क्या गांधी ने भारत में मुस्लिम कट्टरपंथ को बढ़ावा देकर भारत-विभाजन की नींव डाली थी...???
भारत के मुसलमानों ने ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध एकजुट होकर केवल एक आन्दोलन किया था।
अंग्रेजों ने प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी का साथ देने के लिए तुर्की को मजा चखाया और तुर्की को विघटित कर तुर्की के खलीफा को गद्दी से हटा दिया ।
मुसलमान खलीफा को अपना नेता मानते थे इसलिए उनमें अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह की लहर दौड़ गई।
यहाँ हास्यापद बात ये रही कि तुर्की की जनता ने स्वयं ही कमाल अतातुर्क के नेतृत्व में खलीफा को देश-निकाला दे दिया था।
भारत के मुस्लिम नेताओं ने उसी दूर देश तुर्की के खलीफा के समर्थन में अंग्रेजों के विरुद्ध सन् १९२१ में “खिलाफत आन्दोलन” शुरू कर किया।
मुस्लिम नेताओं तथा भारतीय मुसलमानों को खुश करने के लिए गाँधी ने मोतीलाल नेहरु के सुझाव पर कांग्रेस की ओर से खिलाफत आन्दोलन के समर्थन की घोषणा कर डाली।
श्री विपिन चन्द्र पाल, डा. एनी बेसेंट, अम्बेडकर आदि नेताओं ने कांग्रेस की बैठक मैं खिलाफत के समर्थन
का विरोध किया , किन्तु आखिर मतदान में
गाँधी जीत गए ।
फिर तो गाँधी खिलाफत आन्दोलन के खलीफा ही बन गए ।
मुसलमानों व कांग्रेस ने जगह-जगह प्रदर्शन किये । ‘अल्लाह हो अकबर’ जैसे नारे लगाकर आम मुस्लिमों की धार्मिक भावनाएं भड़काई गयीं ।
मदनमोहन मालवीय जी समेत कुछ अन्य नेताओं ने
चेतावनी दी की खिलाफत आन्दोलन की आड़ में मुस्लिम भावनाएं भड़काकर भविष्य के लिए बड़ा खतरा पैदा किया जा रहा है किन्तु गांधी ने कहा "मैं
मुसलमान भाईयों के इस आन्दोलन को स्वराज से
भी ज्यादा महत्व देता हूँ, जो खिलाफत के विरूद्ध है वो कांग्रेस का शत्रु है ।"
भारतीय मुसलमान खिलाफत आन्दोलन करने के वावजूद अंगेजों का बाल बांका नहीं कर पाए
किन्तु गांधी और कांग्रेस के इस तुष्टिकरण वाले कार्य ने पूरे भारत में मृतप्राय
मुस्लिम कट्टरपंथ को जहरीले सर्प की तरह जिन्दा कर
डाला और उस समय देश के साथ मुख्यधारा में जी रहे मुसलमानों ने स्वयं को देश से ही अलग समझना शुरू कर दिया एवं उनके मन में अपने लिए अलग राष्ट्र बनाने की भावना नें जन्म लिया।
उस समय के कई प्रमुख राष्ट्रवादियों का मानना था कि भारत को स्वतंत्र कराने के गांधी के द्वारा चलाया गया प्रथम असहयोग आन्दोलन वास्तव में खिलाफत को सफल बनाने के लिए था। क्योंकि उसका कोई राष्ट्रीय उद्देश्य नहीं था और जब ये सफलता के करीब था तब ऐन वक्त पर गांधीजी ने उसे चौरीचौरा हिंसा (जो अंग्रेज़ों के विरूद्ध हुआ था) का हवाला देकर वापस ले लिया था ।
खिलाफत आन्दोलन की असफलता से चिढ़े मुसलमानों ने पूरे देश में दंगा करना शुरू कर दिया और जहाँ-जहाँ भी वो संख्या में अधिक थे अपना सारा गुस्सा हिन्दुओं पर निकालने लगे।
देश में सांप्रदायिक दंगों की बाढ़ आ गई थी। उत्तर प्रदेश, बंगाल, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के शहरों में दंगे भड़कने लगे। इनमें केरल के मालाबार क्षेत्र का मोपला कांड सबसे अधिक भयानक था।
