#TheTrueIndianHistory
1905 में तत्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्जन ने हिंदू-मुसलमान जनसंख्या को आधार बनाकर बंगाल का विभाजन कर दिया। पूर्वी बंगाल मुस्लिम बहुल और पश्चिम बंगाल हिंदू बहुल। इतिहास में इसे बंग-भंग के नाम से जाना जाता है। यह अंग्रेजों की 'फूट डालो और राज करो' की नीति का पहला क्रियान्वयन था। अत: इसके विरोध में सम्पूर्ण देश में 'बंग-भंग' आन्दोलन शुरु हो गया, जिसके लिए प्रेरणा बना 'वंदेमामरत'। इस आंदोलन को बंकिमचंद्र चटर्जी के गीत 'वंदे मातरम्' ने वह ऊंचाई प्रदान की कि अंग्रेज घबरा कर अपना फैसला वापस लेने को विवश हो उठे। राष्ट्रभक्तों ने कामागाटामारू नामक जहाज के झंडे पर 'वन्दे मातरम्' अंकित कर दिया था। तब से लेकर 1947 तक स्वतंत्रता सेनानियों का सबसे प्रेरक और प्रिय नारा 'वन्दे मातरम्' ही रहा।
जॉर्ज पंचम के सम्मान में लिखा गया था जन-गण-मन
बंग-भंग आंदोलन से घबरा कर अंग्रेजों ने भारत की राजधानी को कोलकाता से दिल्ली लाने के लिए 1911 में दिल्ली दरबार का आयोजन किया गया था, जिसका शिलान्यास तत्कालीन ब्रिटिश शासक जॉर्ज पंचम ने किया था। अंग्रेजों ने जॉर्ज पंचम की स्तुति में गाना लिखने के लिए रविंद्रनाथ टैगोर से कहा और उन्होंने जन-गण-मन की रचना की।
जन-गण-मन राष्ट्रगान को लेकर विवाद की शुरुआत 27 दिसंबर 1911 को हुई और उसी दिन देश की जनता को यह पता चला कि रविंद्र नाथ टैगोर ने यह गीत अंग्रेज शासक जॉर्ज पंचम को खुश करने के लिए लिखा था। 27 दिसंबर 2011 को कांग्रेस के 27वें अधिवेशन में इस गाने को पहली बार गाया गया था। इसका विरोध करते हुए दूसरे दिन कई अखबारों ने लिखा कि टैगोर ने यह गान जॉर्ज पंचम को खुश करने के लिए लिखा था। इसलिए इसे कांग्रेस के अधिवेशन में जगह नहीं मिलनी चाहिए थी। अखबारों ने इस गाने पर सवाल उठाते हुए लिखा कि आखिर इस गाने में वर्णित भारत का 'भाग्यविधाता कौन है?'
28 दिसंबर 1911 को कलकत्ता से प्रकाशित अखबार 'द इंग्लिश मैन' (कलकत्ता) ने लिखा था, ' अधिवेशन की कार्रवाई रवींद्रनाथ टैगोर के लिखे एक गीत से शुरू हुई। टैगोर का यह गीत राजा पंचम जॉर्ज के स्वागत के लिए खास तौर से लिखा गया था।' उसी दिन 28 दिसंबर को ही कलकत्ता के अमृत बाजार पत्रिका ने लिखा, 'कांग्रेस का अधिवेशन टैगोर के लिखे एक गीत से शुरू हुआ। जॉर्ज पंचम के लिए लिखा यह गीत अंग्रेज प्रशासन ने बेहद पसंद किया है।'
जब टैगोर से इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने इस आरोप को बेबुनियाद बताकर पल्ला झाड़ लिया। यही नहीं, टैगोर ने गीत के अंग्रेजी अनुवाद में राज राजेश्वर को 'किंग ऑफ ऑल किंग्स' लिखकर विरोधों को और हवा दे दी। बाद में हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने एक लेख में लिखा, 'भारत के राष्ट्रगान के संदर्भ में जो भी विवाद हैं वो अपनी जगह हैं, लेकिन अब भारतीयों को इस गान को स्वीकार कर लेना चाहिए। रवींद्र साहित्य का साधारण विद्यार्थी भी जानता है कि राज राजेश्वर ईश्वर को भी कहा जाता है।'
जन-गण-मन का पहले भावार्थ समझ लीजिए
जन-गण-मन गाने का अर्थ है, हे ब्रिटिश अधिनायक (शासक) तुम ही भारत के जन, गण और मन के भाग्य विधाता हो। भारत की सारी जनता तुम्हें आशीष देती है, तुम्हारे लिए शुभकामनाएं प्रेषित करती हैं। पंजाब, सिंधु, गुजरात, मराठा, दक्षिण, उड़ीसा, बंगाल- सब ओर तुम्हारा ही शासन है। बिंध्याचल, हिमालय, यमुना, गंगा और गतिमान समुद्र अपनी लहरों-तरंगों के साथ उछाल लेती हुई तुम्हारी वंदना करती हैं। हम सब तुम्हारी जयगाथा गाते हैं। हे भारत के भाग्य विधाता तुम्हारी जय हो, जय हो, जय हो। ध्यान से धीरे धीरे और पूरे मनोयोग से जनगणमन को पढिए, अर्थ स्पष्ट हो जाएगा, क्योंकि न आपने इसके अर्थ को जानने की कोशिश की और न ही कांग्रेसी-ब्रिटिश-वामपंथी इतिहासकारों ने ही इसके वास्तविक अर्थ की जानकारी आपको आपके पाठय पुस्तक में दी।
रविंद्र नाथ टैगोर के इस स्तुति गान से खुश होकर 1913 में उन्हें साहित्य के क्षेत्र में 'गीतांजलि' के लिए नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। लेकिन यह भी याद रखने योग्य बातें है कि खुद टैगोर ने अपने बहनोई सुरेंद्र नाथ बनर्जी को पत्र लिखकर जनगणमन को राष्ट्रीय गान बनाए जाने का विरोध किया था। 7 अगस्त 1941 को रविंद्रनाथ टैगोर की मृत्यु के बाद इस पत्र को सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने सार्वजनिक किया था।
