अंग्रेज मानते थे कि संस्कृत की जानकारी सेमेटिक बाइबल के पंथ को नष्ट कर देगी, इसलिए संस्कृत को नष्ट करना जरूरी है... #TheTrueIndianHistory
BY Madhusudan Vyas. इस्लाम के नाम पर जिन लोगो ने भारत पर आक्रमण किया वे केवल लूट खसोट बलात्कार जबरिया मत परिवर्तन की भाषा समझते थे उनमे मानसिक सोच नहीं थी मूर्खता वश उन्होंने पुस्तकालय जला दिए। शिल्प के नायब नमूने जो आज के विज्ञान के गुरुत्वकर्षण के कई सारे नियम को भंग कर देते नष्ट कर दिए शिल्पी मार दिए गए।
जैसे हम्पी का वह मंडपम जिसमे संगीत स्तम्भ है। जिसको बनाने में शिल्पी ने वायु वेग स्तम्भ का आकार उनके मध्य की वायु दुरी सबकी गणना करी होगी और पूरा मंडपम बिना वाद्य यंत्र केवल एक चन्दन काष्ठ की लकड़ी की टकोर मात्र से वाद्य यंत्र बजा देता था।
अंग्रेज ने उसे समझने का प्रयास किया और इस मंडप के कुछ स्तम्भ कटवाए परन्तु नहीं समझ पाये। जितना बचा है उसमे भी सा रे ग म की ढोलक आदि की ध्वनि आज भी निकलती है परन्तु अंग्रेज की संगत ने उसकी कुत्सित चेष्टा ने शिल्प का वह ज्ञान नष्ट कर दिया जैसे यूरोप का माल बेचने के लिए ढाका की मलमल का कारीगर नष्ट किया गया। वैसे ही अपना चूना सीमेंट बेचने के नाम पर अपने आपको सर्व श्रेष्ठ बनाने के नाम पर यह शिल्पी नष्ट किये गए।
वरना वे लोग पत्थर को उसके तराशने में उस पर वायु प्रभाव उसकी गुरुत्वाकर्षण क्षमता का आकलन करते थे विश्वास नहीं हो तो आओ चले फिर कर्णाटक के चिन्ना केशव स्वामी मंदिर में जहा एक स्तम्भ खड़ा है पिछले एक हजार वर्ष से केवल एक कोने पर टिका है उसकी तीन तरफ से आप रुमाल या अख़बार निकाल सकते है यह स्तम्भ लगभग 50 फ़ीट से ज्यादा लम्बा है कोई अन्य सपोर्ट नहीं है क्या आज की विश्व की बड़ी से बड़ी यूनिवर्सिटी से डिग्री लेने वाला यह करने की योग्यता रखता है ? तो फिर कैसे कहते है की ज्ञान बढ़ा विज्ञान बढ़ा ?
अब इस से आगे चलते है अंग्रेज आया अंग्रेज बुद्धिमान था वह विचारता था यह स्वीकार करना होगा उसका मूल लक्ष्य ईसाइयत का प्रचार प्रसार करना था उसे भारत प्रारम्भ बहुत अच्छा लगा था की लंगोटी पहनने वाले लोग जिनकी कोई पाठ शाळा नहीं है जिनका कोई ज्ञान विज्ञान नहीं है परन्तु जब उसके लोग भारतीय प्रज्ञा के संपर्क में आये तो उनको लगा की यह तो पुरे विश्व को पता लग गया तो ईसाइयत नष्ट हो जाएगी हमने जो धारणा बनाई है उसका क्या होगा ? यह बात उसने कही स्वीकार करी FREDERIC BODMER अपनी पुस्तक THE LOOM OF LANGUAGE NEWYORK 1944 के पेज 174 पर लिखता है CUSTODIANS OF THE PENTATEUCH WERE ALARMED BY THE PROSPECT THAT SANSKRIT WOULD BRING DOWN THE TOWER OF BEBEL मतलब संस्कृत की जानकारी सेमेटिक बाइबल के पंथ को नष्ट कर देगी।
फिर अंग्रेज के सामने समस्या थी की वह यह कैसे स्वीकार करे की ईसा पूर्व 4004 वर्ष से बहुत पहले सृष्टि की रचना हो चुकी थी। कारण उसने यही पढ़ा था यही उसका धार्मिक विश्वास था क्यों की आदम हव्वा की गणना इस समय से पहले जाती नहीं थी सो वह क्या करे तब पहला सिद्धांत उसने आर्यो के भारत में बाहर से आने का बनाया।
