जब नेहरू ने डॉ राजेंद्रप्रसाद की मौत के बाद भी उनका अपमान करना चाहा....

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त्ता के उच्चतम दो केन्द्रों पर अवस्थित राजेन्द्र प्रसाद और जवाहरलाल नेहरू के बीच ऐसा कुछ भी नहीं था, जो समान हो। अगर एक पूरब थे, तो दूसरे पश्चिम। एक दिन था, तो दूसरा रात। एक सफेद था, तो दूसरा काला।
यह गांधीजी का ही कमाल था, जिन्होंने ‘कहीं की ईंट और कहीं का रोड़ा’ इकट्ठा कर अपना कुनबा तैयार किया था। राजेन्द्र प्रसाद का जन्म एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था। जवाहरलाल एक अति-संपन्न परिवार में पैदा हुए थे। अंग्रजी के मुहावरे का इस्तेमाल किया जाए तो कहा जा सकता है कि जवाहरलाल अपने मुंह में चांदी की चम्मच लेकर पैदा हुए थे। राजेन्द्र प्रसाद अति मेधावी छात्र थे। वे सदा अपनी कक्षा में पहला स्थान पाते थे। इसके विपरीत जवाहरलाल अति सामान्य छात्र थे।
राजेन्द्र प्रसाद एक सफल वकील थे। उनके जीवनीकारों के अनुसार अगर उन्होंने कांग्रेसी आंदोलनों में भाग न लिया होता, तो वे हाईकोर्ट के जज होते। इंग्लैंड से लाई गई बैरिस्टर की डिग्री के बावजूद, जवाहरलाल की इलाहाबाद में वकालत नहीं चली। वे अपनी पत्नी कमला तथा पुत्री इंदिरा सहित पूरी तरह अपने पिता मोतीलाल नेहरू पर आश्रित थे। उनका मन भी वकालत में नहीं लगता था।
एक दिन जब पिता (मोतीलाल नेहरू) ने, हर पिता के समान उनको काम में मन लगाने और मेहनत करने की सीख दी, तो जवाहरलाल रूठ गए। घर में खाना बंद कर दिया। चना-गुड़ खाकर काम चलाने लगे। साथ ही गांधीजी को भी गुहार लगाई। गांधीजी के हस्तक्षेप से पिता-पुत्र में सुलह हुई। इसके बाद जवाहरलाल फिर पहले की तरह अपने पिता पर आश्रित हो गए।
राजेन्द्र प्रसाद ने एक पत्नीव्रत होने का धर्म आजीवन निभाया, जबकि पत्नी छोटे कद की थीं और रूपवान भी नहीं थीं। इसके विपरीत जवाहरलाल रोमानी और दिलफेंक किस्म के इन्सान थे। पत्नी कमला नेहरू के अतिरिक्त उनके एडविना नेहरू और पद्मजा नायडू के साथ प्रेम संबंध जग-जाहिर हैं। इनके साथ भारती साराभाई, चित्रकार अमृता शेरगिल तथा श्रद्धा माता के नाम भी जोड़े जाते हैं।
 राजेन्द्र प्रसाद खामोश तबियत के इन्सान थे। वे सौम्य, वैष्णवी-आस्थावान, विनम्र, धर्मभीरु व्यक्ति थे, जो पहली ही नजर में ठेठ गांव के किसान लगते थे। जवाहरलाल तेज-तर्रार, अचानक आए क्रोध से विस्फोटित हो जाने वाले, पश्चिमी तौर-तरीके वाले, धार्मिक रीति-रिवाजों को हेय दृष्टि से देखने वाले, चुस्त-दुरुस्त, दुनियाबी, सफल उच्चवर्गीय लगते थे, जो सदा अपने हाथों में एक डेढ़ फीट का डंडा रखते थे। जन सभाओं  में भीड़ को अनुशासित करने के लिए वे डंडा भी चला देते थे और अनपढ़ जनता उसी प्रकार ‘जमाहिर लाल’ (जवाहरलाल) से डंडा खाकर प्रसन्न होती थी, जैसे गांव में जमींदार से पीटकर।
भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से आयु में पांच साल बड़े थे। राजेन्द्र प्रसाद का जन्म 1884 में हुआ था, जबकि जवाहरलाल 1889 में पैदा हुए थे। इस प्रकार नेहरू की 125वीं जयंती वर्ष में 3 दिसंबर, 2014 को राजेन्द्र प्रसाद के जन्म का 130वां वर्ष है। 130 वीं जयंती पर हम डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को याद कर रहे हैं।
बिहार में गांधीजी के बाद राजेन्द्र प्रसाद ही सबसे अधिक लोकप्रिय नेता थे। गांधीजी के साथ ‘राजेन्द्र प्रसाद जिन्दाबाद’ के भी नारे लगाए जाते थे। वहां उत्तर प्रदेश जैसी जवाहरलाल की जय-जयकार नहीं होती थी।