मशहूर राष्ट्रवादी राजीव दीक्षित के अनुसार, रविंद्र नाथ टैगोर ने अपने बहनोई सुरेंद्र नाथ बनर्जी को जालियांवाला बाग हत्याकांड (13 अप्रैल 1919) के बाद एक पत्र लिखा था। इसमें उन्होंने लिखा था कि 'जन गण मन' अंग्रेजो के द्वारा मुझ पर दबाव डलवाकर लिखवाया गया था। इसके शब्दों का अर्थ अच्छा नहीं है। इस गीत को नहीं गाया जाये तो अच्छा है। लेकिन अंत में उन्होंने लिख दिया कि इस चिठ्ठी को किसी को नहीं दिखाएं क्योंकि मैं इसे सिर्फ आप तक सीमित रखना चाहता हूँ लेकिन जब कभी मेरी मृत्यु हो जाये तो सबको बता दें। रविंद्रनाथ टैगोर की मृत्यु के बाद इस पत्र को सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने सार्वजनिक किया और सारे देश को ये कहा क़ि जन गण मन गीत न गाया जाये।
यहां यह भी जानने वाली बात है कि राष्ट्रगान के रूप में बंदेमातरत की वकालत करते हुए उसे गेय बनाने का कार्य भी रविंद्र नाथ टैगोर ने ही किया था। बंदेमातरम का दो छंद संस्कृत में और बांकी के दो छंद बांग्ला में था। पंडित जवाहरलाल नेहरू के सलाह मांगने पर रविंद्रनाथ टैगोर ने ही इसके शुरुआती दो छंद को राष्ट्रगान बनाने की सिफारिश की थी, इसकी धुन तैयार की थी और 'वंदेमामरत' पर पहला स्टेज परफॉरमेंस भी कविंद्र रविंद्र ने ही दिया था।
शब्दवार जन-गण-मन का अर्थ भी जान लीजिए
शब्द- अंग्रेजी अर्थ- हिंदी अर्थ
जन: People= लोग
गण: Group= समूह
मन: Mind = दिमाग
अधिनायक: Leader= नेता
जय हे: Victory= जीत
भारत: India= भारत
भाग्य: Destiny= किस्मत
विधाता: Disposer= ऊपरवाला
पंजाब: Punjab= पंजाब
सिंधु: Sindhu =सिंधु
गुजरात: Gujarat= गुजरात
मराठा: Maratha= मराठा (महाराष्ट्र)
द्रविण: South= दक्षिण
उत्कल: Orissa= उड़िसा
बंगा: Bengal= बंगाल
विंध्य: Vindhyas= विन्धयाचल
हिमाचल: Himalay= हिमालय
यमुना: Yamuna = यमुना
गंगा: Ganges = गंगा
उच्छल: Moving= गतिमान
जलधि: Ocean = समुद्र
तरंगा: Waves = लहरें ( धाराएं)
तब : Your = तुम्हारा
शुभ: Auspicious = मंगल
नामे: name = नाम
जागे: Awaken = जागो
तब: Your = तुम्हारा
शुभ: Auspicious = मंगल
आशीष: Blessings = आशीर्वाद
मांगे : Ask = पूछो
गाहे : Gaahe = गाओ
तब : Your = तुम्हारी
जय : Victory = जीत
गाथा : Song = गीत
जन : People = लोग
गण : Group = समूह
मंगल : Fortune = भाग्य
दायक : Giver = दाता
जय हे : Victory Be = जीत
भारत : India = हिंदुस्तान
भाग्य : Destiny = किस्मत
विधाता : Dispenser= ऊपरवाला
जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे: Victory, Victory, Victory, Victory Forever = विजय, विजय, विजय, विजय हमेशा के लिए
अब वंदेमातरम के इतिहास को जानिए
अब वंदेमातरम पर आइए। 7 नवम्वर 1876 में बंगाल के कांतल पाडा गांव में बंकिम चन्द्र चटर्जी ने ‘वंदे मातरम’ गाने की रचना की थी। बाद में 1882 में बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘आनंद मठ’ में इस गीत को सम्मिलित कर लिया। 1882 में बंकिम चन्द्र चटर्जी ने ‘आनंदमठ' की रचना की थी। 'आनंदमठ' 18 वीं सदी में बंगाल में हुए सन्यासी विद्रोह पर लिखा गया एक कालयजी उपन्यास है। इस उपन्यास का कथानक उन संन्यासियों के चारों ओर घूमता है, जिन्होंने अपना घर-बार छोड़कर मातृभूमि की सेवा के लिए संपूर्ण जीवन अर्पण कर दिया। जिनके लिए मातृभूमि ही पूजनीय बन गया।
1905 में अंग्रेजों ने जब बंगाल का विभाजन कर दिया तो बंग-भंग के विरोध में खड़े हुए आंदोलन की अलख जगाने वाला यह गीत 'वंदेमातरम' ही साबित हुआ। 1905 से लेकर देश की आजादी 1947 तक अंग्रेजों के विरुद्ध 'वंदेमामरत' से ही शंखनाद होता रहा, लोग इसे गाते-गाते ही फांसी पर झूलते रहे, अंग्रेजों की गोलियां खाते रहे। यह आजादी के मतवालों के लिए भावनात्मक प्रेरणा स्रेात था। इस गाने व इस उपन्यास ने लोगों को बलिदान की प्रेरणा दी। साल 1911 में ही जॉर्ज पंचम ने बंग-भंग का निर्णय रद्द कर दिया और 'वंदेमातरम' गीत अंग्रेजों की आंख की सबसे बड़ी किरकिरी बन गया। 'बंग-भंग' आंदोलन को सफल बनाने, स्वतंत्रता सेनानियों में राष्ट्रप्रेम जागृत करने और हंसते-हंसते उनके सूली पर चढ़ जाने ने 'वंदेमातरम' को स्वतंत्रता का प्रमुख प्रेरक बना दिया था।
दिसम्बर 1905 में कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में 'वंदेमातरम' को राष्ट्रगीत का दर्जा प्रदान किया गया। बंग भंग आंदोलन में 'वंदे मातरम्' राष्ट्रीय नारा बना। 1906 में 'वंदे मातरम' देव नागरी लिपि में प्रस्तुत किया गया। कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में 27 दिसंबर 1911 को इसे बंगाली व हिंदी दोनों भाषाओं में गाया गया।