रामायण महाभारत को कपोल कल्पित कथा बताया। विकास वाद का सिद्धांत स्थापित किया। भारतीयों को इतिहास लिखना नहीं आता था यह बात रखी। इसमें मेकाले मेक्समूलर विलियम जोन्स मोनियर विलियम बेबर जैकोबी जैसे लोग जुटे योजना बनाकर जुटे मोनियर विलियम के संस्कृत शब्द कोष की भूमिका को पढ ले मैं बोडन आसंदी कुर्सी पर बैठने वाला दूसरा व्यक्ति हू इसका उद्देश्य यह है की बाइबल का संस्कृत में अनुवाद कर भारतीयों को ईसाई बनाया जावे।
और फिर अंग्रेजियत का प्रचार प्रसार शुरू हुया फिर इन लोगो ने पुराणो वेदो उपनिषदों अन्य ग्रंथो के मनमाने अनुवाद शुरू किये उसमे काल गणना एक लक्ष्य था दूसरा लक्ष्य भाषा विज्ञान था जिसके द्वारा संस्कृत की प्राचीनता को कम करना था हुवेन संग फाइयन के इतिवृतो का अनुवाद उन्होंने किया जो चीनी नहीं जानते थे मेगस्थनीज स्ट्रा के वर्णन हम पर थोपे गए चन्द्र गुप्त मौर्य को तथा सिकंदर को समकालीन बताने का प्रयास किया गया।
और इस धारा के नेहरू तो समर्थक थे ही बाकि भी बह गए हमको आज अपने ग्रंथो से फ्लीट विद्वान लगता है कारण हम में भटकाव आ गया है जैसे यशोधर्मन का मन्दसौर लेख यह कोई भारतीय राजा नहीं था यह कुषाण था आंधी की तरह आया और चला गया परन्तु इसका माई बाप बन गया फ्लीट और यशोधर्मन प्रसिद्ध हो गया विक्रम संवत ईसा से 57 वर्ष पूर्व चला तो इसका प्रवर्तक कौन था ?
हमारे देश में सृष्टि संवत प्रचलित है काली संवत प्रचलित है इस विषय में ऐहोल का सत्याश्रयपुलकेशी का शिलालेख बहुत महत्व है जिसका अर्थ कीलहार्न ने किया और अर्थ करते समय उसे पढ़ना नहीं आया तो उसने भूल से या जानबूझकर शतेष्वब्देषु के पाठ को गतेष्वब्देषु कर दिया।
इसका अर्थ होता है की जब कलि के 3637 वर्ष व्यतीत हुए तब शक भ्रुभुजो के 556 वर्ष व्यतीत हुए। एक शूद्रक संवत था प्रथम विक्रम संवत था कृत संवत था श्री हर्ष संवत था मालव संवत था आचार्य रामदेव ने कुल 43 संवतो की सूचि दी है नेपाल के राजगुरु पंडित हेमराज के पास सुमति तंत्र नामक ग्रन्थ था यह samvat 633 में लिखा गया था उसमे युधिष्ठर राज्याब्द 2000 नन्द राज्याब्द 800 'चन्द्र गुप्त राज्याब्द 132 शूद्रकदेव राज्याब्द 247 शक राज्याब्द 498 वर्ष लिखा है विक्रम संवत को फ्लीट अलबरेनी के गुप्त वलभी संवत से जोड़ता है अब विक्रमादित्य कौन था ?
क्षीर स्वामी नामक कोशकार जिसे हेमचन्द्र सूरी अपने कोष में उद्धृत करते है लिखता है विक्रमादित्यः साहसांक शकान्तकः चन्द्रगुप्त की अनेक मुद्राए विक्रमादित्य विरद के साथ पायी गयी है।
इस प्रकार यह चन्द्र गुप्त जिसने विक्रम संवत का प्रवर्तन किया वास्तव में गुप्त वंशीय था जो समुद्रगुप्त का पुत्र था यह चन्द्र गुप्त द्वितीय था विषय में एक जैन गाथा प्रचलित है विक्रमादित्य सहासांक सिद्धसेन से पूछता है की मेरे सामान कोई होगा तब सिद्धसेन कहते है पुन्ने वाससहस्से सयम्मि वरिसाण नवनवई अहिए होही कुमरनरिन्दो तुह विक्कमराय सरिच्छो यह गाथा जो बात कहती है वह मिलती है विक्रम संवत के बाद लगभग 1199 वर्ष पश्चात गुजरात चालुक्य वंश में कुमार पाल जन्म हुआ औरवह [प्रसिद्ध राजा बना।
विक्रम संवत चैत्र शुक्ल एकम को प्रारम्भ हुआ था जिसकी एक पट्टिका का इतिहास में विवरण आता है श्रीमद उज्जैनियाम संवत १ चैत्र सुदी १ गुरो भाट देशीय महाक्ष पटलिक परमाहर्त श्वेताम्बरोपासक ब्राह्मण गौतम सुत कात्यायनेन राजआलेख्येत इस विषय में विशद जानकारी पंडित भगवद दत्त तथा कोटा वेंकटाचलम की पुस्तको को पंडित रघुंनदनप्रसाद शर्मा की पुस्तको को पढ़ने पर हो सकती है।
