एक सज्जन मिले। कहने लगे- जानते हो तुम्हारा हिन्दू धर्म कमजोर क्यों हो गया?
मैंने कहा- नहीं ! आप बताओ।
उन्होंने मुझे समझाना शुरू किया- देखो ! ये तो तुम लोग स्वयं मानते हो कि तुम सबका पहला और सबसे बड़ा ग्रंथ वेद हैं?
मैंने कहा- हाँ !
और ये भी मानते हो कि इस वेद ज्ञान का प्रकाश स्वयं विधाता ने कुछ ऋषियों के हृदय में किया? उन्होंने आगे पूछा।
मैंने कहा- हाँ ! ऐसा ही है।
तो मेरे भाई ! जब संपूर्ण ज्ञान आ ही गया था तो फिर हिन्दू धर्म में एक के बाद एक ग्रंथ क्यों आते गए? क्यों तुम लोगों ने इसे क्यों allow किया और हर किसी को मनमर्जी से ग्रंथ रचने की छूट दे दी?
मैंने कहा- आपके कहने का अर्थ है कि हमारे ऐसा करने देने के चलते धर्म कमजोर हुआ?
उन्होंने कहा- बिल्कुल, ऐसा ही है।
मैंने उन्हें समझाना शुरू किया- देखिये ! हिन्दू धर्म किसी अन्य मत, मज़हब या पंथ की तरह अचानक ही प्रस्फुटित नहीं हो गया; बल्कि वेदों का ज्ञान हमें जिन ऋषियों से प्राप्त हुए थे वो न तो कोई एक व्यक्ति थे और न ही किसी एक काल विशेष में जन्मे थे।
जिन ऋषियों से हमें ये ज्ञान राशि मिली, उन्हीं ऋषियों ने हमसे कहा कहा कि ये वेद तुम्हारे मार्गदर्शन के लिए है पर इसे प्राप्त कर ही तुम्हें रुक नहीं जाना है; क्योंकि ये जो वेद हैं ये भी कोई आसमान से नहीं आये बल्कि ये हम ऋषियों की निरंतर साधना का परिणाम है।
इसलिए हम ऋषियों ने जब स्वयं को जब साधनारत किया था तो सबसे पहले हमने जो ज्ञान प्राप्त कर उसे संकलित किया, उसको नाम दिया "ऋग्वेद"।
इसमें हमने प्रकृति और परमात्मा को जाना, फिर हमने जिस ज्ञान की खोज की उसे “यजुर्वेद” नाम देकर में संकलित किया, फिर संगीत के मूल ग्रंथ “सामवेद” की रचना की और अंत में हमने अपने ज्ञान को “अथर्ववेद” में सहेज दिया जिसमें हमने मोक्ष और ब्रहमज्ञान की बातें बताई।
तो जब हमने अपने ज्ञान राशियों के संकलन का प्रयास बंद नहीं किया तो तुम कैसे कर सकते हो? याद रखो कि तत्व ज्ञान की निरंतर खोज ही हिन्दू धर्म की विशिष्टता है और यही कारण है कि वेदों का ज्ञान मिलने के बावजूद हमारे यहाँ अनवरत ज्ञान, अनुसंधान और साधना चलती रहनी चाहिए।
इसलिए हमारे यहाँ हरेक को सत्य (जिसे ईश्वर भी कहा गया है) के बारे में विश्लेषण करने की छूट दी गई और तो और जो वेदों को नहीं मानना चाहते थे, उनको भी प्रोत्साहित किया गया कि आप भी अपनी अनुभूति को प्रकट करने और उसका प्रचार करने को स्वतंत्र हो।
हिन्दू धर्म का जो स्वरूप आज आप देख रहे हो वह न जाने कितने ऋषियों, चिंतकों, विचारकों और अनुसंधानकर्ताओं के युगों-युगों के प्रयत्नों का परिणाम है और जिसे आप हिन्दू संस्कृति कहते हो वो इसी अनवरत ज्ञान साधना से निर्मित हुई है। इसलिए हमारा धर्म आज भी एक लंबी दीर्घकालीन यात्रा का एक क्षणिक विराम-स्थल मात्र है, क्योंकि हम यहां आकर भी रुके नहीं है।
उन्होंने पूछा- यहाँ आकर भी रुके नहीं ? इसका क्या अर्थ है?
