हमने इतिहास में लिखे हिन्दू मुस्लिम एकता के प्रतीकों पर एक दृष्टि डाली.
सदैव कहा जाता रहा कि सदियों से हिन्दू मुसलमान इस देश भारत में साथ साथ
रहते आये हैं, हमारी संस्कृति गंगा जमुनी है, हमारा प्यार मुहब्बत का
रिश्ता है, इंसानियत का रिश्ता है….
मिसाल के तौर पर इस्लाम के सूफी ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती हर हिन्दू मुसलमान के दिल में बसे हैं. उनकी कब्र पर जहां मुसलमान सर झुकाते हैं तो भाईचारे की भावना से विवश हिन्दू भी सर झुकाते हैं.
फिर, अजीमोशान शहंशाह अकबर जो हर दिल अजीज हैं, जिन्होंने भारत के राजाओं और प्रजाओं को काट काटकर एक छत्र में खड़ा कर दिया. जिन्होंने धर्म के बन्धनों को तोड़कर छत्तीसों हिन्दू राजपूत कन्याओं को अपने हरम में डालकर अपने सबसे करीब आने का सुनहरा अवसर दिया. क्या इससे बढ़कर हिन्दू मुस्लिम एकता का प्रतीक कुछ हो सकता है? ये और बात है कि कभी इन शौक़ीन सुल्तानों ने अपने हरम से उत्पन्न हुई किसी स्त्री को किसी हिन्दू को नहीं ब्याहने दिया.
फिर, टीपू सुलतान ने अपनी मातृभूमि भारत के लिए अंग्रेजों से लड़ाई की और शहीद हो गए.
अतः मोईनुद्दीन चिश्ती, अकबर, और टीपू सुलतान जैसे व्यक्ति ही वास्तव में हिन्दू मुस्लिम एकता के प्रतीक हैं, ऐसा हमारे इतिहास को पढने से प्रतीत होता है.
यह बात अलग है कि कुछ सिरफिरे ऐसे एकता के प्रतीकों पर यह कह कर प्रश्न खडा कर देते हैं कि मोईनुद्दीन चिश्ती तो एक गद्दार घुसपैठिया था जिसने मुहम्मद गौरी को भारत के हिन्दू राजा पृथ्वीराज चौहान पर हमला करने के लिए उकसाया था और सहायता दी थी. वे कहते हैं कि अकबर ने जब चित्तौड़ विजय के समय तीस हज़ार निर्दोष लोगों के कत्ले आम के आदेश दिए (और उतनी स्त्रियों को या जल मरने के लिए या अपने सैनिको कि हवस पूर्ती के लिए छोड़ दिया), और उनके सिरों को काटकर उनसे मीनार बनवायीं तो फिर वह एकता का प्रतीक कैसे हुआ? जब टीपू सुलतान ने हजारों हिन्दुओं को जबरन मुसलमान बनाया और हजारों को क़त्ल किया क्योंकि वे मुसलमान न बने तो फिर वह एकता का प्रतीक कैसे? वे कहते हैं कि टीपू भारत के लिए नहीं बल्कि अपनी हुकूमत के लिए अंग्रेजों से लड़ रहा था.
सदियों से साथ साथ रहने की बात पर जब ये सिरफिरे सवाल उठाते हैं कि एक समय इस देश की सीमाएं पश्चिम में ईरान को तो पूर्व में बर्मा को छूती थीं, और उत्तर में कश्मीर भी इसी भारत भूमि का अंश था तो फिर ऐसा कैसे हुआ कि सदियों से साथ साथ रहने वाले भाइयों ने हमारी भारत माता को पांच टुकड़ों (अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, कश्मीर, बंगलादेश) में तोड़ डाला जिनमें से चार में आज साथ रहने वाले हिन्दू दीखते ही नहीं, तो इस पर सब इतिहासकार और सेकुलरवादी बिफर पड़ते हैं. हम भी इन सिरफिरों से बिलकुल संतुष्ट नहीं!
अरे! क्या हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए कुछ हिन्दू सिर्फ अपने सिर, अपनी स्त्रियाँ, अपना धर्म और अपनी जमीन भी नहीं दे सकते? क्या हिन्दुओं का यह कर्त्तव्य नहीं था कि दुनिया भर में इस्लामी परोपकार और कल्याणकारी भावना से ओतप्रोत घूम रहे मुगलों, अरबों, तुर्कों आदि को कुछ सिर, बहनें, बेटियां और धर्म अर्पण कर उनके परोपकार का मोल चुकाते? जो मुग़ल आदि सदा अपने मुल्क छोड़कर पराये मुल्क भारत को एक करने के महान उद्देश्य से यहाँ संघर्ष करते रहे, वे इतना तो अधिकार रखते ही थे कि उन्हें पारितोषिक के रूप में धन, स्त्रियाँ, राज्य, धर्म और इन सबसे बढ़कर “एकता का प्रतीक” सम्मान मिले. अरे लानत है ऐसे स्वाभिमानी हिन्दुओं पर जो सांप्रदायिक सद्भाव के लिए इतना भी नहीं कर सकते! इस देश के अधिकाँश इतिहासकारों के लिए यह हर्ष का विषय होना चाहिए कि ऐसा ही हुआ |भले ही कुछ सिरफिरे आज इसका विरोध करते रहें जैसा कि महान मुगलों के समय क्षुद्र महाराणा प्रताप और शिवाजी ने किया था और यहाँ अग्निवीर कर रहा है. पर कौन पूछता है इनको? दिल्ली में ही अकबर, बाबर, हुमायूं, औरंगजेब, लोदी, आदि के नाम पर सड़कों और स्थानों के नाम रखे गए हैं ताकि एकता के धरोहर इन नामों का सम्मान हो सके!
खैर छोड़ें इन व्यर्थ बातों को.
आज हम जिस विषय पर लिखने जा रहे हैं, वह सेकुलरवादियों और एकपक्षीय एकता चाहने वालों को शायद अच्छा न लगे. आज से अट्ठारह वर्ष पहले ६ दिसंबर सन १९९२ को इस देश के एक और “एकता के प्रतीक” मुगलों में से एक बाबर के नाम पर बनाया गया एक ढांचा तोड़ डाला गया. इसका इतिहास कुछ ऐसा है कि अयोध्या में बहुत पुराना राम मंदिर हुआ करता था जिस के बारे में करोड़ों हिन्दुओं का यह विश्वास है कि श्रीराम उसी स्थान पर जन्मे थे. इसे कुफ्र की निशानी मानकर बाबर के जिहादियों ने बलपूर्वक तोड़ डाला क्योंकि मूर्तिपूजा इस्लाम में वर्जित है और इसलिए वहां बाबर के नाम की मस्जिद बना दी. राम मंदिर को बलपूर्वक तोड़े जाने की घटना पर एक शब्द भी न निकालने वाले सेकुलरिस्टों और जिहादियों को जैसे ही बाबरी ढांचा टूटने की खबर मिली, उनके हृदयों पर जैसे आकाश टूट पडा, जैसे बिजली सी गिरी या वज्रपात हो गया.