BY Madhusudan Vyas. इस्लाम के नाम पर जिन लोगो ने भारत पर आक्रमण किया वे केवल लूट खसोट बलात्कार जबरिया मत परिवर्तन की भाषा समझते थे उनमे मानसिक सोच नहीं थी मूर्खता वश उन्होंने पुस्तकालय जला दिए। शिल्प के नायब नमूने जो आज के विज्ञान के गुरुत्वकर्षण के कई सारे नियम को भंग कर देते नष्ट कर दिए शिल्पी मार दिए गए।
जैसे हम्पी का वह मंडपम जिसमे संगीत स्तम्भ है। जिसको बनाने में शिल्पी ने वायु वेग स्तम्भ का आकार उनके मध्य की वायु दुरी सबकी गणना करी होगी और पूरा मंडपम बिना वाद्य यंत्र केवल एक चन्दन काष्ठ की लकड़ी की टकोर मात्र से वाद्य यंत्र बजा देता था।
अंग्रेज ने उसे समझने का प्रयास किया और इस मंडप के कुछ स्तम्भ कटवाए परन्तु नहीं समझ पाये। जितना बचा है उसमे भी सा रे ग म की ढोलक आदि की ध्वनि आज भी निकलती है परन्तु अंग्रेज की संगत ने उसकी कुत्सित चेष्टा ने शिल्प का वह ज्ञान नष्ट कर दिया जैसे यूरोप का माल बेचने के लिए ढाका की मलमल का कारीगर नष्ट किया गया। वैसे ही अपना चूना सीमेंट बेचने के नाम पर अपने आपको सर्व श्रेष्ठ बनाने के नाम पर यह शिल्पी नष्ट किये गए।
वरना वे लोग पत्थर को उसके तराशने में उस पर वायु प्रभाव उसकी गुरुत्वाकर्षण क्षमता का आकलन करते थे विश्वास नहीं हो तो आओ चले फिर कर्णाटक के चिन्ना केशव स्वामी मंदिर में जहा एक स्तम्भ खड़ा है पिछले एक हजार वर्ष से केवल एक कोने पर टिका है उसकी तीन तरफ से आप रुमाल या अख़बार निकाल सकते है यह स्तम्भ लगभग 50 फ़ीट से ज्यादा लम्बा है कोई अन्य सपोर्ट नहीं है क्या आज की विश्व की बड़ी से बड़ी यूनिवर्सिटी से डिग्री लेने वाला यह करने की योग्यता रखता है ? तो फिर कैसे कहते है की ज्ञान बढ़ा विज्ञान बढ़ा ?
अब इस से आगे चलते है अंग्रेज आया अंग्रेज बुद्धिमान था वह विचारता था यह स्वीकार करना होगा उसका मूल लक्ष्य ईसाइयत का प्रचार प्रसार करना था उसे भारत प्रारम्भ बहुत अच्छा लगा था की लंगोटी पहनने वाले लोग जिनकी कोई पाठ शाळा नहीं है जिनका कोई ज्ञान विज्ञान नहीं है परन्तु जब उसके लोग भारतीय प्रज्ञा के संपर्क में आये तो उनको लगा की यह तो पुरे विश्व को पता लग गया तो ईसाइयत नष्ट हो जाएगी हमने जो धारणा बनाई है उसका क्या होगा ? यह बात उसने कही स्वीकार करी FREDERIC BODMER अपनी पुस्तक THE LOOM OF LANGUAGE NEWYORK 1944 के पेज 174 पर लिखता है CUSTODIANS OF THE PENTATEUCH WERE ALARMED BY THE PROSPECT THAT SANSKRIT WOULD BRING DOWN THE TOWER OF BEBEL मतलब संस्कृत की जानकारी सेमेटिक बाइबल के पंथ को नष्ट कर देगी।
फिर अंग्रेज के सामने समस्या थी की वह यह कैसे स्वीकार करे की ईसा पूर्व 4004 वर्ष से बहुत पहले सृष्टि की रचना हो चुकी थी। कारण उसने यही पढ़ा था यही उसका धार्मिक विश्वास था क्यों की आदम हव्वा की गणना इस समय से पहले जाती नहीं थी सो वह क्या करे तब पहला सिद्धांत उसने आर्यो के भारत में बाहर से आने का बनाया।
रामायण महाभारत को कपोल कल्पित कथा बताया। विकास वाद का सिद्धांत स्थापित किया। भारतीयों को इतिहास लिखना नहीं आता था यह बात रखी। इसमें मेकाले मेक्समूलर विलियम जोन्स मोनियर विलियम बेबर जैकोबी जैसे लोग जुटे योजना बनाकर जुटे मोनियर विलियम के संस्कृत शब्द कोष की भूमिका को पढ ले मैं बोडन आसंदी कुर्सी पर बैठने वाला दूसरा व्यक्ति हू इसका उद्देश्य यह है की बाइबल का संस्कृत में अनुवाद कर भारतीयों को ईसाई बनाया जावे।