मालाबार में मोपलाओं ने हिन्दुओं पर जो जुल्म किए वे अत्यंत
बर्बर और रोंगटे खड़े करने वाले थे जिन्हें पढ़कर हृदय दहल जाता है।
वहाँ उनके सामने इस्लाम या मौत का विकल्प रखा गया। "सर्वेन्ट्स आफ
इंडिया सोसायटी" के सर्वेक्षण के अनुसार 15000 से ज्यादा हिन्दुओं
की हत्या की गई, बीस हजार को जबरन मुसलमान बनाया गया,
सैकड़ों मंदिर तोड़े गए तथा तीन करोड़ से अधिक हिन्दुओं
की संपत्ति लूट ली गई। (जबकि वास्तविक संख्या इससे कई गुना अधिक थी)। पूरे घटनाक्रम में महिलाओं को सबसे
ज्यादा उत्पीड़ित होना पड़ा। यहां तक कि गर्भवती महिलाओं
को भी नहीं बख्शा गया। मोपलाओं की वहशियत चरम पर थी। इस
सम्बन्ध में 7 सितम्बर, 1921 में "टाइम्स आफ इंडिया" में
जो खबर छपी वह इस प्रकार है- "विद्रोहियों ने सुन्दर हिन्दू
महिलाओं को पकड़-पकड़ कर उनका बुरी तरह बलात्कार किया, जबरदस्ती मुसलमान बनाया और उन्हें
अल्पकालिक पत्नी के रूप में इस्तेमाल किया।"
मोपला दंगों के चश्मदीद गवाह रहे केरल प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रथम अध्यक्ष और स्वतंत्रता सेनानी श्री माधवन नायर अपनी पुस्तक "मालाबार कलपन" में लिखते हैं कि हिन्दुओं का सिर काट कर उन्हें थूर के कुओं में फेंक दिया गया था जिनसे वो लबालब भर गये थे।
एक ओर मोपला मुस्लिम मौलानाओं द्वारा मस्जिदों में भड़काऊ भाषण दिए जा रहे थे
और दूसरी और असहयोग आन्दोलनकारी हिन्दू जनता से यह
अपील कर रहे थे की हिन्दू – मुस्लिम एकता को पुष्ट करने के
लिए खिलाफत वालों को पूर्ण सहयोग दिया जाए ”।
गाँधी जो अपनी नीति के कारण इसके उत्तरदायी थे,मौन
रहे।”
”उत्तर में यह कहना शुरू कर दिया कि - मालाबार में हिन्दुओं को मुसलमान नही बनाया गया सिर्फ मारा गया जबकि उनके मुस्लिम मित्रों ने सार्वजनिक रूप से ये स्वीकार किया था कि मुसलमान बनाने की हजारों घटनाएं हुई हैं।
देश के इतने बड़े ऐतिहासिक दंगो के बाद भी गांधी की अहिंसा की दोहरी नीति पर कोई फर्क नहीं पड़ा..और तो और मुसलमानों को खुश करने के लिए उन्होनें इतने बड़े दंगो के दोषी मोपला मुसलमानों के लिए फंड शुरू कर दिया। “
महान स्वाधीनता सेनानी भाई परमानन्द जी ने उस समय चेतावनी देते हुए कहा था-
‘ गाँधी जी तथा कांग्रेस ने मुसलमानों को तुष्ट करने के लिए जिस बेशर्मी के साथ खिलाफत आन्दोलन
का समर्थन किया तथा अब मोपला के खूंखार हत्यारों की प्रशंसा कर रहे हैं, यह घटक नीति आगे चलके
इस्लामी उग्रवाद को पनपाने में सहायक सिद्ध होगी ‘। और बाद में यही हुआ भी।
डा. एनी बेसेंट ने २९ नवम्बर १९२१ को दिल्ली में
जारी अपने वक्तब्य में कहा था था –
“असहयोग आन्दोलन को खिलाफत आन्दोलन का भाग बनाकर गांधीजी तथा कुछ कांग्रेसी नेताओं ने मजहबी हिंसा को पनपने का अवसर दे दिया है ।
डा. बाबा साहेब अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक ‘भारत
का विभाजन ‘ के पृष्ठ १८७ पर गाँधी पर प्रहार करते हुए
लिखा था :