'वंदेमातरत' के लिए सन 1905 में गाँधीजी ने लिखा था, ''आज लाखों लोग एकत्र होकर वन्दे मातरम् गाते हैं। मेरे विचार से इसने हमारे राष्ट्रीय गीत का दर्जा हासिल कर लिया है। मुझे यह पवित्र, भक्तिपरक और भावनात्मक गीत लगता है। कई अन्य गीतों के विपरीत यह किसी अन्य राष्ट्र-राज्य की नकारात्मकताओं के बारे में शोर-शराबा नहीं करता। 1936 में गाँधीजी ने लिखा, ''कवि ने हमारी मातृभूमि के लिए जो अनके सार्थक विशेषण प्रयुक्त किए हैं, वे एकदम अनुकूल हैं, इनका कोई सानी नहीं है।''
दूसरी तरफ, 30 दिसम्बर 1908 को अखिल भारतीय मुस्लिम लीग अधिवेशन के द्वितीय सत्र में सैयद अली इमाम ने अपने संबोधन में इस गाने का विरोध करते हुए सबसे पहले 'वंदे मातरम' को सांप्रदायिक करार दिया। उन्होंने कहा, 'क्या अकबर और औरंगजेब द्वारा किया गया योग असफल हो गया? सभी भावनाओं और संवेदनाओं, जरूरतों और आवश्यकताओं के प्रति आदर सच्चे भारतीय राष्ट्रवाद का आधार है। मैं भारतीय राष्ट्रवाद के शिल्पियों से, चाहे वे कलकत्ता में हों या पूना में, पूछता हूँ कि क्या वे भारत के मुसलमानों से ‘वंदे मातरम् और शिवाजी उत्सव स्वीकार करने की उम्मीद करते हैं? मुसलमान हर मामले में कमजोर हो सकते हैं लेकिन अपने स्वर्णिम अतीत की परंपराओं का अस्वाद लेने में कमजोर नहीं हैं।'
वन्दे मातरम् का दूसरा जोरदार विरोध सून 1923 में काकीनाड कांग्रेस अधिवेशन में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष मौलाना अहमद अली ने किया। तब उन्होंने हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के पुरोधा पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर को वन्दे मातरम् गाने के बीच में टोका। लेकिन पंडित पलुस्कर ने बीच में रुककर कर इस महान गीत का अपमान नहीं होने दिया और वह पूरा गाना गाकर ही रुके।
बंदेमातरम का तीसरी बार जोरदार विरोध 15-18 अक्टूबर 1937 में ऑल इंडिया मुस्लिम लीग की लखनऊ बैठक में बकायदा प्रस्ताव पारित कर किया गया। मुस्लिम लीग ने प्रस्ताव पारित किया कि लीग कांग्रेस द्वारा वंदे मातरम गान को देश के राष्ट्रगान के रूप में थोपने के प्रयासों की घोर निंदा करती है। यह मुस्लिम समुदाय की घोर अनदेखी करने वाली मानती है। इसे इस्लाम विरोधी और मूर्तिपूजक मानती है। यह मुस्लिम सदस्यों से अनुरोध करती है कि वे किसी भी रूप में इस घोर आपत्तिजनक गान से दूर रहें। (के.के. अजीज: मुस्लिम्स अंडर कांग्रेस रूल-खंड-1)
इस अधिवेशन में विरोध के बाद कांग्रेस के साथ हर समझौते में मुस्लिम लीग यह शर्त रखने लगा कि 'वंदे मातरम का गान असेम्बली व कांग्रेसी अधिवेशनों में बंद हो।'
मुस्लिम लीग के लगातार विरोध को देखते हुए 26 अक्टूबर 1937 को जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में एक समिति गठित की गई, जिसमें मौलाना अब्दुल कलाम अजाद, सुभाष चंद्र बोस और आचार्य नरेन्द्र देव शामिल थे। इस समिति ने 28 अक्टूबर 1937 को कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में पेश अपनी रिपोर्ट में 'वंदेमातरम' के गायन की अनिवार्यता को समाप्त करने की संस्तुति दी और इसे गाने की बाध्यता से मुक्त कर दिया। इस समिति ने कहा कि इस गीत के शुरुआती दो पैरे ही प्रासंगिक है। इस समिति का मार्गदर्शन रवीन्द्रनाथ टैगोर ने किया था।
नेहरू ने स्वयं रवींद्रनाथ ठाकुर से वंदे मातरम् को स्वतंत्रता आंदोलन का मंत्र बनाए जाने के लिए उनकी राय माँगी थी। रवींद्रनाथ ठाकुर बंकिम चंद्र की कविताओं और राष्ट्रभक्ति के प्रशंसक रहे थे और उन्होंने नेहरू से कहा कि वंदे मातरम् के पहले दो छंदों को ही सार्वजनिक रूप से गाया जाए तो ज्यादा उचित रहेगा और इसे मान लिया गया। रविंद्र नाथ टैगोर की सलाह व नेहरू के नेतृत्व वाली कमेटी की संस्तुति पर भारतीय राष्टीय कांग्रेस ने सन 1937 में इस गीत के उन अंशों को छांट दिया जिनमें मुसलमानों को बुतपरस्ती के भाव दिखता था। और गीत के संपादित अंश को राष्ट्रगान के रूप में अपना लिया गया। लेकिन आजादी मिलने के बाद नेहरू अपने नेतृत्व वाली इस कमेटी की संस्तुति से स्वयं ही मुकर गए और संविधान समिति में वह अकेले ऐसे शख्स के रूप में उभर कर सामने आए, जिसने 'वंदेमातरम' का विरोध किया।