मैंने कहा- वेदों के बाद हमारे यहाँ ब्राहमण ग्रंथ रचे गये, यानि वो ग्रंथ जो वैदिक मंत्रों की व्याख्या करे, उसके अर्थ को बताये फिर इसके बाद आरण्यक रचे गये, जिसमें यज्ञ और कर्मकांड की विवेचना न करके धर्म के दार्शनिक व आध्यात्मिक तत्वों के बारे में ऋषियों ने चिंतन किया। आरण्यक ग्रंथों से बीज ग्रहण कर उपनिषद् रचे गये, जिनकी संख्या एक सौ आठ से लेकर सवा दो सौ तक कही जाती है। इन उपनिषदों में ब्रहम, माया, प्रकृति आदि का तात्विक विवेचन किया गया। फिर पुराण रचे गये जिसका उद्देश्य था वेद, उपनिषद आदि के सूक्ष्म ज्ञान को कथा और कथानकों के माध्यम से विस्तार देते हुए सरल भाषा में समझाना। ये पुराण भी कई हैं जिसमें 18 मुख्य हैं। फिर वेदांग आये। कभी हमने रामायण को हमने पाथेय बनाया, फिर महाभारत आया, इसी महाभारत में गीता है जिसके बारे में कहा जाता है कि सभी उपनिषद गायें हैं जिन्हें दुहने वाले कृष्ण हैं, अर्जुन बछड़ा है जिसके माध्यम से सुधीजन गीतामृत का पान करते हैं।
श्रीकृष्ण को विष्णु का अवतार माना गया है। वो जब गीता का ज्ञान देकर गये तब भी उन्होंने ये नहीं कहा कि यही अंतिम है। एक समय आया जब कहा गया कि हम मानव मन के अंदर उठने वाले प्रश्न, जिज्ञासा और उसके उत्तर की वैज्ञानिक विवेचना भी करेंगे और इसी प्रक्रिया में दर्शन शास्त्र का उद्भव हुआ, जिसमें छः दर्शन प्रमुख हैं। रोचक ये कि इसमें कुछ दर्शन तो वैसे हैं जो ईश्वर के अस्तित्व का इंकार करते हैं।
इसके बाद बुद्ध, महावीर, आदि शंकराचार्य और फिर पंद्रहवीं सदी में गुरु नानक आये; ये सब लोग वही थे जो सत्य का अनुसंधान करते थे। इस श्रेणी में तुम स्वामी विवेकानंद को भी रख सकते हो क्योंकि हिन्दू धर्म का आधुनिक स्वरूप उन्हीं के विचारों का प्रतिपादन कर रहा है।
हिन्दू धर्म कमजोर तो तब होता जब हम ज्ञान प्राप्ति की कोशिश छोड़कर जड़ हो जाते, क्योंकि प्रखर, चेतन और उर्वर मानव मस्तिष्क कभी भी थोपी हुई चीज से संतुष्ट नहीं होता, बल्कि वो विद्रोह कर बैठता है इसलिए हमारे हिन्दू धर्म में तर्क शक्ति और अनुसंधान को हमेशा प्रोत्साहित किया गया ताकि हमारा धर्म मजबूत हो। इसी बात को सबसे पहले ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के 164वें सूक्त की 46वीं ऋचा ने कही थी- इन्द्रं एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति...अर्थात् अर्थात् The Truth is one, the wise express
it in numerous ways.
सत्य की अलग-अलग अभिव्यक्तियों का ही समुच्चय है हिन्दू धर्म। सत्य पर पीएचडी कराने वाला विश्वविद्यालय है हिन्दू धर्म; क्योंकि हमारे ऋषियों ने वेद और उपनिषद रचे तो उसके भाष्य लिखने वाले अनेक हुए और उन्होंने तरीके से उस ज्ञान को समझा और विस्तृत किया। गीता का भाष्य तो आजतक लिखा जा रहा है।
अगर आप किसी एक मजहब या पंथ विशेष के अनुयायी हैं तो आप अपने यहां बुलाकर मुझे एक या अधिक से अधिक दो या तीन किताबें ऑफर कर सकते हैं; जबकि मैं आपसे गर्व से आपसे कह सकता हूँ- Welcome to our Library……...जिसे कहने का सामर्थ्य दुनिया में किसी और के पास नहीं है।
(From
My Book "Inside The Hindu Mall")
ये पुस्तक अब पुनः अमेज़न पर उपलब्ध है।
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