 बिहार के सच्चिदानंद सिन्हा के बाद राजेन्द्र प्रसाद 1946 में संविधान सभा के अध्यक्ष बनाए गए। 1950 से 1962 तक वे भारत के राष्ट्रपति रहे। वे अकेले ऐसे थे, जो दो कार्य अवधियों में  राष्ट्रपति रहे। अवकाश प्राप्ति के पश्चात वे सदाकत आश्रम पटना में रहने गए। वहीं कुछ महीनों पश्चात उनका 1963 में देहांत हो गया।
बारह वर्षों तक सत्ता के शीर्षस्थ पद पर बने रहने के बाद भी उन्होंने कभी अपने किसी परिवार के सदय को न पोषित किया और न लाभान्वित किया। इस कला में जवाहरलाल पारंगत सिद्ध हुए। अंतरिम प्रधानमंत्री बनते ही उन्होंने जो पहला काम किया, वह यह कि अपनी प्रिय बहन विजयालक्ष्मी पंडित को रूस में भारत का राजदूत नियुक्त कर दिया। कुनबा-परस्ती में ही उन्होंने सेना में जनरल ब्रज मोहन कौल को पदोन्नति दिलवाई, जिसका परिणाम भारत-चीन युद्ध में भारत की पराजय के रूप में देश को भुगतना पड़ा।
राजेन्द्र प्रसाद को राजनीति और सत्ता के सोपान की हर सीढ़ी पर जवाहरलाल का विरोध सहना पड़ा। कांग्रेस पार्टी उस काल में पटेल-गुट और नेहरू-गुट में विभाजित थी। राजेन्द्र प्रसाद वल्लभ भाई पटेल के साथ थे, इसलिए नेहरू उनके खिलाफ थे।
राजेन्द्र प्रसाद और जवाहरलाल के बीच तनाव और खटास का बीज आज़ादी के पूर्व ही पड़ गया था, जब कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में बोलते हुए उन्होंने 1936 में कांग्रेस-जनों को ‘कॉमरेड’ कह कर संबोधित किया। साथ ही घोषित किया कि कांग्रेस का उद्देश्य ‘निजी संपत्ति का उन्मूलन’ और निजी उद्योग का ‘सहकारी उद्योग’ में परिवर्तित करना है। इसके साथ-साथ यह भी कहा कि ”मैं चाहता हूं कि कांग्रेस एक समाजवादी संगठन बन जाए।” समाजवाद गांधीजी को अस्वीकार था। अतएव राजेन्द्र प्रसाद ने कांग्रेस की कार्य समिति से त्याग-पत्र दे दिया। त्याग-पत्र पर वल्लभ भाई पटेल, राजगोपालाचारी, कृपलानी तथा तीन अन्य सदस्यों ने हस्ताक्षर किए। गांधीजी के बीच-बचाव करने पर राजेन्द्र प्रसाद ने त्याग-पत्र वापस ले लिया, किन्तु इससे उनके बीच ऐसी गांठ पड़ गई, जो राजेन्द्र प्रसाद की मृत्यु के बाद भी बनी रही।
प्रसिद्ध पत्रकार दुर्गा दास अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘इंडिया फ्ऱोम कर्जन टु नेहरू एंड आफ्टर’ में लिखते हैं कि राजेन्द्र प्रसाद, नेहरू से सीधे, आमने-सामने बात करने से कतराते थे। एक तरह से वे उनसे डरते थे, क्योंकि जब भी बात होती थी, तो उसमें गर्मी आ जाती थी और नेहरू आपे से बाहर हो जाते थे। इसलिए राजेन्द्र प्रसाद उनको अपनी बात लिखकर देना पसंद करते थे।
पहले राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच दूरी और अविश्वास का भाव लगातार बना रहा। राजेन्द्र प्रसाद नेहरू की तिब्बत नीति और हिन्दी-चीनी भाई-भाई की नीति से असहमत थे। वे नेहरू सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार और घोटालों से भी वे चिंतित थे। उन्होंने राष्ट्रपति की अध्यक्षता में ‘लोकपाल’ की नियुक्ति का भी प्रस्ताव दिया, जिसपर प्रधानमंत्री ने कोई ध्यान नहीं दिया।
राज्यभाषा हिन्दी को लेकर भी दोनों में विभेद था। मुख्यमंत्रियों की सभा (1961) को राष्ट्रपति ने लिखित सुझाव भेजा कि अगर भारत की सभी भाषाएं देवनागरी लिपि अपना लें, जैसे यूरोप की  सभी भाषाएं रोमन लिपि में लिखी जाती हैं, तो भारत की राष्ट्रीयता संपुष्ट होगी। सभी मुख्यमंत्रियों ने इसे एकमत से स्वीकार कर लिया, किन्तु नेहरू की केंद्र सरकार ने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया।
