#TheTrueIndianHistory
आजादी के बाद तैयार हो रहे नए संविधान के अनुसार गर्वनर जनरल का पद समाप्त होकर राष्ट्रपति का पद निर्माण होना था। माउंटबेटन की विदाई के बाद राजगोपालाचारी गर्वनर जनरल के रूप में कार्यरत थे। जवाहरलाल नेहरू की इच्छा थी कि देश के प्रथम राष्ट्रपति भी राजगोपालाचारी उर्फ राजा जी बनें। सरदार पटेल उससे उलट सोचते थे।
राजाजी ने 1941 में अंग्रेज सरकार और मुस्लिम लीग के साथ समझौता करने के लिए कांग्रेस छोड़ दिया था और वह कांग्रेस के 'भारत छोड़ो आंदोलन' से भी हट गए थे। सरदार इसे भुला नहीं पाए थे। उनकी मंशा थी कि प्रथम राष्ट्रपति के लिए राजेंद्र प्रसाद ही सबसे उपयुक्त हैं। इसके अलावा राजेंद्र प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष भी थे, इसलिए नेहरू को छोड़कर अन्य सभी सदस्यों की इच्छा थी कि डॉ राजेंद्र प्रसाद ही देश के प्रथम राष्ट्रपति बने।
नेहरू ने राजेंद्र प्रसाद को रास्ते से हटाने के लिए एक झूठा पत्र उन्हें लिखा। नेहरू ने लिखा, '' मैंने इस विषय में वल्लभभाई के साथ चर्चा कर ली है। हम दोनों की यही सोच है कि वर्तमान व्यवस्था को जारी रखना ही सर्वाधिक उचित एवं उत्तम मार्ग है, यानी कि राजाजी प्रमुख के रूप में बने रहें। यद्यपि आप प्रमुख बनें, यह पंसद भी अत्यंत प्रसन्नतादायक होगी, परंतु उसमें परिवर्तन करना होगा और फलस्वरूप अलग स्वयस्था करनी होगी। मैं आशा करता हूं आप सहमत होंगे। इस विषय में किसी अन्य व्यक्ति के बदले आप स्वयं ही ऐसा सुझाव देंगे तो आपके लिए भी उचित होगा।''
पत्र पढ़कर राजेंद्र प्रसाद बहुत दुखी हो गए। उन्हें लगा कि उन्हें विश्वास में लिए बिना सरदार पटेल और नेहरू ने यह निर्णय भी कर लिया और सरदार ने उन्हें बताया भी नहीं। नेहरू के पत्र में राजाजी के नाम पर सरदार पटेल की सहमति देखकर राजेंद्र प्रसाद को लगा कि सरदार उनके समक्ष कुछ कह रहे हैं और पीठ पीछे कुछ और ही कर रहे हैं।
राजेंद्र प्रसाद ने सीधे सरदार पटेल से बात की और यह झूठ खुल गया कि सरदार ने कभी राजाजी के नाम पर सहमति जताई ही नहीं थी। नेहरू ने राजेंद्र प्रसाद को रास्ते से हटाले के लिए अपने पत्र में सरदार का नाम झूठ बोलते हुए लिखा था। नेहरू पकड़े गए। राजेंद्र प्रसाद भड़ग गए और जवाहरलाल से सीधा इस झूठ के संबंध में पूछ लिय। जवाहरलाल को अपमानित होना पड़ा और उन्होंने फिर एक झूठ बोलते हुए कहा कि उन्होंने सरदार का नाम गलती से लिख दिया था।
सरदार को जवाहरलाल नेहरू की यह कुटिलता पसंद नहीं आयी। उन्हें लगा कि जवाहरलाल को अवगत कराना ही होगा कि संगठन की ताकत उनके साथ है न कि जवाहर के साथ। जवाहरलाल ने जब राष्ट्रपति के लिए राजाजी का नाम प्रस्तावित किया तो तुरंत ही सदस्यों ने शोर मचाकर इसका विरोध प्रकट कर दिया। परिस्थिति इतनी बिगड़ गई कि जवाहरलाल अपना पूरा वक्तव्य ही नहीं पढ़ पाए। वह सरदार की ओर मुड़े ताकि सरदार उन्हें अपमान से बचा लें और राजाजी का नाम प्रस्तावित कर दें, लेकिन सरकार ने नेहरू को समर्थन देने से स्पष्ट इनकार कर दिया। बाद में सरदार ने अपने कांग्रेसी साथी द्वारकाप्रसाद मिश्र से कहा कि, 'यदि दुल्हा (राजेंद्र प्रसाद) खुद पालकी छोड़कर भाग न जाए तो उसकी शादी पक्की (अर्थात राष्ट्रपति बनना तय) है।'' राजाजी को सरदार ने मना कर बैठा लिया और 26 जनवरी 1950 को नए संविधान के अनुसार भारतीय गणतंत्र का जन्म हुआ और डॉ राजेंद्र प्रसाद देश के पहले राष्ट्रपति बने।
राजेंद्र प्रसाद के कारण हुए इस अपमान को जवारलाल कभी नहीं भूल पाए। जब डॉ राजेंद्र प्रसाद की मृत्यु हुई तो उन्हें अंतिम विदाई देने वह खुद तो नहीं ही गए, अपने मंत्रीमंडल के सदस्यों और तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राधाकृष्णन को भी जाने से रोका। लेकिन राधाकृष्णन उनके बातों को काट कर राजेद्र प्रसाद की अंतिम क्रिया में पहुंचे थे।
काश सरदार जिस तरह से डॉ राजेंद्र प्रसाद के लिए लड़े, यदि अपने लिए भी लड़े होते तो देश के पहले प्रधानमंत्री होते और देश को नेहरू-गांधी परिवार के कारण दुर्भाग्य का शिकार नहीं होना पड़ता। लेकिन तब गांधी जी के कारण सरदार ने अपना नाम वापस ले लिया था, जिसकी वजह से 15 सदस्यीय समिति में एक भी मत न पाने वाले जवाहरलाल नेहरू तत्कालीन अध्यक्ष बन गए और बाद में देश के प्रधानमंत्री भी। उस दिन गांधी जी ने लोकतंत्र (सर्वसम्मति से लिए गए निर्णय को ठुकराना, लोकतंत्र की हत्या ही है।) का गला घोंट कर जवाहरलाल नेहरू को अध्यक्ष बनवाया था।
अधिकांश तथ्य: डॉ दिनकर जोशी कृत 'महामानव सरदार', प्रभात प्रकाशन से....
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