भगत सिंह और आर्य समाज

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भगत सिंह का जन्म २८ सितंबर, १९०७ में हुआ था,उनके पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था,यह एक सिख परिवार था जिसने आर्य समाज के विचार कोअपना लिया था। उनके परिवार पर आर्य समाज व महर्षि दयानन्द की विचारधारा का गहरा प्रभाव था !

भगत सिंह के अधिकांश चित्रों में सिर पर केश पगड़ी नहीं हैट दिखायी देता है। नाम में 'सिंह' जुड़ा रहने से पंजाब से बाहर के लोग उसे प्राय: राजपूत ठाकुर समझ लेते हैं। भगत सिंह का जन्म सिख परिवार में हुआ था। अब तो शायद उसके छोटे भाइयों में से किसी के भी सिर पर केश नहीं हैं। सिख संप्रदाय में भी हिंदुओं की तरह ब्राह्मणों और खत्रियों की कई उपजातियां हैं। भगत सिंह का परिवार साधारण किसान था, जिसे जाट कहा जाता है। भगत सिंह और उनके पिता सरदार किशन सिंह के नाम के साथ सरदार की उपाधि जुड़ी देख कुछ लोग इस शब्द को उनके वंश की उपाधि ही समझ लेते हैं। ऐसी कोई बात नहीं है। पंजाब में प्रत्येक सिख सरदार पुकारा जाता है ठीक वैसे ही जैसे कि निरक्षर ब्राह्मण भी पंडित पुकारे जाते हैं। भगत सिंह को कभी किसी ऐतिहासिक पुरातन महापुरुष से अपने वंश का संबंध जोड़ने का गर्व करते नहीं सुना।

जब भगत सिंह के दादा सरदार करतार सिंह "महर्षी दयानन्द" के समपर्क मे आऐ तब ऋषि ने उपदेश मे कहा की सिंख कोम की स्थापना मुगलो से युद्ध के लिऐ हुइ थी,अब आपको पुन: वेदीक धर्म की ओर लोट अाना चाहीए तभी से यह परिवार आर्य समाज के वैदीक विचारो की ओर लोट आया ।
अधिकांश क्रांतिकारियों को देश प्रेम की प्रेरणा महर्षि दयानन्द के साहित्य व आर्य समाज से मिली ! जब भगतसिंह के पिता जेल मे थे तब उनके दादाजी ने उनकी माॅ को ऋषि दयानन्द द्वुरा रचित "संस्कार चंद्रीका" (१६ संस्कार पर आधारित) वृहद पुस्तक दी उसी के अध्यन के बाद भगतसिंह का जन्म हुवा ।

हम आभारी है,
"दी लेजेंड आफ भगतसिंह" बनाने वाली शोधार्थी दल के, जिन्होने भगत सिंह के आर्य समाजी परिवार से जुडे होने के प्रमाणो को एकत्रीत करके
चलचित(फिल्म) के माध्यम से सारी दुनीया को बताया।

भगत सिंह के दादा सरदार अर्जुन सिंह की आस्था वैदिक कार्य के आर्यसमाजी ढंग की थी। सिख परिवार में पैदा होकर, भगवान द्वारा सिर पर लाद दिए गए संप्रदाय की अवहेलना करके जो व्यक्ति अपनी बुध्दि से किसी दूसरे संप्रदाय को तर्क संगत समझ कर स्वीकार कर लेता है, वह प्रकृति से विचार स्वतंत्राता चाहने वाला और अपने ज्ञान की सीमा तक क्रांतिकारी ही होगा। भगत सिंह की इस पारिवारिक परिस्थिति का प्रभाव उसके मानसिक विकास पर पड़ना अनिवार्य था। सरदार अर्जुन सिंह न केवल व्यक्तिगत रूप से ही अपने धार्मिक विचारों के अनुसार आचरण करते थे बल्कि अपने गांव में भी बिरादरी और बस्ती के विरोध की परवा न कर आर्यसमाज का जलसा और प्रचार करने के लिए लोहा लेते रहते थे।

भगत सिंह के परिवार का संप्रदाय सिख था परंतु सिख सांप्रदायिकता के प्रति इस परिवार में कोई रूढ़िवादी आस्था नहीं थी। सिर पर केश होने के बावजूद यह लोग सिख की अपेक्षा आर्यसमाजी ही अधिक थे।भगत सिंह के परिवार की आर्यसमाज के प्रति अनुरक्ति विचार-स्वतंत्रता और क्रांति की ओर प्रवृत्ति के कारण ही थी।

भगत सिंह का जनेऊ संस्कार भी करवाया गया और इसी संस्कार के अवसर पर भगत सिंह के दादा ने उन्हें राष्ट्र को समर्पित कर दिया. इसका उल्लेख स्वयं भगत सिंह अपने पत्रों में करते हैं.