मुस्लिम लीग और मुसलमान नेता जबरदस्त मौका परस्त थे। खिलाफत आंदोलन चलाने के लिए जब उन्हें महात्मा गांधी के सहयोग की आवश्यकता थी तो उन्हें 'वंदेमातरम' से कोई गुरेज नहीं रह गया था। तब उन्हें इसमें मूर्ति पूजा और सांप्रदायिकता नजर आना बंद हो गया था। खिलाफत आंदोलन के अधिवेशनों की शुरुआत भी वन्दे मातरम् से होने लगी थी। अहमद अली, शौकत अली, जफर अली जैसे वरिष्ठ मुस्लिम नेता इस गाने के सम्मान में उठकर खड़े होते थे। मोहम्मद अली जिन्ना तो 'वंदेमातरम' के सम्मान में खडे न होने वाले मुसलमानों को जबरदस्त फटकार लगाते थे। रफीक जकारिया ने हाल में लिखे अपने निबन्ध में इसका जिक्र भी किया है। उनके अनुसार, मुस्लिमों द्वारा वन्दे मातरम् के गायन पर विवाद निरर्थक है। यह गीत स्वतंत्रता संग्राम के दौरान काँग्रेस के सभी मुस्लिम नेताओं द्वारा गाया जाता था। जो मुस्लिम इसे गाना नहीं चाहते, न गाए लेकिन गीत के सम्मान में उठकर तो खड़े हो जाए क्योंकि इसका एक संघर्ष का इतिहास रहा है और यह संविधान में राष्ट्रगान घोषित किया गया है।'
आजाद भारत में बहुमत के निर्णय के खिलाफ जवाहरलाल नेहरू ने की 'वंदेमातरम' की अवहेलना
14 अगस्त 1947 की रात्रि में संविधान सभा की पहली बैठक का प्रारंभ 'वंदे मातरम' के साथ हुआ था और समापन 'जन गण मन' के साथ हुआ। महात्मा गांधी जन-गण-मन को राष्ट्रीय गान बनाने को तैयार नहीं थे। उनका मानना था कि यह जॉर्ज पंचम की स्तुति में गाया गया है तो जवाहरलाल नेहरू मुस्लिम तुष्टिकरण के कारण वंदेमातरत को राष्ट्रीय गान का दर्जा नहीं देना चाहते थे। महात्मा गाँधी ने राष्ट्रगान के लिए तीसरे विकल्प के रूप में 'विजयी विश्व तिरंगा प्यारा झंडा ऊंचा रहे हमारा'- का विकल्प दिया, लेकिन नेहरू इसके लिए भी तैयार नहीं थे। नेहरू ने गांधी जी के समक्ष तर्क दिया कि यह गाना ओर्केस्ट्रा पर सुनने में मधुर प्रतीत नहीं होगा, जबकि जन गन मन आर्केस्ट्रा पर बेहतरीन बजेगा। गांधी जी को नेहरू का यह तर्क समझ में नहीं आया, लेकिन वह चुप रहे।
महात्मा गांधी की हत्या होने तक जन-गण-मन राष्ट्रीय गान नहीं बन पाया था, लेकिन गांधी जी की हत्या होते ही नेहरू अपनी मनमानी चलाने को लगभग स्वतंत्र हो गए थे। गांधी जी की मौत के बाद जब आज़ाद भारत का नया संविधान लिखा जा रहा था तब वंदे मातरम् को न राष्ट्रगान के रूप में अपनाया गया और न ही उसे राष्ट्रगीत का दर्जा मिला। लेकिन इस पर डॉ राजेंद्र प्रसाद अड़ गए।
1947 में असेंबली में इस बात पर लंबी बहस चली कि राष्ट्रगान वंदे मातरम हो या जन-गण-मन। अंत में ज्यादा वोट वंदे मातरम के पक्ष में पड़े, लेकिन जवाहरलाल नेहरू जन गण मन को ही राष्ट्रगान बनाना चाहते थे। संविधान सभा के 319 में से 318 सांसदों ने 'वंदेमातरम' को राष्ट्रगान बनाने के लिए लिखित में अपनी सहमति प्रदान की। एक मात्र जवाहरलाल नेहरू ही थे, जो मुस्लिम तुष्टिकरण के कारण इसके विरोध में थे जबकि इसके बुतपरस्ती वाले हिस्से को उनके नेतृत्व वाली समिति 1937 में पहले ही निकाल चुकी थी। डॉ राजेंद्र प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष थे और वह भारत के पहले राष्ट्रपति थे। राजेंद्र प्रसाद ने संविधान सभा के सभी सदस्यों की मर्जी को देखते हुए नेहरू की मनमानी को वीटो कर दिया। राजेंद्र बाबू ने 24 जनवरी 1950 को घोषणा की कि 'वंदे मातरम' को राष्ट्रगीत का दर्जा दिया जा रहा है। इस तरह 1950 में 'वंदे मातरम' राष्ट्रीय गीत और 'जन गण मन' राष्ट्रीय गान बना।
आप राष्ट्रगान को सम्मान दें, लेकिन जरूरी नहीं कि उसे गाएं: सुप्रीम कोर्ट
क्या किसी को कोई गीत गाने के लिये मजबूर किया जा सकता है अथवा नहीं? यह प्रश्न सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष बिजोए एम्मानुएल वर्सेस केरल राज्य AIR 1987 SC 748 [3] नाम के एक वाद में उठाया गया था। इस वाद में कुछ विद्यार्थियों को स्कूल से इसलिये निकाल दिया गया था क्योंकि उन्होंने राष्ट्रगान जन-गण-मन को गाने से मना कर दिया था। यह विद्यार्थी स्कूल में राष्ट्र-गान के समय इसके सम्मान में खड़े होते थे तथा इसका सम्मान करते थे पर गाते नहीं थे। गाने के लिये उन्होंने साफ मना कर दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने इनकी याचिका स्वीकार कर इन्हें स्कूल को वापस लेने को कहा। सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि यदि कोई व्यक्ति राष्ट्र-गान का सम्मान करता है परंतु उसे गाता नहीं है तो इसका मतलब यह नहीं कि वह इसका अपमान कर रहा है। अत: इसे न गाने के लिये उस व्यक्ति को दण्डित या प्रताड़ित नहीं किया जा सकता।
अदालत वाला यह हिस्सा साभार:
http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A4%A8_%E0%A4%97%E0%A4%A3_%E0%A4%AE%E0%A4%A8