ठीक ही था, राम ठहरा इस देश के निवासियों का पूर्वज और बाबर ठहरा पराये मुल्क से यहाँ आकर परोपकार के निमित्त धन, स्त्रियाँ, राज्य आदि की व्यवस्था करने वाला जिसका एकमात्र उद्देश्य इस भारत को एकछत्र के नीचे लाकर विश्व का कल्याण करना था! एक राम था जिसने पराया देश लंका विजय करने पर भी राज्य वहीँ के स्थानीय लोगों को दे दिया, उनकी स्त्रियों को माता कहकर उनकी ओर देखा भी नहीं और एक ओर बाबर था जिसने राज्य जीतकर यहाँ के स्थानीय लोगों की सेवा करना ज्यादा उचित समझा और स्त्रियाँ जीतकर इन्हें अपना ही कर्त्तव्य समझ कर अपने हरम की ओर रवाना कर दिया! इस तरह के “एकता के प्रतीक” बाबर के जीवन के कुछ और प्रेरक (?) प्रसंगों को पढने की इच्छा से हमने स्वयं बाबर का लिखा हुआ “बाबरनामा” पढ़ा जिसमें उसने अपने जीवन की घटनाएं अपनी लेखनी से ही लिखी हैं ताकि आने वाली पीढी भी उनसे कुछ सीख ले सके. आप भी बाबरनामा को यहाँ पढ़ सकते हैं http://www.archive.org/details/baburnama017152mbp
हमारा यह दृढ विश्वास था कि बाबर एक पक्का मुसलमान था और इस्लामी रिवाज के अनुसार अपने देश से अधिक दूसरे देशों के लोगों, धर्म, राज्य और स्त्रियों का अधिक ध्यान उसे सताता था. पर अचानक हमने कुछ ऐसा पढ़ा कि जिससे इस महात्मा मोमिन बाबर के चरित्र के कुछ और रंग सामने आये! और तब हमें लगा कि हिन्दू मुस्लिम एकता के प्रतीकों में से सबसे अधिक यदि कोई मूल्यवान है तो वह है बाबरी ढाँचे का विध्ध्वंस. चौंकिए नहीं! खुद बाबर के लिखे बाबरनामा से यह पता चलता है कि राम मंदिर तोड़कर उसके नाम पर बनाया गया ढांचा असल में मस्जिद ही नहीं था! ऐसा इसलिए क्योंकि बाबर खुद मुसलमान ही नहीं था! क्योंकि-
बाबर एक समलैंगिक (homosexual), नशेड़ी, शराबी, और बाल उत्पीड़क (child molester) था
बाबरनामा के विभिन्न पृष्ठों से लिए गए निम्नलिखित अंश पढ़िए
१. पृष्ठ १२०-१२१ पर बाबर लिखता है कि वह अपनी पत्नी में अधिक रूचि नहीं लेता था बल्कि वह तो बाबरी नाम के एक लड़के का दीवाना था. वह लिखता है कि उसने कभी किसी को इतना प्यार नहीं किया कि जितना दीवानापन उसे उस लड़के के लिए था. यहाँ तक कि वह उस लड़के पर शायरी भी करता था. उदाहरण के लिए- “मुझ सा दर्दीला, जुनूनी और बेइज्जत आशिक और कोई नहीं है. और मेरे आशिक जैसा बेदर्द और तड़पाने वाला भी कोई और नहीं है.”
२. बाबर लिखता है कि जब बाबरी उसके ‘करीब’ आता था तो बाबर इतना रोमांचित हो जाता था कि उसके मुंह से शब्द भी नहीं निकलते थे. इश्क के नशे और उत्तेजना में वह बाबरी को उसके प्यार के लिए धन्यवाद देने को भी मुंह नहीं खोल पता था.
३. एक बार बाबर अपने दोस्तों के साथ एक गली से गुजर रहा था तो अचानक उसका सामना बाबरी से हो गया! बाबर इससे इतना उत्तेजित हो गया कि बोलना बंद हो गया, यहाँ तक कि बाबरी के चेहरे पर नजर डालना भी नामुमकिन हो गया. वह लिखता है- “मैं अपने आशिक को देखकर शर्म से डूब जाता हूँ. मेरे दोस्तों की नजर मुझ पर टिकी होती है और मेरी किसी और पर.” स्पष्ट है की ये सब साथी मिलकर क्या गुल खिलाते थे!
४. बाबर लिखता है कि बाबरी के जूनून और चाह में वह बिना कुछ देखे पागलों की तरह नंगे सिर और नागे पाँव इधर उधर घूमता रहता था.
५. वह लिखता है- “मैं उत्तेजना और रोमांच से पागल हो जाता था. मुझे नहीं पता था कि आशिकों को यह सब सहना होता है. ना मैं तुमसे दूर जा सकता हूँ और न उत्तेजना की वजह से तुम्हारे पास ठहर सकता हूँ. ओ मेरे आशिक (पुरुष)! तुमने मुझे बिलकुल पागल बना दिया है”.
इन तथ्यों से पता चलता है कि बाबर और उसके साथी समलैंगिक और बाल उत्पीड़क थे. अब यदि इस्लामी शरियत की बात करें तो समलैंगिकों के लिए मौत की सजा ही मुक़र्रर की जाती है. बहुत से इस्लामी देशों में यह सजा आज भी दी जाती है. बाबर को भी यही सजा मिलनी चाहिए थी. दूसरी बात यह है कि उसके नाम पर बनाए ढाँचे का नाम “बाबरी मस्जिद” था जो कि उसके पुरुष आशिक “बाबरी” के नाम पर था! हम पूछते हैं कि क्या अल्लाह के इबादत के लिए कोई ऐसी जगह क़ुबूल की जा सकती है कि जिसका नाम ही समलैंगिकता के प्रतीक बाबर के पुरुष आशिक “बाबरी” के नाम पर रखा गया हो? इससे भी बढ़कर एक आदमी द्वारा जो कि मुसलमान ही नहीं हो, समलैंगिक और बच्चों से कुकर्म करने वाला हो, उसके नाम पर मस्जिद किसी भी मुसलमान को कैसे क़ुबूल हो सकती है?
यह सिद्ध हो गया है कि बाबरी मस्जिद कोई इबादतघर नहीं लेकिन समलैंगिकता और बाल उत्पीडन का प्रतीक जरूर थी. और इस तरह यह अल्लाह, मुहम्मद, इस्लाम आदि के नाम पर कलंक थी कि जिसको खुद मुसलमानों द्वारा ही नेस्तोनाबूत कर दिया जाना चाहिए था. खैर वे यह नहीं कर सके पर जिसने यह काम किया है उनको बधाई और धन्यवाद तो जरूर देना चाहिए था. यह बहुत शर्म की बात है कि पशुतुल्य और समलैंगिकता के महादोष से ग्रसित आदमी के बनाए ढाँचे को, जो कि भारत की हार का प्रतीक था, यहाँ के इतिहासकारों, मुसलमानों, और सेकुलरवादियों ने किसी अमूल्य धरोहर की तरह संजो कर रखना चाहा.