भगत सिंह के पिता सरदार किशन सिंह तो सामाजिक प्रश्नों पर सांप्रदायिकता की उपेक्षा कर उन्हें केवल राजनैतिक दृष्टि से ही देखते थे। सरदार किशन सिंह आर्यसमाज के समाज-सुधार के कार्यक्रमों में काफी दिलचस्पी रखते थे।

उस समय आर्यसमाज के आंदोलन का विशेष रुझान सामाजिक समस्याओं की ओर था। शिक्षा-प्रचार, विधवा-विवाह, जन्म से वर्ण-व्यवस्था की धारणा को तोड़ना और अछूत समझी जाने वाली जातियों के लिए मनुष्यता के अधिकारों की मांग इस आंदोलन के प्रमुख भाग थे। इन प्रगतिशील भावनाओं का स्वाभाविक परिणाम विदेशी दासता से असंतोष भी हुआ। सामाजिक प्रगति के पथ पर कदम रखने से व्यक्ति राजनैतिक दृष्टि से सचेत हुए बिना नहीं रह सकता। यही कारण था कि पंजाब में आर्यसमाज द्वारा सामाजिक सुधार की चेतना फैलने के साथ-साथ ही विदेशी दासता के विरोध की चेतना भी फैलने लगी। उस समय पंजाब के प्राय: सभी राजनैतिक कार्यकर्ता लाला हरदयाल, अम्बाप्रसाद सूफी, लाला लाजपत राय और अजीत सिंह आदि 'आर्यसमाजी विचार स्वतंत्रता' द्वारा प्रभावित थे। 1914-1915 लाहौर षडयंत्र के मामले में भाई परमानंदजी आदि भी आर्यसमाज की प्रगतिशील चेतना की ही उपज थे।

उपरोक्त घटना से यह स्पष्ट है कि रूढ़िवाद से मुक्त पारिवारिक वातावरण में भगत सिंह ने तर्क, विद्रोह और साहस की दीक्षा स्वाभाविक रूप से पाई थी। भगत सिंह के परिवार की आर्यसमाज के प्रति अनुरक्ति विचार-स्वतंत्रता और क्रांति की ओर प्रवृत्ति के कारण ही थी। आज आर्यसमाज के आंदोलन और संगठन ने मठ और रूढ़िवाद का जैसा रूप धारण कर लिया है, उससे उन्नीसवीं शताब्दी के अंत और बीसवीं शताब्दी के आरंभिक काल के आर्यसमाजियों की भावना का अनुमान ठीक-ठीक नहीं हो सकता; जैसे कि आज अमरीकन और ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की ईसाइयत को देख कर रोमन साम्राज्य के समय ईसाई धर्म द्वारा किए गए परलोक के विश्वास के सहारे नीरु के दमन और अत्याचार के विरुध्द लड़ने वाले ईसाई दासों और गरीब इसाई लोगों की मनोभावना का अनुमान नहीं किया जा सकता।

यदि हम उन आर्यों की भांति कार्य करना चाहते हैं तो वही भावना लानी होगी और इसका एक मात्र मार्ग है "आर्य प्रशिक्षण सत्र" यह युवाओं को व्यक्तिवाद, परिवारवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद, सम्प्रदायवाद, रूढ़ीवाद से दूर कर आर्य समाज की विचार स्वतंत्रता से औत प्रोत करवाता है. आप भी आर्य प्रशिक्षण सत्र में आकर भगत सिंह सरीखे युवाओं की पीढ़ी के वाहक बने. अधिक जानकारी के लिए देखें- (http://www.aryanirmatrisabha.com)
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1Comments

Peace if possible, truth at all costs.

  1. Arya samaji ne sikh dharm ko baraad kiya h . Khud Dayanand ek kutte ki mout mara tha. Ek vaishya ne poison diya tha . Kyo diya sabhi jaante h. Harami aadmi tha

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