1905 में तत्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्जन ने हिंदू-मुसलमान जनसंख्या को आधार बनाकर बंगाल का विभाजन कर दिया। पूर्वी बंगाल मुस्लिम बहुल और पश्चिम बंगाल हिंदू बहुल। इतिहास में इसे बंग-भंग के नाम से जाना जाता है। यह अंग्रेजों की 'फूट डालो और राज करो' की नीति का पहला क्रियान्वयन था। अत: इसके विरोध में सम्पूर्ण देश में 'बंग-भंग' आन्दोलन शुरु हो गया, जिसके लिए प्रेरणा बना 'वंदेमामरत'। इस आंदोलन को बंकिमचंद्र चटर्जी के गीत 'वंदे मातरम्' ने वह ऊंचाई प्रदान की कि अंग्रेज घबरा कर अपना फैसला वापस लेने को विवश हो उठे। राष्ट्रभक्तों ने कामागाटामारू नामक जहाज के झंडे पर 'वन्दे मातरम्' अंकित कर दिया था। तब से लेकर 1947 तक स्वतंत्रता सेनानियों का सबसे प्रेरक और प्रिय नारा 'वन्दे मातरम्' ही रहा।
जॉर्ज पंचम के सम्मान में लिखा गया था जन-गण-मन
बंग-भंग आंदोलन से घबरा कर अंग्रेजों ने भारत की राजधानी को कोलकाता से दिल्ली लाने के लिए 1911 में दिल्ली दरबार का आयोजन किया गया था, जिसका शिलान्यास तत्कालीन ब्रिटिश शासक जॉर्ज पंचम ने किया था। अंग्रेजों ने जॉर्ज पंचम की स्तुति में गाना लिखने के लिए रविंद्रनाथ टैगोर से कहा और उन्होंने जन-गण-मन की रचना की।
जन-गण-मन राष्ट्रगान को लेकर विवाद की शुरुआत 27 दिसंबर 1911 को हुई और उसी दिन देश की जनता को यह पता चला कि रविंद्र नाथ टैगोर ने यह गीत अंग्रेज शासक जॉर्ज पंचम को खुश करने के लिए लिखा था। 27 दिसंबर 2011 को कांग्रेस के 27वें अधिवेशन में इस गाने को पहली बार गाया गया था। इसका विरोध करते हुए दूसरे दिन कई अखबारों ने लिखा कि टैगोर ने यह गान जॉर्ज पंचम को खुश करने के लिए लिखा था। इसलिए इसे कांग्रेस के अधिवेशन में जगह नहीं मिलनी चाहिए थी। अखबारों ने इस गाने पर सवाल उठाते हुए लिखा कि आखिर इस गाने में वर्णित भारत का 'भाग्यविधाता कौन है?'
28 दिसंबर 1911 को कलकत्ता से प्रकाशित अखबार 'द इंग्लिश मैन' (कलकत्ता) ने लिखा था, ' अधिवेशन की कार्रवाई रवींद्रनाथ टैगोर के लिखे एक गीत से शुरू हुई। टैगोर का यह गीत राजा पंचम जॉर्ज के स्वागत के लिए खास तौर से लिखा गया था।' उसी दिन 28 दिसंबर को ही कलकत्ता के अमृत बाजार पत्रिका ने लिखा, 'कांग्रेस का अधिवेशन टैगोर के लिखे एक गीत से शुरू हुआ। जॉर्ज पंचम के लिए लिखा यह गीत अंग्रेज प्रशासन ने बेहद पसंद किया है।'
जब टैगोर से इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने इस आरोप को बेबुनियाद बताकर पल्ला झाड़ लिया। यही नहीं, टैगोर ने गीत के अंग्रेजी अनुवाद में राज राजेश्वर को 'किंग ऑफ ऑल किंग्स' लिखकर विरोधों को और हवा दे दी। बाद में हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने एक लेख में लिखा, 'भारत के राष्ट्रगान के संदर्भ में जो भी विवाद हैं वो अपनी जगह हैं, लेकिन अब भारतीयों को इस गान को स्वीकार कर लेना चाहिए। रवींद्र साहित्य का साधारण विद्यार्थी भी जानता है कि राज राजेश्वर ईश्वर को भी कहा जाता है।'
जन-गण-मन का पहले भावार्थ समझ लीजिए
जन-गण-मन गाने का अर्थ है, हे ब्रिटिश अधिनायक (शासक) तुम ही भारत के जन, गण और मन के भाग्य विधाता हो। भारत की सारी जनता तुम्हें आशीष देती है, तुम्हारे लिए शुभकामनाएं प्रेषित करती हैं। पंजाब, सिंधु, गुजरात, मराठा, दक्षिण, उड़ीसा, बंगाल- सब ओर तुम्हारा ही शासन है। बिंध्याचल, हिमालय, यमुना, गंगा और गतिमान समुद्र अपनी लहरों-तरंगों के साथ उछाल लेती हुई तुम्हारी वंदना करती हैं। हम सब तुम्हारी जयगाथा गाते हैं। हे भारत के भाग्य विधाता तुम्हारी जय हो, जय हो, जय हो। ध्यान से धीरे धीरे और पूरे मनोयोग से जनगणमन को पढिए, अर्थ स्पष्ट हो जाएगा, क्योंकि न आपने इसके अर्थ को जानने की कोशिश की और न ही कांग्रेसी-ब्रिटिश-वामपंथी इतिहासकारों ने ही इसके वास्तविक अर्थ की जानकारी आपको आपके पाठय पुस्तक में दी।
रविंद्र नाथ टैगोर के इस स्तुति गान से खुश होकर 1913 में उन्हें साहित्य के क्षेत्र में 'गीतांजलि' के लिए नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। लेकिन यह भी याद रखने योग्य बातें है कि खुद टैगोर ने अपने बहनोई सुरेंद्र नाथ बनर्जी को पत्र लिखकर जनगणमन को राष्ट्रीय गान बनाए जाने का विरोध किया था। 7 अगस्त 1941 को रविंद्रनाथ टैगोर की मृत्यु के बाद इस पत्र को सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने सार्वजनिक किया था।