‘गाँधी जी हिंसा की प्रत्येक घटना की निंदा करने में कभी नहीं चूकते थे किन्तु गाँधी जी ने इन हत्याओं का कभी विरोध नहीं किया बल्कि उन्होंने चुप्पी साध ली ।
ऐसी मानसिकता का केवल एक ही विश्लेषण है कि गाँधीजी हिन्दू- मुस्लिम एकता के लिए व्यग्र थे और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हजारों हिन्दुओं की हत्या से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था (उसी पुस्तक के
प्रष्ठ १५७ पर )
मालाबार और मुल्तान के बाद सितम्बर १९२४ में कोहाट में मजहबी उन्मादियों ने हिन्दुओं पर भीषण अत्याचार
ढाए ।
कोहाट के इस दंगे में हिन्दुओं की नृशंस
हत्याएं किये जाने का समाचार सुनकर भाई परमानन्द जी ,स्वामी श्रध्दानंद जी तथा लाला लाजपत राय ने एकमत होकर कहा था-
‘ खिलाफत आन्दोलन में मुसलमानों का समर्थन करने
के चलते ही यह दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं कि जगह जगह मुसलमान घोर पाशविकता का प्रदर्शन कर रहे हैं ‘
गांधी के नेतृत्व में हिन्दू समाज समझ रहा था कि हम
राष्ट्रीय एकता और स्वराज्य की दिशा में बढ़ रहे हैं और
मुस्लिम समाज की सोच थी कि खिलाफत
की रक्षा का अर्थ है इस्लाम के वर्चस्व की वापसी।
मौलाना हसरत मोहानी ने कांग्रेस के अहमदाबाद
अधिवेशन में मोपला अत्याचारों पर लाए गए निन्दा प्रस्ताव
का विरोध करते हुए कहा था-
"मोपला प्रदेश दारुल अमन नहीं रह गया था, वह दारुल हरब में
तब्दील हो गया था। मोपलाओं ने ठीक किया कि हिन्दुओं के सामने कुरान और
तलवार का विकल्प रखा और यदि हिन्दू अपनी जान बचाने
के लिए मुसलमान हो गए तो यह स्वैच्छिक मतान्तरण है, इसे
जबरन नहीं कहा जा सकता।"
(राम गोपाल-इंडियन मुस्लिम-ए पालिटिकल हिस्ट्री,
पृष्ठ-157)
यद्यपि इस आंदोलन की पहली मांग खलीफा पद
की पुनर्स्थापना थी।
इसलिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार इसे
‘अखिल आफत आंदोलन’ तथा हिन्दू महासभा के डा. मुंजे इसे ‘खिला-खिलाकर आफत बुलाना’ कहते थे; पर इन देशभक्तों की बात को गांधी ने नहीं सुना।
कांग्रेस ने मुस्लिम तुष्टीकरण का जो देशघाती मार्ग उस समय अपनाया था, उसी पर आज भारत के अधिकांश राजनीतिक दल चल रहे हैं।
इस आंदोलन के दौरान ही मो0 अली जौहर ने अफगानिस्तान
के शाह अमानुल्ला को तार भेजकर भारत को दारुल इस्लाम
बनाने के लिए अपनी सेनाएं भेजने का अनुरोध किया।
इसी बीच तुर्की में खलीफा सुल्तान अब्दुल माजिद अंग्रेजों की शरण में आकर माल्टा चले गये और आधुनिक विचारों के समर्थक कमाल अतातुर्क सर्वसम्मति से नये शासक बने। देशभक्त जनता ने भी उनका साथ दिया।
इस प्रकार खिलाफत आंदोलन अपने घर में ही मर गया;
पर भारत में इसके नाम पर अली भाइयों ने
अपनी रोटियां अच्छी तरह सेंक लीं।
अब अली भाई अपने चेलों का एक शिष्टमंडल लेकर सऊदी अरब के शाह अब्दुल अजीज से खलीफा बनने की प्रार्थना करने गये।
शाह ने तीन दिन तक मिलने का समय ही नहीं दिया और चौथे दिन दरबार में सबके सामने उन्हें दुत्कार कर बाहर निकाल दिया।