और फिर अंग्रेजियत का प्रचार प्रसार शुरू हुया फिर इन लोगो ने पुराणो वेदो उपनिषदों अन्य ग्रंथो के मनमाने अनुवाद शुरू किये उसमे काल गणना एक लक्ष्य था दूसरा लक्ष्य भाषा विज्ञान था जिसके द्वारा संस्कृत की प्राचीनता को कम करना था हुवेन संग फाइयन के इतिवृतो का अनुवाद उन्होंने किया जो चीनी नहीं जानते थे मेगस्थनीज स्ट्रा के वर्णन हम पर थोपे गए चन्द्र गुप्त मौर्य को तथा सिकंदर को समकालीन बताने का प्रयास किया गया।
और इस धारा के नेहरू तो समर्थक थे ही बाकि भी बह गए हमको आज अपने ग्रंथो से फ्लीट विद्वान लगता है कारण हम में भटकाव आ गया है जैसे यशोधर्मन का मन्दसौर लेख यह कोई भारतीय राजा नहीं था यह कुषाण था आंधी की तरह आया और चला गया परन्तु इसका माई बाप बन गया फ्लीट और यशोधर्मन प्रसिद्ध हो गया विक्रम संवत ईसा से 57 वर्ष पूर्व चला तो इसका प्रवर्तक कौन था ?
हमारे देश में सृष्टि संवत प्रचलित है काली संवत प्रचलित है इस विषय में ऐहोल का सत्याश्रयपुलकेशी का शिलालेख बहुत महत्व है जिसका अर्थ कीलहार्न ने किया और अर्थ करते समय उसे पढ़ना नहीं आया तो उसने भूल से या जानबूझकर शतेष्वब्देषु के पाठ को गतेष्वब्देषु कर दिया।
इसका अर्थ होता है की जब कलि के 3637 वर्ष व्यतीत हुए तब शक भ्रुभुजो के 556 वर्ष व्यतीत हुए। एक शूद्रक संवत था प्रथम विक्रम संवत था कृत संवत था श्री हर्ष संवत था मालव संवत था आचार्य रामदेव ने कुल 43 संवतो की सूचि दी है नेपाल के राजगुरु पंडित हेमराज के पास सुमति तंत्र नामक ग्रन्थ था यह samvat 633 में लिखा गया था उसमे युधिष्ठर राज्याब्द 2000 नन्द राज्याब्द 800 'चन्द्र गुप्त राज्याब्द 132 शूद्रकदेव राज्याब्द 247 शक राज्याब्द 498 वर्ष लिखा है विक्रम संवत को फ्लीट अलबरेनी के गुप्त वलभी संवत से जोड़ता है अब विक्रमादित्य कौन था ?
क्षीर स्वामी नामक कोशकार जिसे हेमचन्द्र सूरी अपने कोष में उद्धृत करते है लिखता है विक्रमादित्यः साहसांक शकान्तकः चन्द्रगुप्त की अनेक मुद्राए विक्रमादित्य विरद के साथ पायी गयी है।
इस प्रकार यह चन्द्र गुप्त जिसने विक्रम संवत का प्रवर्तन किया वास्तव में गुप्त वंशीय था जो समुद्रगुप्त का पुत्र था यह चन्द्र गुप्त द्वितीय था विषय में एक जैन गाथा प्रचलित है विक्रमादित्य सहासांक सिद्धसेन से पूछता है की मेरे सामान कोई होगा तब सिद्धसेन कहते है पुन्ने वाससहस्से सयम्मि वरिसाण नवनवई अहिए होही कुमरनरिन्दो तुह विक्कमराय सरिच्छो यह गाथा जो बात कहती है वह मिलती है विक्रम संवत के बाद लगभग 1199 वर्ष पश्चात गुजरात चालुक्य वंश में कुमार पाल जन्म हुआ औरवह [प्रसिद्ध राजा बना।
विक्रम संवत चैत्र शुक्ल एकम को प्रारम्भ हुआ था जिसकी एक पट्टिका का इतिहास में विवरण आता है श्रीमद उज्जैनियाम संवत १ चैत्र सुदी १ गुरो भाट देशीय महाक्ष पटलिक परमाहर्त श्वेताम्बरोपासक ब्राह्मण गौतम सुत कात्यायनेन राजआलेख्येत इस विषय में विशद जानकारी पंडित भगवद दत्त तथा कोटा वेंकटाचलम की पुस्तको को पंडित रघुंनदनप्रसाद शर्मा की पुस्तको को पढ़ने पर हो सकती है।
Peace if possible, truth at all costs.