गाँधी और वीर सावरकर की तुलना

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क्या आप जानते हैं कि वीर सावरकर और गाँधी ने अपने जीवन के कितने कितने दिन जेल में गुजारे ? सावरकर जी तथा गाँधी दोनों को ही भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में कारावास भुगतना पडा, पर ज़रा तुलना करके देखें
वीर सावरकर जी को लन्दन में 13 मार्च, 1909 को बंदी बनाया गया उनको 50 वर्ष का सश्रम कारावास का दण्ड दिया गया,
1911 से 1921 तक उन्हें अण्डमान की काल कोठरी में बंद रखा गया l
6 जनवरी 1924 को उन्हें कारावास से मुक्त करके रत्नागिरी जिले में आबद्ध रखा गया, 10 मई 1937 को यह प्रतिबन्ध समाप्त हुआ l
1941 में भागलपुर में हिन्दू महासभा के अधिवेशन के सम्बन्ध में 8 दिन,
1948 में गाँधी वध के अभियोग में अभियुक्त होने के कारण 13 महीने, फिर 1950 में नेहरु लियाकत समझौते के समय 100 दिन … वीर सावरकर जी को कारावास सहना पडा l
30 जनवरी 1948 को गाँधी का वध किया गया हुतात्मा पंडित नाथूराम गोडसे की गोलियों द्वारा, नेहरु की द्वेष बुद्धू के फलस्वरूप इस घटना से सावरकर जी का कोई सम्बन्ध न होने पर भी उन्हें गाँधी वध का अभियुक्त बनाया गया किन्तु न्यायलय ने उन्हें निर्दोष माना और मुक्त कर दिया गया l
17 वर्षों के बाद 21 दिन तक निराहार रह कर आयु के 83वें वर्ष, 26 फ़रवरी 1966 को सावरकर जी ने आत्मार्पण किया,
शास्त्रों में अंधश्रद्धा न रखने वाले सावरकर जी निराहार रह कर परलोक सिधारे और जीवन भर अनशन तथा सत्याग्रह करने वाले गाँधी … पिस्तोल की गोलियों से मारे गए l kiki emoticon
कुल मिलाकर सावरकर जी 5585 दिन प्रत्यक्ष कारागार में,
4865 दिन नजरबंदी में रहे… दोनों को मिलाकर 10410 दिन (28 वर्ष 200 दिन),
आत्मार्पण के दिन तक उन पर गुप्तचरों का पहरा रहता था l
गाँधी को कुल 7 वर्ष और 10 महीनों का कारावास का दण्ड दिया गया, जिसमे 905 दिन का कारावास उन्हें भुगतना पड़ा
और 1365 दिनों के लिए स्थानबद्ध किया गया, अर्थात उन्हें कुल 2270 दिन (6 वर्ष 80 दिन ) कारावास में काटने पड़े, इनमे से अधिकतर समय वे प्रथम श्रेणी के विशिष्ठ बंदी रहे l
एक अंग्रेज जेलर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है की एक कैदी के लिए पहली बार सरकार से ऐसे आदेश प्राप्त होते थे की कारागार की सलाखें बंद न की जाएँ.. कहीं गाँधी जी को बुरा न लग जाये l
तो दूसरी और सावरकर को सजा मिलती थी सारा दिन कोल्हू चला कर 30 लीटर तेल निकालने का… निरन्तर … लगातार … अथक … यदि कम रह गया तो फिर कोड़ों की सजा मिलती थी l
दोनों अलग ध्रुव थे, गांधी आदर्शवादी थे तो वीर सावरकर यथार्थवादी।
सावरकर ने जितना लिखा है उतना तो महात्मा ने पढ़ा भी नहीं होगा..इसमे संदेह नहीं कि सावरकर कि अपेक्षा गाँधी की स्वीकार्यता बहुत अधिक थी।
लेकिन यहाँ ध्यान देने की बात है