भारत आकर मो.अली ने भारत को दारुल हरब (काफिरों की भूमि) कहकर मौलाना अब्दुल बारी से हिजरत
का फतवा जारी करवाया।
इस पर हजारों मुसलमान अपनी सम्पत्ति बेचकर अफगानिस्तान चल दिये। इनमें उत्तर भारतीयों की संख्या सर्वाधिक थी; पर वहां उनके
मजहबी भाइयों ने ही उन्हें खूब मारा तथा उनकी सम्पत्ति भी लूट ली। अपमान की आग में जलते वापस लौटते हुए भारत की सीमा से ही वो रास्ते भर दंगे और लूटपाट करते हुए अाये।
खिलाफत आन्दोलन का समर्थन कर गाँधी तथा कांग्रेस ने मुस्लिम कट्टरवाद तथा अलगाववाद को बढ़ावा दिया था ।
मोपलाओं द्वारा हिन्दुओं की नृशंस हत्याओं का जब आर्य समाज तथा हिन्दू महासभा ने विरोध किया तब
भी गाँधी जी मोपलाओं को ‘शांति का दूत’ बताते रहे ।
दिसम्बर १९२४ में कर्णाटक के बेलगाँव में प. मदनमोहन मालवीय जी की अध्यक्षता में हुए हिन्दू महासभा के अधिवेशन में कांग्रेस की मुस्लिम पोषक नीति पर कड़े प्रहार कर हिन्दुओं को राजनीतिक दृष्टि से संगठित करने पर बल दिया गया । आर एस एस की स्थापना की प्रेरणा को और भी बल मिला।
इतिहासकार शिवकुमार गोयल ने अपनी पुस्तक में कांग्रेस की भूमिका का उल्लेख किया है ।
यह देश का दुर्भाग्य रहा है की कांग्रेस ने इस्लामी आतंकवाद के विरुद्ध एक भी शब्द नहीं बोला ।
स्वामी श्रध्दानंद जी शिक्षाविद तथा आर्य प्रचारक के साथ-साथ कांग्रेस के नेता भी थे । वह कांग्रेस कार्यकारिणी के सदस्य भी थे ।
स्वामी जी ने और लाला लाजपत राय ने यह महसूस
किया की अगर मुस्लिमों और इसाईयों को हिन्दुओं के
निर्बाध धर्मान्तरण की छूट मिलती रही तो ये हिंदुस्तान
की एकता के लिए भारी खतरा सिद्ध होगा।
स्वामी श्रध्दानंद जी , लाला लाजपत राय जी और
महात्मा हंसराज जी ने धर्म परिवर्तन करने वाले हिन्दुओं
को पुन: वैदिक धरम में शामिल करने का अभियान शुरू किया ।
गांधी के कहने पर कांग्रेस के मुस्लिम नेताओं ने इनके द्वारा चलाये जा रहे शुध्दि आन्दोलन का विरोध शुरू कर दिया ।कहा गया की यह आन्दोलन हिन्दू मुस्लिम एकता को कमजोर कर रहा है ।
स्वामी श्रध्दानंद जी ने कांग्रेस से सम्बन्ध तोड़ लिया ।
स्वामी श्रध्दानंद जी शुध्दि अभियान में पुरे जोर शोर से
सक्रिय हो गए ।
पर उन्मादी मुसलमान शुध्दि अभियान को सहन नहीं कर पाए।
पहले तो उन्हें धमकियां दी गयीं, अंत मैं २२ दिसम्बर १९२६ को दिल्ली में अब्दुल रशीद नामक एक मजहबी उन्मादी ने उनकी गोली मारकर हत्या कर डाली ।
स्वामी श्रध्दानंद जी की इस नृशंस हत्या ने सारे देश
को व्यथित कर डाला।
परन्तु गाँधी ने यंग इंडिया में लिखा -
” मैं भईया अब्दुल रशीद नामक मुसलमान, जिसने
श्रध्दानंद जी की हत्या की है , का पक्ष लेकर
कहना चाहता हूँ ,की इस हत्या का दोष हमारा है । अब्दुल रशीद जिस धर्मोन्माद से पीड़ित था, उसके लिए केवल मुसलमान ही नहीं, हिन्दू भी दोषी हैं ।”
स्वातंत्रवीर सावरकर जी ने उन्हीं दिनों २० जनवरी १९२७ के ‘श्रध्दानंद’ के अंक के अपने लेख में गाँधी द्वारा हत्यारे अब्दुल रशीद की तरफदारी की कड़ी आलोचना करते हुए लिखा –
