रम बसा लिया । क्या यह उसकी प्रतिज्ञा की आत्मा का हनन नही था? क्या यह गोमाता के दूध की वजाय बकरी का दूध पीने की तरह
उसकी प्रतिज्ञा के मात्र अक्षर का पालन नहीं था?

· फ़िर इसी गाँधी ने एलान किया था कि पाकिस्तान बना तो मेरी लाश पर बनेगा ।
o क्या हुआ सभी जानते हैं, पाकिस्तान बना, मगर गाँधी जीवित ही रहा । पाकिस्तान बना, लाशों पर ही बना पर वो लाशें निरीह, निरअपराध
हिन्दुस्तानी सर्वसामान्य जनमानष की थीं ।
यह इस देश का दुर्भाग्य नहीं तो क्या ?
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