यह ऐसी ही बात है कि जैसे मुंबई में छत्रपति शिवाजी टर्मिनल्स स्टेशन पर नपुंसक और कायर आतंकवादी अजमल कसब द्वारा निर्दोष लोगों को मौत के घाट उतारने के उपलक्ष्य में उस स्थान का नाम “कसब भूमि” रखकर उसे भी धरोहर बना दिया जाये!
बाबर नरसंहारक, लुटेरा, बलात्कारी, शराबी और नशेड़ी था
यहाँ पर इस विषय में कुछ ही प्रमाण इस दरिन्दे की लिखी जीवनी बाबरनामा से दिए जा रहे हैं. इसके और अधिक कारनामे जानने के लिए पूरी पुस्तक पढ़ लें.
पृष्ठ २३२- वह लिखता है कि उसकी सेना ने निरपराध अफगानों के सिर काट लिए जो उसके साथ शान्ति की बात करने आ रहे थे. इन कटे हुए सिरों से इसने मीनार बनवाई. ऐसा ही कुछ इसने हंगू में किया जहाँ २०० अफगानियों के सिर काट कर खम्बे बनाए गए.
पृष्ठ ३७०- क्योंकि बाजौड़ में रहने वाले लोग दीन (इस्लाम) को नहीं मानते थे इसलिए वहां ३००० लोगों का क़त्ल कर दिया गया और उनके बीवी बच्चों को गुलाम बना लिया गया.
पृष्ठ ३७१- गुलामों में से कुछों के सिर काटकर काबुल और बल्ख भेजे गए ताकि फतह की सूचना दी जा सके.
पृष्ठ ३७१- कटे हुए सिरों के खम्बे बनाए गए ताकि जीत का जश्न मनाया जा सके.
पृष्ठ ३७१- मुहर्रम की एक रात को जश्न मनाने के लिए शराब की एक महफ़िल जमाई गयी जिसमें हमने पूरी रात पी. (पूरे बाबरनामा में जगह जगह ऐसी शराब की महफ़िलों का वर्णन है. ध्यान रहे कि शराब इस्लाम में हराम है.)
पृष्ठ ३७३- बाबर ने एक बार ऐसा नशा किया कि नमाज पढने भी न जा सका. आगे लिखता है कि यदि ऐसा नशा वह आज करता तो उसे पहले से आधा नशा भी नहीं होता.
पृष्ठ ३७४- बाबर ने अपने हरम की बहुत सी महिलाओं से बहुत से बच्चे उत्पन्न किये. उसकी पहली बेगम ने उससे वादा किया कि वह उसके हर बच्चे को अपनाएगी चाहे वे किसी भी बेगम से हुए हों, ऐसा इसलिए क्योंकि उसके पैदा किये कुछ बच्चे चल बसे थे. यह तो जाहिर ही है कि इसके हरम बनाम मुर्गीखाने में इसकी हवस मिटाने के लिए कुछ हजार औरतें तो होंगी ही जैसे कि इसके पोते स्वनामधन्य अकबर के हरम में पांच हजार औरतें थीं जो इसकी ३६ (छत्तीस) पत्नियों से अलग थीं. यह बात अलग है कि इसका हरम अधिकतर समय सूना ही रहता होगा क्योंकि इसको स्त्रियों से अधिक पुरुष और बच्चे पसंद थे! और बाबरी नाम के बच्चे में तो इसके प्राण ही बसे थे.
पृष्ठ ३८५-३८८- अपने बेटे हुमायूं के पैदा होने पर बाबर बहुत खुश हुआ था, इतना कि इसका जश्न मनाने के लिए अपने दोस्तों के साथ नाव में गया जहां पूरी रात इसने शराब पी और नशीली चीजें खाकर अलग से नशा किया. फिर जब नशा इनके सिरों में चढ़ गया तो आपस में लड़ाई हुई और महफ़िल बिखर गयी. इसी तरह एक और शराब की महफ़िल में इसने बहुत उल्टी की और सुबह तक सब कुछ भूल गया.
पृष्ठ ५२७- एक और महफ़िल एक मीनारों और गुम्बद वाली इमारत में हुई थी जो आगरा में है. (ध्यान रहे यह इमारत ताजमहल ही है जिसे अधिकाँश सेकुलर इतिहासकार शाहजहाँ की बनायी बताते हैं, क्योंकि आगरा में इस प्रकार की कोई और इमारत न पहले थी और न आज है! शाहजहाँ से चार पीढी पहले जिस महल में उसके दादा ने गुलछर्रे उड़ाए थे उसे वह खुद कैसे बनवा सकता है?)
बाबरनामा का लगभग हर एक पन्ना इस दरिन्दे के कातिल होने, लुटेरा होने, और दुराचारी होने का सबूत है. यहाँ यह याद रखना चाहिए कि जिस तरह बाबर यह सब लिखता है, उससे यह पता चलता है कि उसे इन सब बातों का गर्व है, इस बात का पता उन्हें चल जाएगा जो इसके बाबरनामा को पढेंगे. आश्चर्य इस बात का है कि जिन बातों पर इसे गर्व था यदि वे ही इतनी भयानक हैं तो जो आदतें इसकी कमजोरी रही होंगी, जिन्हें इसने लिखा ही नहीं, वे कैसी क़यामत ढहाने वाली होंगी?
सारांश
१. यदि एक आदमी समलैंगिक होकर भी मुसलमान हो सकता है, बच्चों के साथ दुराचार करके भी मुसलमान हो सकता है, चार से ज्यादा शादियाँ करके भी मुसलमान हो सकता है, शराब पीकर नमाज न पढ़कर भी मुसलमान हो सकता है, चरस, गांजा, अफीम खाकर भी मुसलमान हो सकता है, हजारों लोगों के सिर काटकर उनसे मीनार बनाकर भी मुसलमान हो सकता है, लूट और बलात्कार करके भी मुसलमान हो सकता है तो फिर वह कौन है जो मुसलमान नहीं हो सकता? क्या इस्लाम इस सब की इजाजत देता है? यदि नहीं तो आज तक किसी मौलवी मुल्ला ने इस विषय पर एक शब्द भी क्यों नहीं कहा?