गाँधी जी ने अपने-आपको को साधू-हृदय , ‘महात्मा’ तथा निस्पक्ष सिद्ध करने के लिए एक मजहबी उन्मादी हत्यारे के प्रति सुहानुभूति व्यक्त की है ।
मालाबार के मोपला हत्यारों के प्रति वे पहले ही ऐसी सहानुभूति दिखा चुके हैं ।
गाँधी ने स्वयं ‘हरिजन’ तथा अन्य पत्रों मैं लेख लिखकर
स्वामी श्रधानंद जी तथा आर्य समाज के ‘शुद्धि आन्दोलन ” की कड़ी निंदा की वहीं दूसरी ओर जगह जगह हिन्दुओं के जबरन धर्मांतरण के विरुद्ध उन्होंने एक भी शब्द कहने का साहस नहीं दिखाया।
खिलाफत आन्दोलन को भारत के राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा बनाकर गांधी ने कट्टरपंथी वर्ग को और बढ़ावा दे दिया तथा विशाल मुस्लिम समाज की मजहबी कट्टरता को संगठित होकर हिंसक आंदोलन के रास्ते पर बढ़ने का अवसर प्रदान किया।
अगर खिलाफत आन्दोलन नहीं होता तो मुस्लिम लीग
का वजूद एक छोटे क्षेत्रीय दल जैसा ही रहता और उसमें इतनी ताकत कभी नहीं आ पाती कि देश के बँटवारे की माँग करे और कभी बटवारा न हुआ होता।
हम कह सकते हैं की मोपला और खिलाफत
आन्दोलन के कारण ही मुस्लिम नेताओं को प्रोत्साहन और प्रेरणा मिली। देश का रक्तरंजित बँटवारा आखिर हुआ और हजारों नागरिकों का बेरहमी से कत्लेआम हुआ।
नोट - ये लेख पढ़कर जिसे दर्द हो वो इतिहास की किताबें पढ़ें। सभी तथ्य
किताबों से ही निकाले गये हैं और ये सब बोलने और लिखने वाले
बिके हुए नहीं थे ।
भारत के मुसलमानों ने ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध एकजुट होकर केवल एक आन्दोलन किया था।
अंग्रेजों ने प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी का साथ देने के लिए तुर्की को मजा चखाया और तुर्की को विघटित कर तुर्की के खलीफा को गद्दी से हटा दिया ।
मुसलमान खलीफा को अपना नेता मानते थे इसलिए उनमें अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह की लहर दौड़ गई।
यहाँ हास्यापद बात ये रही कि तुर्की की जनता ने स्वयं ही कमाल अतातुर्क के नेतृत्व में खलीफा को देश-निकाला दे दिया था।
भारत के मुस्लिम नेताओं ने उसी दूर देश तुर्की के खलीफा के समर्थन में अंग्रेजों के विरुद्ध सन् १९२१ में “खिलाफत आन्दोलन” शुरू कर किया।
मुस्लिम नेताओं तथा भारतीय मुसलमानों को खुश करने के लिए गाँधी ने मोतीलाल नेहरु के सुझाव पर कांग्रेस की ओर से खिलाफत आन्दोलन के समर्थन की घोषणा कर डाली।
श्री विपिन चन्द्र पाल, डा. एनी बेसेंट, अम्बेडकर आदि नेताओं ने कांग्रेस की बैठक मैं खिलाफत के समर्थन
का विरोध किया , किन्तु आखिर मतदान में
गाँधी जीत गए ।
फिर तो गाँधी खिलाफत आन्दोलन के खलीफा ही बन गए ।
मुसलमानों व कांग्रेस ने जगह-जगह प्रदर्शन किये । ‘अल्लाह हो अकबर’ जैसे नारे लगाकर आम मुस्लिमों की धार्मिक भावनाएं भड़काई गयीं ।
मदनमोहन मालवीय जी समेत कुछ अन्य नेताओं ने
चेतावनी दी की खिलाफत आन्दोलन की आड़ में मुस्लिम भावनाएं भड़काकर भविष्य के लिए बड़ा खतरा पैदा किया जा रहा है किन्तु गांधी ने कहा "मैं
मुसलमान भाईयों के इस आन्दोलन को स्वराज से
भी ज्यादा महत्व देता हूँ, जो खिलाफत के विरूद्ध है वो कांग्रेस का शत्रु है ।"
