ये भी है स्वतन्त्रता की सच्ची कहानी ...
2. 1945 में ब्रिटेन विश्वयुद्ध में ‘विजयी’ देश के रुप में उभरता है।
3. ब्रिटेन न केवल इम्फाल-कोहिमा सीमा पर आजाद हिन्द फौज को पराजित करता है, बल्कि जापानी सेना को बर्मा से भी निकाल बाहर करता है।
4. इतना ही नहीं, ब्रिटेन और भी आगे बढ़कर सिंगापुर तक को वापस अपने कब्जे में लेता है।
5. जाहिर है, इतना खून-पसीना ब्रिटेन ‘भारत को आजाद करने’ के लिए तो नहीं ही बहा रहा है। अर्थात् उसका भारत से लेकर सिंगापुर तक अभी जमे रहने का इरादा है।
6. फिर 1945 से 1946 के बीच ऐसा कौन-सा चमत्कार होता है कि ब्रिटेन हड़बड़ी में भारत छोड़ने का निर्णय ले लेता है?
हमारे शिक्षण संस्थानों में आधुनिक भारत का जो इतिहास पढ़ाया जाता है, उसके पन्नों में सम्भवतः इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिलेगा। हम अपनी ओर से भी इसका उत्तर जानने की कोशिश नहीं करते- क्योंकि हम बचपन से ही सुनते आये हैं- दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल। इससे आगे हम और कुछ जानना नहीं चाहते। (प्रसंगवश- 1922 में असहयोग आन्दोलन को जारी रखने पर जो आजादी मिलती, उसका पूरा श्रेय गाँधीजी को जाता। मगर “चौरी-चौरा” में ‘हिंसा’ होते ही उन्होंने अपना ‘अहिंसात्मक’ आन्दोलन वापस ले लिया, जबकि उस वक्त अँग्रेज घुटने टेकने ही वाले थे! दरअसल गाँधीजी ‘सिद्धान्त’ व ‘व्यवहार’ में अन्तर नहीं रखने वाले महापुरूष हैं, इसलिए उन्होंने यह फैसला लिया। हालाँकि एक दूसरा रास्ता भी था- कि गाँधीजी ‘स्वयं अपने आप को’ इस आन्दोलन से अलग करते हुए इसकी कमान किसी और को सौंप देते। मगर यहाँ ‘अहिंसा का सिद्धान्त’ भारी पड़ जाता है- ‘देश की आजादी’ पर।) यहाँ हम 1945-46 के घटनाक्रमों पर एक निगाह डालेंगे और उस ‘चमत्कार’ का पता लगायेंगे, जिसके कारण और भी सैकड़ों वर्षों तक भारत में जमे रहने की ईच्छा रखने वाले अँग्रेजों को जल्दीबाजी में फैसला बदलकर भारत से जाना पड़ा। (प्रसंगवश- जरा अँग्रेजों द्वारा भारत में किये गये ‘निर्माणों’ पर नजर डालें- दिल्ली के ‘संसद भवन’ से लेकर अण्डमान के ‘सेल्यूलर जेल’ तक- हर निर्माण 500 से 1000 वर्षों तक कायम रहने एवं इस्तेमाल में लाये जाने के काबिल है!) *** लालकिले के कोर्ट-मार्शल के खिलाफ देश के नागरिकों ने जो उग्र प्रदर्शन किये, उससे साबित हो गया कि जनता की सहानुभूति आजाद हिन्द सैनिकों के साथ है। इस पर भारतीय सेना के जवान दुविधा में पड़ जाते हैं। फटी वर्दी पहने, आधा पेट भोजन किये, बुखार से तपते, बैलगाड़ियों में सामान ढोते और मामूली बन्दूक हाथों में लिये बहादूरी के साथ “भारत माँ की आजादी के लिए” लड़ने वाले आजाद हिन्द सैनिकों को हराकर एवं बन्दी बनाकर लाने वाले ये भारतीय जवान ही तो थे, जो “महान ब्रिटिश सम्राज्यवाद की रक्षा के लिए” लड़ रहे थे! अगर ये जवान सही थे, तो देश की जनता गलत है; और अगर देश की जनता सही है, तो फिर ये जवान गलत थे! दोनों ही सही नहीं हो सकते। सेना के भारतीय जवानों की इस दुविधा ने आत्मग्लानि का रुप लिया, फिर अपराधबोध का और फिर यह सब कुछ बगावत के लावे के रुप में फूटकर बाहर आने लगा। फरवरी 1946 में, जबकि लालकिले में मुकदमा चल ही रहा था, रॉयल इण्डियन नेवी की एक हड़ताल बगावत में रुपान्तरित हो जाती है।* कराची से मुम्बई तक और विशाखापत्तनम से कोलकाता तक जलजहाजों को आग के हवाले कर दिया जाता है। देश भर में भारतीय जवान ब्रिटिश अधिकारियों के आदेशों को मानने से इनकार कर देते हैं। मद्रास और पुणे में तो खुली बगावत होती है। इसके बाद जबलपुर में बगावत होती है, जिसे दो हफ्तों में दबाया जा सका। 45 का कोर्ट-मार्शल करना पड़ता है। यानि लालकिले में चल रहा आजाद हिन्द सैनिकों का कोर्ट-मार्शल देश के सभी नागरिकों को तो उद्वेलित करता ही है, सेना के भारतीय जवानों की प्रसिद्ध “राजभक्ति” की नींव को भी हिला कर रख देता है। जबकि भारत में ब्रिटिश राज की रीढ़ सेना की यह “राजभक्ति” ही है! *** बिल्कुल इसी चीज की कल्पना नेताजी ने की थी. जब (मार्च’44 में) वे आजाद हिन्द सेना लेकर इम्फाल-कोहिमा सीमा पर पहुँचे थे। उनका आह्वान था- जैसे ही भारत की मुक्ति सेना भारत की सीमा पर पहुँचे, देश के अन्दर भारतीय नागरिक आन्दोलित हो जायें और ब्रिटिश सेना के भारतीय जवान बगावत कर दें। इतना तो नेताजी भी जानते होंगे कि-