मशहूर राष्ट्रवादी राजीव दीक्षित के अनुसार, रविंद्र नाथ टैगोर ने अपने बहनोई सुरेंद्र नाथ बनर्जी को जालियांवाला बाग हत्याकांड (13 अप्रैल 1919) के बाद एक पत्र लिखा था। इसमें उन्होंने लिखा था कि 'जन गण मन' अंग्रेजो के द्वारा मुझ पर दबाव डलवाकर लिखवाया गया था। इसके शब्दों का अर्थ अच्छा नहीं है। इस गीत को नहीं गाया जाये तो अच्छा है। लेकिन अंत में उन्होंने लिख दिया कि इस चिठ्ठी को किसी को नहीं दिखाएं क्योंकि मैं इसे सिर्फ आप तक सीमित रखना चाहता हूँ लेकिन जब कभी मेरी मृत्यु हो जाये तो सबको बता दें। रविंद्रनाथ टैगोर की मृत्यु के बाद इस पत्र को सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने सार्वजनिक किया और सारे देश को ये कहा क़ि जन गण मन गीत न गाया जाये।
यहां यह भी जानने वाली बात है कि राष्ट्रगान के रूप में बंदेमातरत की वकालत करते हुए उसे गेय बनाने का कार्य भी रविंद्र नाथ टैगोर ने ही किया था। बंदेमातरम का दो छंद संस्कृत में और बांकी के दो छंद बांग्ला में था। पंडित जवाहरलाल नेहरू के सलाह मांगने पर रविंद्रनाथ टैगोर ने ही इसके शुरुआती दो छंद को राष्ट्रगान बनाने की सिफारिश की थी, इसकी धुन तैयार की थी और 'वंदेमामरत' पर पहला स्टेज परफॉरमेंस भी कविंद्र रविंद्र ने ही दिया था।
शब्दवार जन-गण-मन का अर्थ भी जान लीजिए
शब्द- अंग्रेजी अर्थ- हिंदी अर्थ
जन: People= लोग
गण: Group= समूह
मन: Mind = दिमाग
अधिनायक: Leader= नेता
जय हे: Victory= जीत
भारत: India= भारत
भाग्य: Destiny= किस्मत
विधाता: Disposer= ऊपरवाला
पंजाब: Punjab= पंजाब
सिंधु: Sindhu =सिंधु
गुजरात: Gujarat= गुजरात
मराठा: Maratha= मराठा (महाराष्ट्र)
द्रविण: South= दक्षिण
उत्कल: Orissa= उड़िसा
बंगा: Bengal= बंगाल
विंध्य: Vindhyas= विन्धयाचल
हिमाचल: Himalay= हिमालय
यमुना: Yamuna = यमुना
गंगा: Ganges = गंगा
उच्छल: Moving= गतिमान
जलधि: Ocean = समुद्र
तरंगा: Waves = लहरें ( धाराएं)
तब : Your = तुम्हारा
शुभ: Auspicious = मंगल
नामे: name = नाम
जागे: Awaken = जागो
तब: Your = तुम्हारा
शुभ: Auspicious = मंगल
आशीष: Blessings = आशीर्वाद
मांगे : Ask = पूछो
गाहे : Gaahe = गाओ
तब : Your = तुम्हारी
जय : Victory = जीत
गाथा : Song = गीत
जन : People = लोग
गण : Group = समूह
मंगल : Fortune = भाग्य
दायक : Giver = दाता
जय हे : Victory Be = जीत
भारत : India = हिंदुस्तान
भाग्य : Destiny = किस्मत
विधाता : Dispenser= ऊपरवाला
जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे: Victory, Victory, Victory, Victory Forever = विजय, विजय, विजय, विजय हमेशा के लिए
अब वंदेमातरम के इतिहास को जानिए
अब वंदेमातरम पर आइए। 7 नवम्वर 1876 में बंगाल के कांतल पाडा गांव में बंकिम चन्द्र चटर्जी ने ‘वंदे मातरम’ गाने की रचना की थी। बाद में 1882 में बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘आनंद मठ’ में इस गीत को सम्मिलित कर लिया। 1882 में बंकिम चन्द्र चटर्जी ने ‘आनंदमठ' की रचना की थी। 'आनंदमठ' 18 वीं सदी में बंगाल में हुए सन्यासी विद्रोह पर लिखा गया एक कालयजी उपन्यास है। इस उपन्यास का कथानक उन संन्यासियों के चारों ओर घूमता है, जिन्होंने अपना घर-बार छोड़कर मातृभूमि की सेवा के लिए संपूर्ण जीवन अर्पण कर दिया। जिनके लिए मातृभूमि ही पूजनीय बन गया।
1905 में अंग्रेजों ने जब बंगाल का विभाजन कर दिया तो बंग-भंग के विरोध में खड़े हुए आंदोलन की अलख जगाने वाला यह गीत 'वंदेमातरम' ही साबित हुआ। 1905 से लेकर देश की आजादी 1947 तक अंग्रेजों के विरुद्ध 'वंदेमामरत' से ही शंखनाद होता रहा, लोग इसे गाते-गाते ही फांसी पर झूलते रहे, अंग्रेजों की गोलियां खाते रहे। यह आजादी के मतवालों के लिए भावनात्मक प्रेरणा स्रेात था। इस गाने व इस उपन्यास ने लोगों को बलिदान की प्रेरणा दी। साल 1911 में ही जॉर्ज पंचम ने बंग-भंग का निर्णय रद्द कर दिया और 'वंदेमातरम' गीत अंग्रेजों की आंख की सबसे बड़ी किरकिरी बन गया। 'बंग-भंग' आंदोलन को सफल बनाने, स्वतंत्रता सेनानियों में राष्ट्रप्रेम जागृत करने और हंसते-हंसते उनके सूली पर चढ़ जाने ने 'वंदेमातरम' को स्वतंत्रता का प्रमुख प्रेरक बना दिया था।
दिसम्बर 1905 में कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में 'वंदेमातरम' को राष्ट्रगीत का दर्जा प्रदान किया गया। बंग भंग आंदोलन में 'वंदे मातरम्' राष्ट्रीय नारा बना। 1906 में 'वंदे मातरम' देव नागरी लिपि में प्रस्तुत किया गया। कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में 27 दिसंबर 1911 को इसे बंगाली व हिंदी दोनों भाषाओं में गाया गया।