२. केवल यही नहीं, जो यह सब करके अपने या अपने पुरुष आशिक के नाम की मस्जिद बनवा दे, ऐसी जगह को मस्जिद कहना हराम नहीं है क्या? क्या किसी बलात्कारी समलैंगिक शराबी व्यभिचारी के पुरुष आशिक के नाम की मस्जिद में अता की गयी नमाज अल्लाह को क़ुबूल होगी? यदि हाँ तो अल्लाह ने इन सबको हराम क्यों बताया? यदि नहीं तो अधिकतर मुसलमान और मौलवी इस जगह को मस्जिद कहकर दंगा फसाद क्यों कर रहे हैं? क्या इसका टूटना इस्लाम पर लगे कलंक को मिटाने जैसा नहीं था? क्या यह काम खुद मुसलमानों को नहीं करना चाहिए था?
३. जब इस दरिन्दे बाबर ने खुद क़ुबूल किया है कि इसने हजारों के सिर कटवाए और कुफ्र को मिटाया तो फिर आजकल के जाकिर नाइक जैसे आतंकी मुल्ला यह क्यों कहते हैं कि इस्लाम तलवार के बल पर भारत में नहीं फैला? जब खुद अकबर (जिसको इतिहासकारों द्वारा हिन्दुओं का रक्षक कहा गया है और जान ए हिन्दुस्तान नाम से पुकारा गया है) जैसा नेकदिल (?) भी हजारों हिन्दुओं के सिरों को काटकर उनके खम्बे बनाने में प्रसिद्ध था तो फिर यह कैसे माना जाए कि इस्लाम तलवार से नहीं फैला? क्या ये लक्षण शान्ति से धर्म फैलाने के हैं? फिर इस्लाम का मतलब ‘शान्ति’ कैसे हुआ?
४. भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बंगलादेश में रहने वाले सब मुसलमानों के पूर्वज हिन्दू ही थे जो हजारों सालों से यहाँ रहते आ रहे थे. जब बाबर जैसे और इससे भी अधिक दरिंदों ने आकर यहाँ मारकाट बलात्कार और तबाही मचाई, सिरों को काटकर मीनारें लहरायीं तो दहशत के इस वातावरण में बहुत से हिन्दुओं ने अपना धर्म बदल लिया और उन्हीं लाचार पूर्वजों की संतानें आज मुसलमान होकर अपने असली धर्म के खिलाफ आग उगल रही हैं. जिन मुसलमानों के बाबरी मस्जिद (?) विध्ध्वंस पर आंसू नहीं थम रहे, जो बार बार यही कसम खा रहे हैं कि बाबरी मस्जिद ही बनेगी, जो बाबर को अपना पूर्वज मान बैठे हैं, ज़रा एक बार खुद से सवाल तो करें- क्या मेरे पूर्वज अरब, तुर्क या मंगोल से आये थे? क्या मेरे पूर्वज इस भारत भूमि की पैदावार नहीं थे? कटे हुए सिरों की मीनारें देखकर भय से धर्म परिवर्तन करने वाले पूर्वजों के वंशज आज कौन हैं, कहाँ हैं, क्या कभी सोचा है? क्या यह विचार कभी मन में नहीं आता कि इतने कत्ले आम और बलात्कार होने पर विवश माता पिताओं के वे लाल आज कहाँ हैं कि जिन्हें अपना धर्म, माता, पिता सब खोने पड़े? क्या भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बंगलादेश में रहने वाले ७०-८० करोड़ मुसलमान सीधे अरबों, तुर्कों के वंशज हैं? कभी यह नहीं सोचा कि इतने मुसलमान तो अरब, तुर्क, ईरान, ईराक में मिला कर भी नहीं हैं जो इस्लाम के फैलाने में कारण बने? क्या तुम्हारे पूर्वज राम को नहीं मानते थे? क्या बलपूर्वक अत्याचार के कारण तुम्हारे पूर्वजों का धर्म बदलने से तुम्हारा पूर्वज राम की बजाय बाबर हो जाएगा? अगर नहीं तो आज अपने असली पूर्वज राम को गाली और अपने पूर्वजों के कातिल और बलात्कारी बाबर का गुणगान क्यों?
५. अयोध्या की तरह काशी, मथुरा और हजारों ऐसी ही जगहें जिन्हें मस्जिद कह कर इस्लाम का मजाक उड़ाया जाता है, जो बाबर की तरह ही इसके पूर्वजों और वंशजों की हवस की निशानियाँ हैं, इनको मुसलमान खुद क्यों मस्जिद मानने से इनकार नहीं करते?
६. यदि बाबरी ढांचा टूटना गलत था तो राम मंदिर टूटना गलत क्यों नहीं था? यदि राम मंदिर की बात पुरानी हो गयी है तो ढांचा टूटने की बात भी तो कोई नयी नहीं! तो फिर उस पर हायतौबा क्यों?
अंत में हम कहेंगे कि जिस तरह भारत में रहने वाले हिन्दू मुसलमानों के पूर्वजों पर अत्याचार और बलात्कार करने वाले वहशी दरिन्दे बाबर के नाम का ढांचा आज नहीं है उसी तरह बाकी सब ढांचे जो तथाकथित इस्लामी राज्य के दौरान मंदिरों को तोड़कर बनवाये गए थे, जो सब हिन्दू मुसलमानों के पूर्वजों के अपमान के प्रतीक हैं, उनको अविलम्ब मिट्टी में मिला दिया जाए और इसकी पहल हमारे खून के भाई मुसलमान ही करें जिनके साथ हमारा हजारों लाखों सालों का रक्त सम्बन्ध है. इस देश में रहने वाले किसी आदमी की, चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान, धमनियों में दरिन्दे जानवर बाबर या अकबर का खून नहीं किन्तु राम, कृष्ण, महाराणा प्रताप और शिवाजी का खून है. और इस एक खून की शपथ लेकर सबको यह प्रण करना है कि अब हमारे पूर्वजों पर लगा कोई कलंक भी देश में नहीं रह पायेगा.
क्या दृश्य होगा कि हिन्दू और मुसलमान एक साथ अपने एक पूर्वजों पर लगे कलंकों को गिराएंगे और उस जगह अपने पूर्वजों की यादगार के साथ साथ उनके असली धर्म वेद की पाठशाला बनायेंगे जहां राम और कृष्ण जैसे धर्मयोद्धा तैयार होंगे कि फिर कोई बाबर आकर इस भूमि के पुत्रों को उनके माता पिता, दोस्तों और धर्म से अलग न कर सके!
और तब तक के लिए, आओ हम सब हिन्दू और मुस्लिम भाई मिलकर हर साल पूरे उत्साह के साथ ६ दिसंबर के पावन पर्व को ‘शौर्य दिवस’ और ‘गौरव दिवस’ के रूप में मनाएं. हाँ, मथुरा और वाराणसी में ऐसे ही वहशी दरिन्दे ‘औरंगजेब’ के बनाये ढांचें – जो इस्लाम के पावन नाम पर बदतर कलंक है - उनको मिटाने का सौभाग्य हमारे मुस्लिम भाइयों को ही मिले.