1. सिर्फ तीस-चालीस हजार सैनिकों की एक सेना के बल पर दिल्ली तक नहीं पहुँचा जा सकता, और2. जापानी सेना की ‘पहली’ मंशा है- अमेरिका द्वारा बनवायी जा रही (आसाम तथा बर्मा के जंगलों से होते हुए चीन तक जानेवाली) ‘लीडो रोड’ को नष्ट करना; भारत की आजादी उसकी ‘दूसरी’ मंशा है। ऐसे में, नेताजी को अगर भरोसा था, तो भारत के अन्दर ‘नागरिकों के आन्दोलन’ एवं ‘सैनिकों की बगावत’ पर। ...मगर दुर्भाग्य, कि उस वक्त देश में न आन्दोलन हुआ और न ही बगावत। इसके भी कारण हैं।
पहला कारण, सरकार ने प्रेस पर पाबन्दी लगा दी थी और यह प्रचार (प्रोपागण्डा) फैलाया था कि जापानियों ने भारत पर आक्रमण किया है। सो, सेना के ज्यादातर भारतीय जवानों की यही धारणा थी।
दूसरा कारण, फॉरवर्ड ब्लॉक के कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था, अतः आम जनता के बीच इस बात का प्रचार नहीं हो सका कि इम्फाल-कोहिमा सीमा पर जापानी सैनिक नेताजी के नेतृत्व में युद्ध कर रहे हैं।
तीसरा कारण, भारतीय जवानों का मनोबल बनाये रखने के लिए ब्रिटिश सरकार ने नामी-गिरामी भारतीयों को सेना में कमीशन देना शुरु कर दिया था। इस क्रम में महान हिन्दी लेखक सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्सयायन 'अज्ञेय' भी 1943 से 46 तक सेना में रहे और वे ब्रिटिश सेना की ओर से भारतीय जवानों का मनोबल बढ़ाने सीमा पर पहुँचे थे। (ऐसे और भी भारतीय रहे होंगे।)
चौथा कारण, भारत का प्रभावशाली राजनीतिक दल काँग्रेस पार्टी गाँधीजी की ‘अहिंसा’ के रास्ते आजादी पाने का हिमायती था, उसने नेताजी के समर्थन में जनता को लेकर कोई आन्दोलन शुरु नहीं किया। (ब्रिटिश सेना में बगावत की तो खैर काँग्रेस पार्टी कल्पना ही नहीं कर सकती थी!- ऐसी कल्पना नेताजी-जैसे तेजस्वी नायक के बस की बात है। ...जबकि दुनिया जानती थी कि इन “भारतीय जवानों” की “राजभक्ति” के बल पर ही अँग्रेज न केवल भारत पर, बल्कि आधी दुनिया पर राज कर रहे हैं।)
पाँचवे कारण के रुप में प्रसंगवश यह भी जान लिया जाय कि भारत के दूसरे प्रभावशाली राजनीतिक दल भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी ने ब्रिटिश सरकार का साथ देते हुए आजाद हिन्द फौज को जापान की 'कठपुतली सेना' (पपेट आर्मी) घोषित कर रखा था। नेताजी के लिए भी अशोभनीय शब्द तथा कार्टून का इस्तेमाल उन्होंने किया था। *** खैर, जो आन्दोलन एवं बगावत 1944 में नहीं हुआ, वह डेढ़-दो साल बाद होता है और लन्दन में राजमुकुट यह महसूस करता है कि भारतीय सैनिकों की जिस “राजभक्ति” के बल पर वे आधी दुनिया पर राज कर रहे हैं, उस “राजभक्ति” का क्षरण शुरू हो गया है... और अब भारत से अँग्रेजों के निकल आने में ही भलाई है। वर्ना जिस प्रकार शाही भारतीय नौसेना के सैनिकों ने बन्दरगाहों पर खड़े जहाजों में आग लगाई है, उससे तो अँग्रेजों का भारत से सकुशल निकल पाना ही एक दिन असम्भव हो जायेगा... और भारत में रह रहे सारे अँग्रेज एक दिन मौत के घाट उतार दिये जायेंगे। लन्दन में ‘सत्ता-हस्तांतरण’ की योजना बनती है। भारत को तीन भौगोलिक तथा दो धार्मिक हिस्सों में बाँटकर इसे सदा के लिए शारीरिक-मानसिक रूप से अपाहिज बनाने की कुटिल चाल चली जाती है। और भी बहुत-सी शर्तें अँग्रेज जाते-जाते भारतीयों पर लादना चाहते हैं। (ऐसी ही एक शर्त के अनुसार रेलवे का एक कर्मचारी आज तक वेतन ले रहा है, जबकि उसका पोता पेन्शन पाता है!) इनके लिए जरूरी है कि सामने वाले पक्ष को भावनात्मक रूप से कमजोर बनाया जाय।
Peace if possible, truth at all costs.