भारतीय मुसलमान खिलाफत आन्दोलन करने के वावजूद अंगेजों का बाल बांका नहीं कर पाए
किन्तु गांधी और कांग्रेस के इस तुष्टिकरण वाले कार्य ने पूरे भारत में मृतप्राय
मुस्लिम कट्टरपंथ को जहरीले सर्प की तरह जिन्दा कर
डाला और उस समय देश के साथ मुख्यधारा में जी रहे मुसलमानों ने स्वयं को देश से ही अलग समझना शुरू कर दिया एवं उनके मन में अपने लिए अलग राष्ट्र बनाने की भावना नें जन्म लिया।
उस समय के कई प्रमुख राष्ट्रवादियों का मानना था कि भारत को स्वतंत्र कराने के गांधी के द्वारा चलाया गया प्रथम असहयोग आन्दोलन वास्तव में खिलाफत को सफल बनाने के लिए था। क्योंकि उसका कोई राष्ट्रीय उद्देश्य नहीं था और जब ये सफलता के करीब था तब ऐन वक्त पर गांधीजी ने उसे चौरीचौरा हिंसा (जो अंग्रेज़ों के विरूद्ध हुआ था) का हवाला देकर वापस ले लिया था ।
खिलाफत आन्दोलन की असफलता से चिढ़े मुसलमानों ने पूरे देश में दंगा करना शुरू कर दिया और जहाँ-जहाँ भी वो संख्या में अधिक थे अपना सारा गुस्सा हिन्दुओं पर निकालने लगे।
देश में सांप्रदायिक दंगों की बाढ़ आ गई थी। उत्तर प्रदेश, बंगाल, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के शहरों में दंगे भड़कने लगे। इनमें केरल के मालाबार क्षेत्र का मोपला कांड सबसे अधिक भयानक था।
मालाबार में मोपलाओं ने हिन्दुओं पर जो जुल्म किए वे अत्यंत
बर्बर और रोंगटे खड़े करने वाले थे जिन्हें पढ़कर हृदय दहल जाता है।
वहाँ उनके सामने इस्लाम या मौत का विकल्प रखा गया। "सर्वेन्ट्स आफ
इंडिया सोसायटी" के सर्वेक्षण के अनुसार 15000 से ज्यादा हिन्दुओं
की हत्या की गई, बीस हजार को जबरन मुसलमान बनाया गया,
सैकड़ों मंदिर तोड़े गए तथा तीन करोड़ से अधिक हिन्दुओं
की संपत्ति लूट ली गई। (जबकि वास्तविक संख्या इससे कई गुना अधिक थी)। पूरे घटनाक्रम में महिलाओं को सबसे
ज्यादा उत्पीड़ित होना पड़ा। यहां तक कि गर्भवती महिलाओं
को भी नहीं बख्शा गया। मोपलाओं की वहशियत चरम पर थी। इस
सम्बन्ध में 7 सितम्बर, 1921 में "टाइम्स आफ इंडिया" में
जो खबर छपी वह इस प्रकार है- "विद्रोहियों ने सुन्दर हिन्दू
महिलाओं को पकड़-पकड़ कर उनका बुरी तरह बलात्कार किया, जबरदस्ती मुसलमान बनाया और उन्हें
अल्पकालिक पत्नी के रूप में इस्तेमाल किया।"
मोपला दंगों के चश्मदीद गवाह रहे केरल प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रथम अध्यक्ष और स्वतंत्रता सेनानी श्री माधवन नायर अपनी पुस्तक "मालाबार कलपन" में लिखते हैं कि हिन्दुओं का सिर काट कर उन्हें थूर के कुओं में फेंक दिया गया था जिनसे वो लबालब भर गये थे।
एक ओर मोपला मुस्लिम मौलानाओं द्वारा मस्जिदों में भड़काऊ भाषण दिए जा रहे थे
और दूसरी और असहयोग आन्दोलनकारी हिन्दू जनता से यह
अपील कर रहे थे की हिन्दू – मुस्लिम एकता को पुष्ट करने के
लिए खिलाफत वालों को पूर्ण सहयोग दिया जाए ”।
गाँधी जो अपनी नीति के कारण इसके उत्तरदायी थे,मौन
रहे।”