६ दिसंबर १९९२ के दिन हिन्दू-मुस्लिम एकता के सबसे बड़े प्रतीक की स्थापना करने वाले सभी भाई-बहनों को हम सब हिन्दू और मुसलमानों का कोटि-कोटि नमन.
http://www.agniveer.com/babri-masjid-hi/
मिसाल के तौर पर इस्लाम के सूफी ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती हर हिन्दू मुसलमान के दिल में बसे हैं. उनकी कब्र पर जहां मुसलमान सर झुकाते हैं तो भाईचारे की भावना से विवश हिन्दू भी सर झुकाते हैं.
फिर, अजीमोशान शहंशाह अकबर जो हर दिल अजीज हैं, जिन्होंने भारत के राजाओं और प्रजाओं को काट काटकर एक छत्र में खड़ा कर दिया. जिन्होंने धर्म के बन्धनों को तोड़कर छत्तीसों हिन्दू राजपूत कन्याओं को अपने हरम में डालकर अपने सबसे करीब आने का सुनहरा अवसर दिया. क्या इससे बढ़कर हिन्दू मुस्लिम एकता का प्रतीक कुछ हो सकता है? ये और बात है कि कभी इन शौक़ीन सुल्तानों ने अपने हरम से उत्पन्न हुई किसी स्त्री को किसी हिन्दू को नहीं ब्याहने दिया.
फिर, टीपू सुलतान ने अपनी मातृभूमि भारत के लिए अंग्रेजों से लड़ाई की और शहीद हो गए.
अतः मोईनुद्दीन चिश्ती, अकबर, और टीपू सुलतान जैसे व्यक्ति ही वास्तव में हिन्दू मुस्लिम एकता के प्रतीक हैं, ऐसा हमारे इतिहास को पढने से प्रतीत होता है.
यह बात अलग है कि कुछ सिरफिरे ऐसे एकता के प्रतीकों पर यह कह कर प्रश्न खडा कर देते हैं कि मोईनुद्दीन चिश्ती तो एक गद्दार घुसपैठिया था जिसने मुहम्मद गौरी को भारत के हिन्दू राजा पृथ्वीराज चौहान पर हमला करने के लिए उकसाया था और सहायता दी थी. वे कहते हैं कि अकबर ने जब चित्तौड़ विजय के समय तीस हज़ार निर्दोष लोगों के कत्ले आम के आदेश दिए (और उतनी स्त्रियों को या जल मरने के लिए या अपने सैनिको कि हवस पूर्ती के लिए छोड़ दिया), और उनके सिरों को काटकर उनसे मीनार बनवायीं तो फिर वह एकता का प्रतीक कैसे हुआ? जब टीपू सुलतान ने हजारों हिन्दुओं को जबरन मुसलमान बनाया और हजारों को क़त्ल किया क्योंकि वे मुसलमान न बने तो फिर वह एकता का प्रतीक कैसे? वे कहते हैं कि टीपू भारत के लिए नहीं बल्कि अपनी हुकूमत के लिए अंग्रेजों से लड़ रहा था.
सदियों से साथ साथ रहने की बात पर जब ये सिरफिरे सवाल उठाते हैं कि एक समय इस देश की सीमाएं पश्चिम में ईरान को तो पूर्व में बर्मा को छूती थीं, और उत्तर में कश्मीर भी इसी भारत भूमि का अंश था तो फिर ऐसा कैसे हुआ कि सदियों से साथ साथ रहने वाले भाइयों ने हमारी भारत माता को पांच टुकड़ों (अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, कश्मीर, बंगलादेश) में तोड़ डाला जिनमें से चार में आज साथ रहने वाले हिन्दू दीखते ही नहीं, तो इस पर सब इतिहासकार और सेकुलरवादी बिफर पड़ते हैं. हम भी इन सिरफिरों से बिलकुल संतुष्ट नहीं!
अरे! क्या हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए कुछ हिन्दू सिर्फ अपने सिर, अपनी स्त्रियाँ, अपना धर्म और अपनी जमीन भी नहीं दे सकते? क्या हिन्दुओं का यह कर्त्तव्य नहीं था कि दुनिया भर में इस्लामी परोपकार और कल्याणकारी भावना से ओतप्रोत घूम रहे मुगलों, अरबों, तुर्कों आदि को कुछ सिर, बहनें, बेटियां और धर्म अर्पण कर उनके परोपकार का मोल चुकाते? जो मुग़ल आदि सदा अपने मुल्क छोड़कर पराये मुल्क भारत को एक करने के महान उद्देश्य से यहाँ संघर्ष करते रहे, वे इतना तो अधिकार रखते ही थे कि उन्हें पारितोषिक के रूप में धन, स्त्रियाँ, राज्य, धर्म और इन सबसे बढ़कर “एकता का प्रतीक” सम्मान मिले. अरे लानत है ऐसे स्वाभिमानी हिन्दुओं पर जो सांप्रदायिक सद्भाव के लिए इतना भी नहीं कर सकते! इस देश के अधिकाँश इतिहासकारों के लिए यह हर्ष का विषय होना चाहिए कि ऐसा ही हुआ |भले ही कुछ सिरफिरे आज इसका विरोध करते रहें जैसा कि महान मुगलों के समय क्षुद्र महाराणा प्रताप और शिवाजी ने किया था और यहाँ अग्निवीर कर रहा है. पर कौन पूछता है इनको? दिल्ली में ही अकबर, बाबर, हुमायूं, औरंगजेब, लोदी, आदि के नाम पर सड़कों और स्थानों के नाम रखे गए हैं ताकि एकता के धरोहर इन नामों का सम्मान हो सके!
खैर छोड़ें इन व्यर्थ बातों को.
आज हम जिस विषय पर लिखने जा रहे हैं, वह सेकुलरवादियों और एकपक्षीय एकता चाहने वालों को शायद अच्छा न लगे. आज से अट्ठारह वर्ष पहले ६ दिसंबर सन १९९२ को इस देश के एक और “एकता के प्रतीक” मुगलों में से एक बाबर के नाम पर बनाया गया एक ढांचा तोड़ डाला गया. इसका इतिहास कुछ ऐसा है कि अयोध्या में बहुत पुराना राम मंदिर हुआ करता था जिस के बारे में करोड़ों हिन्दुओं का यह विश्वास है कि श्रीराम उसी स्थान पर जन्मे थे. इसे कुफ्र की निशानी मानकर बाबर के जिहादियों ने बलपूर्वक तोड़ डाला क्योंकि मूर्तिपूजा इस्लाम में वर्जित है और इसलिए वहां बाबर के नाम की मस्जिद बना दी. राम मंदिर को बलपूर्वक तोड़े जाने की घटना पर एक शब्द भी न निकालने वाले सेकुलरिस्टों और जिहादियों को जैसे ही बाबरी ढांचा टूटने की खबर मिली, उनके हृदयों पर जैसे आकाश टूट पडा, जैसे बिजली सी गिरी या वज्रपात हो गया.