सुभाषचंद्र बोस के परिवार की नेहरू द्वारा जासूसी कराने से तो आप लोग अवगत हो ही रहे हैं। लेकिन नेहरू ने देश के पहले राष्‍ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद के साथ कितना घटिया वर्ताव किया। यहां तक की राजेंद्र प्रसाद की मौत पर किसी को भी उनके अंतिम संस्‍कार में भाग न लेने के लिए अलिखित आदेश तक जारी कर दिया था, लेकिन डॉ राधाकृष्‍णन उसके आदेश की अवहेलना कर पटना गए। नेहरू देश के प्रथम राष्‍ट्रपति के अंतिम क्रिया तक में नहीं गए थे। केदारनाथ में 'बैंकॉकी किसान' को देखकर गांधी-नेहरू खानदान के प्रति यदि फिर से आपका भरोसा जगे, तो जरा इतिहास के उन दबे पन्‍नों को पलट लें, जिसमें लाखों देशभक्तों की शहादत व सम्‍मान को केवल इसलिए दबा दिया गया ताकि इस खानदान के गंदे खून को दुर्लभ 'ओ' ब्‍लड ग्रुप साबित किया जा सके।
डॉ राजेंद्र प्रसाद सत्ता के शीर्षस्थ पद पर बने रहने के बाद भी कभी अपने किसी परिवार के सदस्‍य को न पोषित किया और न लाभान्वित किया। इस कला में जवाहरलाल पारंगत सिद्ध हुए। अंतरिम प्रधानमंत्री बनते ही उन्होंने जो पहला काम किया, वह यह कि अपनी प्रिय बहन विजयालक्ष्मी पंडित को रूस में भारत का राजदूत नियुक्त कर दिया। कुनबा-परस्ती में ही उन्होंने सेना में जनरल ब्रज मोहन कौल को पदोन्नति दिलवाई, जिसका परिणाम भारत-चीन युद्ध में भारत की पराजय के रूप में देश को भुगतना पड़ा।राजेन्द्र प्रसाद नेहरू की तिब्बत नीति और हिन्दी-चीनी भाई-भाई की नीति से असहमत थे। वे नेहरू सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार और घोटालों से भी वे चिंतित थे। उन्होंने राष्ट्रपति की अध्यक्षता में ‘लोकपाल’ की नियुक्ति का भी प्रस्ताव दिया, जिसपर प्रधानमंत्री ने कोई ध्यान नहीं दिया।
राज्यभाषा हिन्दी को लेकर भी दोनों में विभेद था। मुख्यमंत्रियों की सभा (1961) को राष्ट्रपति ने लिखित सुझाव भेजा कि अगर भारत की सभी भाषाएं देवनागरी लिपि अपना लें, जैसे यूरोप की सभी भाषाएं रोमन लिपि में लिखी जाती हैं, तो भारत की राष्ट्रीयता संपुष्ट होगी। सभी मुख्यमंत्रियों ने इसे एकमत से स्वीकार कर लिया, किन्तु नेहरू की केंद्र सरकार ने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया।
 फरवरी 1963 में राजेन्द्र प्रसाद की मृत्यु हुई, तो नेहरू उनके अंतिम संस्कार में भाग लेने पटना नहीं गए। यही नहीं, उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति राधाकृष्णन को भी पटना न जाने की सलाह दी। राधाकृष्णन ने नेहरू के परामर्श की अवहेलना कर राजेन्द्र प्रसाद के अंतिम संस्कार में भाग लिया। इससे साफ है कि नेहरू ने राजेन्द्र प्रसाद की मृत्यु के बाद भी, उनसे अपनी शत्रुता निभाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

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3Comments

Peace if possible, truth at all costs.

  1. राजेन्द्र बाबू तो अजातशत्रु माने जाते थे लेकिन उनका सबसे बड़ा शत्रु तो उनके आस्तिन में पल रहा था।

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  2. The true story of Congress will be seen...Soon by all Indians...

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