'वंदेमातरत' के लिए सन 1905 में गाँधीजी ने लिखा था, ''आज लाखों लोग एकत्र होकर वन्दे मातरम् गाते हैं। मेरे विचार से इसने हमारे राष्ट्रीय गीत का दर्जा हासिल कर लिया है। मुझे यह पवित्र, भक्तिपरक और भावनात्मक गीत लगता है। कई अन्य गीतों के विपरीत यह किसी अन्य राष्ट्र-राज्य की नकारात्मकताओं के बारे में शोर-शराबा नहीं करता। 1936 में गाँधीजी ने लिखा, ''कवि ने हमारी मातृभूमि के लिए जो अनके सार्थक विशेषण प्रयुक्त किए हैं, वे एकदम अनुकूल हैं, इनका कोई सानी नहीं है।''
दूसरी तरफ, 30 दिसम्बर 1908 को अखिल भारतीय मुस्लिम लीग अधिवेशन के द्वितीय सत्र में सैयद अली इमाम ने अपने संबोधन में इस गाने का विरोध करते हुए सबसे पहले 'वंदे मातरम' को सांप्रदायिक करार दिया। उन्होंने कहा, 'क्या अकबर और औरंगजेब द्वारा किया गया योग असफल हो गया? सभी भावनाओं और संवेदनाओं, जरूरतों और आवश्यकताओं के प्रति आदर सच्चे भारतीय राष्ट्रवाद का आधार है। मैं भारतीय राष्ट्रवाद के शिल्पियों से, चाहे वे कलकत्ता में हों या पूना में, पूछता हूँ कि क्या वे भारत के मुसलमानों से ‘वंदे मातरम् और शिवाजी उत्सव स्वीकार करने की उम्मीद करते हैं? मुसलमान हर मामले में कमजोर हो सकते हैं लेकिन अपने स्वर्णिम अतीत की परंपराओं का अस्वाद लेने में कमजोर नहीं हैं।'
वन्दे मातरम् का दूसरा जोरदार विरोध सून 1923 में काकीनाड कांग्रेस अधिवेशन में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष मौलाना अहमद अली ने किया। तब उन्होंने हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के पुरोधा पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर को वन्दे मातरम् गाने के बीच में टोका। लेकिन पंडित पलुस्कर ने बीच में रुककर कर इस महान गीत का अपमान नहीं होने दिया और वह पूरा गाना गाकर ही रुके।
बंदेमातरम का तीसरी बार जोरदार विरोध 15-18 अक्टूबर 1937 में ऑल इंडिया मुस्लिम लीग की लखनऊ बैठक में बकायदा प्रस्ताव पारित कर किया गया। मुस्लिम लीग ने प्रस्ताव पारित किया कि लीग कांग्रेस द्वारा वंदे मातरम गान को देश के राष्ट्रगान के रूप में थोपने के प्रयासों की घोर निंदा करती है। यह मुस्लिम समुदाय की घोर अनदेखी करने वाली मानती है। इसे इस्लाम विरोधी और मूर्तिपूजक मानती है। यह मुस्लिम सदस्यों से अनुरोध करती है कि वे किसी भी रूप में इस घोर आपत्तिजनक गान से दूर रहें। (के.के. अजीज: मुस्लिम्स अंडर कांग्रेस रूल-खंड-1)
इस अधिवेशन में विरोध के बाद कांग्रेस के साथ हर समझौते में मुस्लिम लीग यह शर्त रखने लगा कि 'वंदे मातरम का गान असेम्बली व कांग्रेसी अधिवेशनों में बंद हो।'
मुस्लिम लीग के लगातार विरोध को देखते हुए 26 अक्टूबर 1937 को जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में एक समिति गठित की गई, जिसमें मौलाना अब्दुल कलाम अजाद, सुभाष चंद्र बोस और आचार्य नरेन्द्र देव शामिल थे। इस समिति ने 28 अक्टूबर 1937 को कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में पेश अपनी रिपोर्ट में 'वंदेमातरम' के गायन की अनिवार्यता को समाप्त करने की संस्तुति दी और इसे गाने की बाध्यता से मुक्त कर दिया। इस समिति ने कहा कि इस गीत के शुरुआती दो पैरे ही प्रासंगिक है। इस समिति का मार्गदर्शन रवीन्द्रनाथ टैगोर ने किया था।
नेहरू ने स्वयं रवींद्रनाथ ठाकुर से वंदे मातरम् को स्वतंत्रता आंदोलन का मंत्र बनाए जाने के लिए उनकी राय माँगी थी। रवींद्रनाथ ठाकुर बंकिम चंद्र की कविताओं और राष्ट्रभक्ति के प्रशंसक रहे थे और उन्होंने नेहरू से कहा कि वंदे मातरम् के पहले दो छंदों को ही सार्वजनिक रूप से गाया जाए तो ज्यादा उचित रहेगा और इसे मान लिया गया। रविंद्र नाथ टैगोर की सलाह व नेहरू के नेतृत्व वाली कमेटी की संस्तुति पर भारतीय राष्टीय कांग्रेस ने सन 1937 में इस गीत के उन अंशों को छांट दिया जिनमें मुसलमानों को बुतपरस्ती के भाव दिखता था। और गीत के संपादित अंश को राष्ट्रगान के रूप में अपना लिया गया। लेकिन आजादी मिलने के बाद नेहरू अपने नेतृत्व वाली इस कमेटी की संस्तुति से स्वयं ही मुकर गए और संविधान समिति में वह अकेले ऐसे शख्स के रूप में उभर कर सामने आए, जिसने 'वंदेमातरम' का विरोध किया।