ठीक ही था, राम ठहरा इस देश के निवासियों का पूर्वज और बाबर ठहरा पराये मुल्क से यहाँ आकर परोपकार के निमित्त धन, स्त्रियाँ, राज्य आदि की व्यवस्था करने वाला जिसका एकमात्र उद्देश्य इस भारत को एकछत्र के नीचे लाकर विश्व का कल्याण करना था! एक राम था जिसने पराया देश लंका विजय करने पर भी राज्य वहीँ के स्थानीय लोगों को दे दिया, उनकी स्त्रियों को माता कहकर उनकी ओर देखा भी नहीं और एक ओर बाबर था जिसने राज्य जीतकर यहाँ के स्थानीय लोगों की सेवा करना ज्यादा उचित समझा और स्त्रियाँ जीतकर इन्हें अपना ही कर्त्तव्य समझ कर अपने हरम की ओर रवाना कर दिया! इस तरह के “एकता के प्रतीक” बाबर के जीवन के कुछ और प्रेरक (?) प्रसंगों को पढने की इच्छा से हमने स्वयं बाबर का लिखा हुआ “बाबरनामा” पढ़ा जिसमें उसने अपने जीवन की घटनाएं अपनी लेखनी से ही लिखी हैं ताकि आने वाली पीढी भी उनसे कुछ सीख ले सके. आप भी बाबरनामा को यहाँ पढ़ सकते हैं http://www.archive.org/details/baburnama017152mbp
हमारा यह दृढ विश्वास था कि बाबर एक पक्का मुसलमान था और इस्लामी रिवाज के अनुसार अपने देश से अधिक दूसरे देशों के लोगों, धर्म, राज्य और स्त्रियों का अधिक ध्यान उसे सताता था. पर अचानक हमने कुछ ऐसा पढ़ा कि जिससे इस महात्मा मोमिन बाबर के चरित्र के कुछ और रंग सामने आये! और तब हमें लगा कि हिन्दू मुस्लिम एकता के प्रतीकों में से सबसे अधिक यदि कोई मूल्यवान है तो वह है बाबरी ढाँचे का विध्ध्वंस. चौंकिए नहीं! खुद बाबर के लिखे बाबरनामा से यह पता चलता है कि राम मंदिर तोड़कर उसके नाम पर बनाया गया ढांचा असल में मस्जिद ही नहीं था! ऐसा इसलिए क्योंकि बाबर खुद मुसलमान ही नहीं था! क्योंकि-
बाबर एक समलैंगिक (homosexual), नशेड़ी, शराबी, और बाल उत्पीड़क (child molester) था
बाबरनामा के विभिन्न पृष्ठों से लिए गए निम्नलिखित अंश पढ़िए
१. पृष्ठ १२०-१२१ पर बाबर लिखता है कि वह अपनी पत्नी में अधिक रूचि नहीं लेता था बल्कि वह तो बाबरी नाम के एक लड़के का दीवाना था. वह लिखता है कि उसने कभी किसी को इतना प्यार नहीं किया कि जितना दीवानापन उसे उस लड़के के लिए था. यहाँ तक कि वह उस लड़के पर शायरी भी करता था. उदाहरण के लिए- “मुझ सा दर्दीला, जुनूनी और बेइज्जत आशिक और कोई नहीं है. और मेरे आशिक जैसा बेदर्द और तड़पाने वाला भी कोई और नहीं है.”
२. बाबर लिखता है कि जब बाबरी उसके ‘करीब’ आता था तो बाबर इतना रोमांचित हो जाता था कि उसके मुंह से शब्द भी नहीं निकलते थे. इश्क के नशे और उत्तेजना में वह बाबरी को उसके प्यार के लिए धन्यवाद देने को भी मुंह नहीं खोल पता था.
३. एक बार बाबर अपने दोस्तों के साथ एक गली से गुजर रहा था तो अचानक उसका सामना बाबरी से हो गया! बाबर इससे इतना उत्तेजित हो गया कि बोलना बंद हो गया, यहाँ तक कि बाबरी के चेहरे पर नजर डालना भी नामुमकिन हो गया. वह लिखता है- “मैं अपने आशिक को देखकर शर्म से डूब जाता हूँ. मेरे दोस्तों की नजर मुझ पर टिकी होती है और मेरी किसी और पर.” स्पष्ट है की ये सब साथी मिलकर क्या गुल खिलाते थे!
४. बाबर लिखता है कि बाबरी के जूनून और चाह में वह बिना कुछ देखे पागलों की तरह नंगे सिर और नागे पाँव इधर उधर घूमता रहता था.
५. वह लिखता है- “मैं उत्तेजना और रोमांच से पागल हो जाता था. मुझे नहीं पता था कि आशिकों को यह सब सहना होता है. ना मैं तुमसे दूर जा सकता हूँ और न उत्तेजना की वजह से तुम्हारे पास ठहर सकता हूँ. ओ मेरे आशिक (पुरुष)! तुमने मुझे बिलकुल पागल बना दिया है”.
इन तथ्यों से पता चलता है कि बाबर और उसके साथी समलैंगिक और बाल उत्पीड़क थे. अब यदि इस्लामी शरियत की बात करें तो समलैंगिकों के लिए मौत की सजा ही मुक़र्रर की जाती है. बहुत से इस्लामी देशों में यह सजा आज भी दी जाती है. बाबर को भी यही सजा मिलनी चाहिए थी. दूसरी बात यह है कि उसके नाम पर बनाए ढाँचे का नाम “बाबरी मस्जिद” था जो कि उसके पुरुष आशिक “बाबरी” के नाम पर था! हम पूछते हैं कि क्या अल्लाह के इबादत के लिए कोई ऐसी जगह क़ुबूल की जा सकती है कि जिसका नाम ही समलैंगिकता के प्रतीक बाबर के पुरुष आशिक “बाबरी” के नाम पर रखा गया हो? इससे भी बढ़कर एक आदमी द्वारा जो कि मुसलमान ही नहीं हो, समलैंगिक और बच्चों से कुकर्म करने वाला हो, उसके नाम पर मस्जिद किसी भी मुसलमान को कैसे क़ुबूल हो सकती है?
यह सिद्ध हो गया है कि बाबरी मस्जिद कोई इबादतघर नहीं लेकिन समलैंगिकता और बाल उत्पीडन का प्रतीक जरूर थी. और इस तरह यह अल्लाह, मुहम्मद, इस्लाम आदि के नाम पर कलंक थी कि जिसको खुद मुसलमानों द्वारा ही नेस्तोनाबूत कर दिया जाना चाहिए था. खैर वे यह नहीं कर सके पर जिसने यह काम किया है उनको बधाई और धन्यवाद तो जरूर देना चाहिए था. यह बहुत शर्म की बात है कि पशुतुल्य और समलैंगिकता के महादोष से ग्रसित आदमी के बनाए ढाँचे को, जो कि भारत की हार का प्रतीक था, यहाँ के इतिहासकारों, मुसलमानों, और सेकुलरवादियों ने किसी अमूल्य धरोहर की तरह संजो कर रखना चाहा.