कि गाँधी का भारतीय राजनीति में आगमन सन 1920 के आसपास हुआ था जबकि सावरकर ने सन 1937 में हिंदू महासभा में का नेतृत्व लिया था (सन 1937 तक वीर सावरकर पर राजनीति में प्रवेश की पाबन्दी थी)। जब गांधी भारतीय राजनीति में आये तो शिखर पर एक शुन्य था, तिलक और गोखले जैसे लोग अपने अंतिम दिनों में थे। लेकिन जब वीर सावरकर आये तब गाँधी एक बड़े नेता बन चुके थे। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में लोग महात्मा गाँधी को चमत्कारी पुरुष मानते थे और उनके नाम से कई किंवदंतियाँ प्रचलित थी, जैसे कि वे एकसाथ जेल में भी होते हैं और मुंबई में कांग्रेस की सभा में भी उपस्थित रहते हैं (पता नहीं इस तरह की कहानियों को प्रचलित करने में कांग्रेसी कार्यकर्ताओं का कितना योगदान है)। grin emoticon
यदि सावरकर भी सन 1920 के आसपास ही राजनीति में आये होते तो जनमानस किसके साथ जाता, यह कोई नहीं जानता।
वीर सावरकर उस दौर में एकमात्र राजनीतिज्ञ थे, जिन्होंने गाँधी से सीधे लोहा लिया था। कांग्रेस के अंदर और बाहर भी,
ऐसे लोगों की लंबी सूचि है जो गाँधी से सहमत नहीं थे लेकिन कोई भी उनसे टक्कर नहीं ले सका। लेकिन सावरकर ने स्पष्ट शब्दों में अपनी असहमति दर्ज कराई। उन्होंने खिलाफत आंदोलन का पूरी शक्ति से विरोध किया और इसके घातक परिणामों की चेतावनी दी। इससे कौन इनकार करेगा कि खिलाफत आंदोलन से ही पाकिस्तान नाम के विषवृक्ष कि नीव पड़ी?
इसी तरह सन 1946 के अंतरिम चुनावों के समय भी उन्होंने हिंदू समाज को चेतावनी दी कि कांग्रेस को वोट देने का अर्थ है ‘भारत का विभाजन’, वीर सावरकर सही साबित हुए।
वीर सावरकर की सोच पूरी तरह वैज्ञानिक थी लेकिन तब भारत उनके वैज्ञानिक सोच के लिए तैयार नहीं था।
यह सच है कि सावरकर अपने उद्देश्यों में सफल नहीं हुए। लेकिन सफलता ही एकमात्र पैमाना हो तो रानी लक्ष्मीबाई, सरदार भगत सिंह, नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसे कई महान विभूतियों को इतिहास से निकाल देना चाहिए? स्वतंत्रता के बाद के दौर में भी देखें, तो राम मनोहर लोहिया और आचार्य कृपलानी जैसे
लोगों का कोई महत्व नहीं? वैसे सफल कौन हुआ? जिसके लाश पर विभाजन होना था उसके आँखों के सामने ही देश बट गया।
सफलता ही पूज्य है तो जिन्ना को ही क्यों न पूजें? उन्हें तो बस पाकिस्तान चाहिए था और ले कर दिखा दिया।
भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक दत्तोपंत ठेंगडी कहते थे कि व्यक्ति की महानता उसके जीवनकाल में प्राप्त सफलताओं से अथवा प्रसिद्धि से तय नहीं होती वरन भवीष्य पर उसके विचारों के प्रभाव से तय होती है। वीर सावरकर के विचार आज भी प्रासंगिक हैं और उनका प्रभाव कहाँ तक होगा, यह आनेवाला समय बताएगा। इतिहास सावरकर से न्याय करेगा अथवा नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि इतिहास कौन लिखेगा।
अब एक प्रसंग :
गाँधी ने एक प्रसंग में हुतात्मा सावरकर से कहा : “यह निश्चय है की हमारे मतभेद हैं मगर मेरे प्रयोगों के विषय में आप को आपति नहीं होगी..
सावरकर: ” आप राष्ट्र के मूल्य पर प्रयोग कर रहें हैं”
गाँधी के प्रयोग का प्रतिफल भारत का खंडन और सर्वदा का कैंसर पाकिस्तान का निर्माण..माताओं बहनों का मानभंग… लाखो मनुष्यों की बलि,
काश इस राष्ट्र ने महात्मा के चरखे के बजाय सावरकर के शस्त्र को अपनाया होता, तो आज स्थिति कुछ और ही होती , अब भी यदि हम चेत सकें तो राष्ट्र को बचा सकते हैं…!!
¤हरि: ॐ¤
जय महाकाल.!!!

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Peace if possible, truth at all costs.

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