मुस्लिम लीग और मुसलमान नेता जबरदस्त मौका परस्त थे। खिलाफत आंदोलन चलाने के लिए जब उन्हें महात्मा गांधी के सहयोग की आवश्यकता थी तो उन्हें 'वंदेमातरम' से कोई गुरेज नहीं रह गया था। तब उन्हें इसमें मूर्ति पूजा और सांप्रदायिकता नजर आना बंद हो गया था। खिलाफत आंदोलन के अधिवेशनों की शुरुआत भी वन्दे मातरम् से होने लगी थी। अहमद अली, शौकत अली, जफर अली जैसे वरिष्ठ मुस्लिम नेता इस गाने के सम्मान में उठकर खड़े होते थे। मोहम्मद अली जिन्ना तो 'वंदेमातरम' के सम्मान में खडे न होने वाले मुसलमानों को जबरदस्त फटकार लगाते थे। रफीक जकारिया ने हाल में लिखे अपने निबन्ध में इसका जिक्र भी किया है। उनके अनुसार, मुस्लिमों द्वारा वन्दे मातरम् के गायन पर विवाद निरर्थक है। यह गीत स्वतंत्रता संग्राम के दौरान काँग्रेस के सभी मुस्लिम नेताओं द्वारा गाया जाता था। जो मुस्लिम इसे गाना नहीं चाहते, न गाए लेकिन गीत के सम्मान में उठकर तो खड़े हो जाए क्योंकि इसका एक संघर्ष का इतिहास रहा है और यह संविधान में राष्ट्रगान घोषित किया गया है।'
आजाद भारत में बहुमत के निर्णय के खिलाफ जवाहरलाल नेहरू ने की 'वंदेमातरम' की अवहेलना
14 अगस्त 1947 की रात्रि में संविधान सभा की पहली बैठक का प्रारंभ 'वंदे मातरम' के साथ हुआ था और समापन 'जन गण मन' के साथ हुआ। महात्मा गांधी जन-गण-मन को राष्ट्रीय गान बनाने को तैयार नहीं थे। उनका मानना था कि यह जॉर्ज पंचम की स्तुति में गाया गया है तो जवाहरलाल नेहरू मुस्लिम तुष्टिकरण के कारण वंदेमातरत को राष्ट्रीय गान का दर्जा नहीं देना चाहते थे। महात्मा गाँधी ने राष्ट्रगान के लिए तीसरे विकल्प के रूप में 'विजयी विश्व तिरंगा प्यारा झंडा ऊंचा रहे हमारा'- का विकल्प दिया, लेकिन नेहरू इसके लिए भी तैयार नहीं थे। नेहरू ने गांधी जी के समक्ष तर्क दिया कि यह गाना ओर्केस्ट्रा पर सुनने में मधुर प्रतीत नहीं होगा, जबकि जन गन मन आर्केस्ट्रा पर बेहतरीन बजेगा। गांधी जी को नेहरू का यह तर्क समझ में नहीं आया, लेकिन वह चुप रहे।
महात्मा गांधी की हत्या होने तक जन-गण-मन राष्ट्रीय गान नहीं बन पाया था, लेकिन गांधी जी की हत्या होते ही नेहरू अपनी मनमानी चलाने को लगभग स्वतंत्र हो गए थे। गांधी जी की मौत के बाद जब आज़ाद भारत का नया संविधान लिखा जा रहा था तब वंदे मातरम् को न राष्ट्रगान के रूप में अपनाया गया और न ही उसे राष्ट्रगीत का दर्जा मिला। लेकिन इस पर डॉ राजेंद्र प्रसाद अड़ गए।
1947 में असेंबली में इस बात पर लंबी बहस चली कि राष्ट्रगान वंदे मातरम हो या जन-गण-मन। अंत में ज्यादा वोट वंदे मातरम के पक्ष में पड़े, लेकिन जवाहरलाल नेहरू जन गण मन को ही राष्ट्रगान बनाना चाहते थे। संविधान सभा के 319 में से 318 सांसदों ने 'वंदेमातरम' को राष्ट्रगान बनाने के लिए लिखित में अपनी सहमति प्रदान की। एक मात्र जवाहरलाल नेहरू ही थे, जो मुस्लिम तुष्टिकरण के कारण इसके विरोध में थे जबकि इसके बुतपरस्ती वाले हिस्से को उनके नेतृत्व वाली समिति 1937 में पहले ही निकाल चुकी थी। डॉ राजेंद्र प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष थे और वह भारत के पहले राष्ट्रपति थे। राजेंद्र प्रसाद ने संविधान सभा के सभी सदस्यों की मर्जी को देखते हुए नेहरू की मनमानी को वीटो कर दिया। राजेंद्र बाबू ने 24 जनवरी 1950 को घोषणा की कि 'वंदे मातरम' को राष्ट्रगीत का दर्जा दिया जा रहा है। इस तरह 1950 में 'वंदे मातरम' राष्ट्रीय गीत और 'जन गण मन' राष्ट्रीय गान बना।
आप राष्ट्रगान को सम्मान दें, लेकिन जरूरी नहीं कि उसे गाएं: सुप्रीम कोर्ट
क्या किसी को कोई गीत गाने के लिये मजबूर किया जा सकता है अथवा नहीं? यह प्रश्न सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष बिजोए एम्मानुएल वर्सेस केरल राज्य AIR 1987 SC 748 [3] नाम के एक वाद में उठाया गया था। इस वाद में कुछ विद्यार्थियों को स्कूल से इसलिये निकाल दिया गया था क्योंकि उन्होंने राष्ट्रगान जन-गण-मन को गाने से मना कर दिया था। यह विद्यार्थी स्कूल में राष्ट्र-गान के समय इसके सम्मान में खड़े होते थे तथा इसका सम्मान करते थे पर गाते नहीं थे। गाने के लिये उन्होंने साफ मना कर दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने इनकी याचिका स्वीकार कर इन्हें स्कूल को वापस लेने को कहा। सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि यदि कोई व्यक्ति राष्ट्र-गान का सम्मान करता है परंतु उसे गाता नहीं है तो इसका मतलब यह नहीं कि वह इसका अपमान कर रहा है। अत: इसे न गाने के लिये उस व्यक्ति को दण्डित या प्रताड़ित नहीं किया जा सकता।
अदालत वाला यह हिस्सा साभार:
http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A4%A8_%E0%A4%97%E0%A4%A3_%E0%A4%AE%E0%A4%A8
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