यह ऐसी ही बात है कि जैसे मुंबई में छत्रपति शिवाजी टर्मिनल्स स्टेशन पर नपुंसक और कायर आतंकवादी अजमल कसब द्वारा निर्दोष लोगों को मौत के घाट उतारने के उपलक्ष्य में उस स्थान का नाम “कसब भूमि” रखकर उसे भी धरोहर बना दिया जाये!
बाबर नरसंहारक, लुटेरा, बलात्कारी, शराबी और नशेड़ी था
यहाँ पर इस विषय में कुछ ही प्रमाण इस दरिन्दे की लिखी जीवनी बाबरनामा से दिए जा रहे हैं. इसके और अधिक कारनामे जानने के लिए पूरी पुस्तक पढ़ लें.
पृष्ठ २३२- वह लिखता है कि उसकी सेना ने निरपराध अफगानों के सिर काट लिए जो उसके साथ शान्ति की बात करने आ रहे थे. इन कटे हुए सिरों से इसने मीनार बनवाई. ऐसा ही कुछ इसने हंगू में किया जहाँ २०० अफगानियों के सिर काट कर खम्बे बनाए गए.
पृष्ठ ३७०- क्योंकि बाजौड़ में रहने वाले लोग दीन (इस्लाम) को नहीं मानते थे इसलिए वहां ३००० लोगों का क़त्ल कर दिया गया और उनके बीवी बच्चों को गुलाम बना लिया गया.
पृष्ठ ३७१- गुलामों में से कुछों के सिर काटकर काबुल और बल्ख भेजे गए ताकि फतह की सूचना दी जा सके.
पृष्ठ ३७१- कटे हुए सिरों के खम्बे बनाए गए ताकि जीत का जश्न मनाया जा सके.
पृष्ठ ३७१- मुहर्रम की एक रात को जश्न मनाने के लिए शराब की एक महफ़िल जमाई गयी जिसमें हमने पूरी रात पी. (पूरे बाबरनामा में जगह जगह ऐसी शराब की महफ़िलों का वर्णन है. ध्यान रहे कि शराब इस्लाम में हराम है.)
पृष्ठ ३७३- बाबर ने एक बार ऐसा नशा किया कि नमाज पढने भी न जा सका. आगे लिखता है कि यदि ऐसा नशा वह आज करता तो उसे पहले से आधा नशा भी नहीं होता.
पृष्ठ ३७४- बाबर ने अपने हरम की बहुत सी महिलाओं से बहुत से बच्चे उत्पन्न किये. उसकी पहली बेगम ने उससे वादा किया कि वह उसके हर बच्चे को अपनाएगी चाहे वे किसी भी बेगम से हुए हों, ऐसा इसलिए क्योंकि उसके पैदा किये कुछ बच्चे चल बसे थे. यह तो जाहिर ही है कि इसके हरम बनाम मुर्गीखाने में इसकी हवस मिटाने के लिए कुछ हजार औरतें तो होंगी ही जैसे कि इसके पोते स्वनामधन्य अकबर के हरम में पांच हजार औरतें थीं जो इसकी ३६ (छत्तीस) पत्नियों से अलग थीं. यह बात अलग है कि इसका हरम अधिकतर समय सूना ही रहता होगा क्योंकि इसको स्त्रियों से अधिक पुरुष और बच्चे पसंद थे! और बाबरी नाम के बच्चे में तो इसके प्राण ही बसे थे.
पृष्ठ ३८५-३८८- अपने बेटे हुमायूं के पैदा होने पर बाबर बहुत खुश हुआ था, इतना कि इसका जश्न मनाने के लिए अपने दोस्तों के साथ नाव में गया जहां पूरी रात इसने शराब पी और नशीली चीजें खाकर अलग से नशा किया. फिर जब नशा इनके सिरों में चढ़ गया तो आपस में लड़ाई हुई और महफ़िल बिखर गयी. इसी तरह एक और शराब की महफ़िल में इसने बहुत उल्टी की और सुबह तक सब कुछ भूल गया.
पृष्ठ ५२७- एक और महफ़िल एक मीनारों और गुम्बद वाली इमारत में हुई थी जो आगरा में है. (ध्यान रहे यह इमारत ताजमहल ही है जिसे अधिकाँश सेकुलर इतिहासकार शाहजहाँ की बनायी बताते हैं, क्योंकि आगरा में इस प्रकार की कोई और इमारत न पहले थी और न आज है! शाहजहाँ से चार पीढी पहले जिस महल में उसके दादा ने गुलछर्रे उड़ाए थे उसे वह खुद कैसे बनवा सकता है?)
बाबरनामा का लगभग हर एक पन्ना इस दरिन्दे के कातिल होने, लुटेरा होने, और दुराचारी होने का सबूत है. यहाँ यह याद रखना चाहिए कि जिस तरह बाबर यह सब लिखता है, उससे यह पता चलता है कि उसे इन सब बातों का गर्व है, इस बात का पता उन्हें चल जाएगा जो इसके बाबरनामा को पढेंगे. आश्चर्य इस बात का है कि जिन बातों पर इसे गर्व था यदि वे ही इतनी भयानक हैं तो जो आदतें इसकी कमजोरी रही होंगी, जिन्हें इसने लिखा ही नहीं, वे कैसी क़यामत ढहाने वाली होंगी?
सारांश
१. यदि एक आदमी समलैंगिक होकर भी मुसलमान हो सकता है, बच्चों के साथ दुराचार करके भी मुसलमान हो सकता है, चार से ज्यादा शादियाँ करके भी मुसलमान हो सकता है, शराब पीकर नमाज न पढ़कर भी मुसलमान हो सकता है, चरस, गांजा, अफीम खाकर भी मुसलमान हो सकता है, हजारों लोगों के सिर काटकर उनसे मीनार बनाकर भी मुसलमान हो सकता है, लूट और बलात्कार करके भी मुसलमान हो सकता है तो फिर वह कौन है जो मुसलमान नहीं हो सकता? क्या इस्लाम इस सब की इजाजत देता है? यदि नहीं तो आज तक किसी मौलवी मुल्ला ने इस विषय पर एक शब्द भी क्यों नहीं कहा?
२. केवल यही नहीं, जो यह सब करके अपने या अपने पुरुष आशिक के नाम की मस्जिद बनवा दे, ऐसी जगह को मस्जिद कहना हराम नहीं है क्या? क्या किसी बलात्कारी समलैंगिक शराबी व्यभिचारी के पुरुष आशिक के नाम की मस्जिद में अता की गयी नमाज अल्लाह को क़ुबूल होगी? यदि हाँ तो अल्लाह ने इन सबको हराम क्यों बताया? यदि नहीं तो अधिकतर मुसलमान और मौलवी इस जगह को मस्जिद कहकर दंगा फसाद क्यों कर रहे हैं? क्या इसका टूटना इस्लाम पर लगे कलंक को मिटाने जैसा नहीं था? क्या यह काम खुद मुसलमानों को नहीं करना चाहिए था?
३. जब इस दरिन्दे बाबर ने खुद क़ुबूल किया है कि इसने हजारों के सिर कटवाए और कुफ्र को मिटाया तो फिर आजकल के जाकिर नाइक जैसे आतंकी मुल्ला यह क्यों कहते हैं कि इस्लाम तलवार के बल पर भारत में नहीं फैला? जब खुद अकबर (जिसको इतिहासकारों द्वारा हिन्दुओं का रक्षक कहा गया है और जान ए हिन्दुस्तान नाम से पुकारा गया है) जैसा नेकदिल (?) भी हजारों हिन्दुओं के सिरों को काटकर उनके खम्बे बनाने में प्रसिद्ध था तो फिर यह कैसे माना जाए कि इस्लाम तलवार से नहीं फैला? क्या ये लक्षण शान्ति से धर्म फैलाने के हैं? फिर इस्लाम का मतलब ‘शान्ति’ कैसे हुआ?
४. भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बंगलादेश में रहने वाले सब मुसलमानों के पूर्वज हिन्दू ही थे जो हजारों सालों से यहाँ रहते आ रहे थे. जब बाबर जैसे और इससे भी अधिक दरिंदों ने आकर यहाँ मारकाट बलात्कार और तबाही मचाई, सिरों को काटकर मीनारें लहरायीं तो दहशत के इस वातावरण में बहुत से हिन्दुओं ने अपना धर्म बदल लिया और उन्हीं लाचार पूर्वजों की संतानें आज मुसलमान होकर अपने असली धर्म के खिलाफ आग उगल रही हैं. जिन मुसलमानों के बाबरी मस्जिद (?) विध्ध्वंस पर आंसू नहीं थम रहे, जो बार बार यही कसम खा रहे हैं कि बाबरी मस्जिद ही बनेगी, जो बाबर को अपना पूर्वज मान बैठे हैं, ज़रा एक बार खुद से सवाल तो करें- क्या मेरे पूर्वज अरब, तुर्क या मंगोल से आये थे? क्या मेरे पूर्वज इस भारत भूमि की पैदावार नहीं थे? कटे हुए सिरों की मीनारें देखकर भय से धर्म परिवर्तन करने वाले पूर्वजों के वंशज आज कौन हैं, कहाँ हैं, क्या कभी सोचा है? क्या यह विचार कभी मन में नहीं आता कि इतने कत्ले आम और बलात्कार होने पर विवश माता पिताओं के वे लाल आज कहाँ हैं कि जिन्हें अपना धर्म, माता, पिता सब खोने पड़े? क्या भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बंगलादेश में रहने वाले ७०-८० करोड़ मुसलमान सीधे अरबों, तुर्कों के वंशज हैं? कभी यह नहीं सोचा कि इतने मुसलमान तो अरब, तुर्क, ईरान, ईराक में मिला कर भी नहीं हैं जो इस्लाम के फैलाने में कारण बने? क्या तुम्हारे पूर्वज राम को नहीं मानते थे? क्या बलपूर्वक अत्याचार के कारण तुम्हारे पूर्वजों का धर्म बदलने से तुम्हारा पूर्वज राम की बजाय बाबर हो जाएगा? अगर नहीं तो आज अपने असली पूर्वज राम को गाली और अपने पूर्वजों के कातिल और बलात्कारी बाबर का गुणगान क्यों?
५. अयोध्या की तरह काशी, मथुरा और हजारों ऐसी ही जगहें जिन्हें मस्जिद कह कर इस्लाम का मजाक उड़ाया जाता है, जो बाबर की तरह ही इसके पूर्वजों और वंशजों की हवस की निशानियाँ हैं, इनको मुसलमान खुद क्यों मस्जिद मानने से इनकार नहीं करते?
६. यदि बाबरी ढांचा टूटना गलत था तो राम मंदिर टूटना गलत क्यों नहीं था? यदि राम मंदिर की बात पुरानी हो गयी है तो ढांचा टूटने की बात भी तो कोई नयी नहीं! तो फिर उस पर हायतौबा क्यों?
अंत में हम कहेंगे कि जिस तरह भारत में रहने वाले हिन्दू मुसलमानों के पूर्वजों पर अत्याचार और बलात्कार करने वाले वहशी दरिन्दे बाबर के नाम का ढांचा आज नहीं है उसी तरह बाकी सब ढांचे जो तथाकथित इस्लामी राज्य के दौरान मंदिरों को तोड़कर बनवाये गए थे, जो सब हिन्दू मुसलमानों के पूर्वजों के अपमान के प्रतीक हैं, उनको अविलम्ब मिट्टी में मिला दिया जाए और इसकी पहल हमारे खून के भाई मुसलमान ही करें जिनके साथ हमारा हजारों लाखों सालों का रक्त सम्बन्ध है. इस देश में रहने वाले किसी आदमी की, चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान, धमनियों में दरिन्दे जानवर बाबर या अकबर का खून नहीं किन्तु राम, कृष्ण, महाराणा प्रताप और शिवाजी का खून है. और इस एक खून की शपथ लेकर सबको यह प्रण करना है कि अब हमारे पूर्वजों पर लगा कोई कलंक भी देश में नहीं रह पायेगा.
क्या दृश्य होगा कि हिन्दू और मुसलमान एक साथ अपने एक पूर्वजों पर लगे कलंकों को गिराएंगे और उस जगह अपने पूर्वजों की यादगार के साथ साथ उनके असली धर्म वेद की पाठशाला बनायेंगे जहां राम और कृष्ण जैसे धर्मयोद्धा तैयार होंगे कि फिर कोई बाबर आकर इस भूमि के पुत्रों को उनके माता पिता, दोस्तों और धर्म से अलग न कर सके!
और तब तक के लिए, आओ हम सब हिन्दू और मुस्लिम भाई मिलकर हर साल पूरे उत्साह के साथ ६ दिसंबर के पावन पर्व को ‘शौर्य दिवस’ और ‘गौरव दिवस’ के रूप में मनाएं. हाँ, मथुरा और वाराणसी में ऐसे ही वहशी दरिन्दे ‘औरंगजेब’ के बनाये ढांचें – जो इस्लाम के पावन नाम पर बदतर कलंक है - उनको मिटाने का सौभाग्य हमारे मुस्लिम भाइयों को ही मिले.
६ दिसंबर १९९२ के दिन हिन्दू-मुस्लिम एकता के सबसे बड़े प्रतीक की स्थापना करने वाले सभी भाई-बहनों को हम सब हिन्दू और मुसलमानों का कोटि-कोटि नमन.
http://www.agniveer.com/babri-masjid-hi/
Peace if possible, truth at all costs.