”उत्तर में यह कहना शुरू कर दिया कि - मालाबार में हिन्दुओं को मुसलमान नही बनाया गया सिर्फ मारा गया जबकि उनके मुस्लिम मित्रों ने सार्वजनिक रूप से ये स्वीकार किया था कि मुसलमान बनाने की हजारों घटनाएं हुई हैं।
देश के इतने बड़े ऐतिहासिक दंगो के बाद भी गांधी की अहिंसा की दोहरी नीति पर कोई फर्क नहीं पड़ा..और तो और मुसलमानों को खुश करने के लिए उन्होनें इतने बड़े दंगो के दोषी मोपला मुसलमानों के लिए फंड शुरू कर दिया। “
महान स्वाधीनता सेनानी भाई परमानन्द जी ने उस समय चेतावनी देते हुए कहा था-
‘ गाँधी जी तथा कांग्रेस ने मुसलमानों को तुष्ट करने के लिए जिस बेशर्मी के साथ खिलाफत आन्दोलन
का समर्थन किया तथा अब मोपला के खूंखार हत्यारों की प्रशंसा कर रहे हैं, यह घटक नीति आगे चलके
इस्लामी उग्रवाद को पनपाने में सहायक सिद्ध होगी ‘। और बाद में यही हुआ भी।
डा. एनी बेसेंट ने २९ नवम्बर १९२१ को दिल्ली में
जारी अपने वक्तब्य में कहा था था –
“असहयोग आन्दोलन को खिलाफत आन्दोलन का भाग बनाकर गांधीजी तथा कुछ कांग्रेसी नेताओं ने मजहबी हिंसा को पनपने का अवसर दे दिया है ।
डा. बाबा साहेब अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक ‘भारत
का विभाजन ‘ के पृष्ठ १८७ पर गाँधी पर प्रहार करते हुए
लिखा था :
‘गाँधी जी हिंसा की प्रत्येक घटना की निंदा करने में कभी नहीं चूकते थे किन्तु गाँधी जी ने इन हत्याओं का कभी विरोध नहीं किया बल्कि उन्होंने चुप्पी साध ली ।
ऐसी मानसिकता का केवल एक ही विश्लेषण है कि गाँधीजी हिन्दू- मुस्लिम एकता के लिए व्यग्र थे और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हजारों हिन्दुओं की हत्या से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था (उसी पुस्तक के
प्रष्ठ १५७ पर )
मालाबार और मुल्तान के बाद सितम्बर १९२४ में कोहाट में मजहबी उन्मादियों ने हिन्दुओं पर भीषण अत्याचार
ढाए ।
कोहाट के इस दंगे में हिन्दुओं की नृशंस
हत्याएं किये जाने का समाचार सुनकर भाई परमानन्द जी ,स्वामी श्रध्दानंद जी तथा लाला लाजपत राय ने एकमत होकर कहा था-
‘ खिलाफत आन्दोलन में मुसलमानों का समर्थन करने
के चलते ही यह दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं कि जगह जगह मुसलमान घोर पाशविकता का प्रदर्शन कर रहे हैं ‘
गांधी के नेतृत्व में हिन्दू समाज समझ रहा था कि हम
राष्ट्रीय एकता और स्वराज्य की दिशा में बढ़ रहे हैं और
मुस्लिम समाज की सोच थी कि खिलाफत
की रक्षा का अर्थ है इस्लाम के वर्चस्व की वापसी।
मौलाना हसरत मोहानी ने कांग्रेस के अहमदाबाद
अधिवेशन में मोपला अत्याचारों पर लाए गए निन्दा प्रस्ताव
का विरोध करते हुए कहा था-
"मोपला प्रदेश दारुल अमन नहीं रह गया था, वह दारुल हरब में
तब्दील हो गया था। मोपलाओं ने ठीक किया कि हिन्दुओं के सामने कुरान और
तलवार का विकल्प रखा और यदि हिन्दू अपनी जान बचाने
के लिए मुसलमान हो गए तो यह स्वैच्छिक मतान्तरण है, इसे
जबरन नहीं कहा जा सकता।"
(राम गोपाल-इंडियन मुस्लिम-ए पालिटिकल हिस्ट्री,
पृष्ठ-157)
यद्यपि इस आंदोलन की पहली मांग खलीफा पद
की पुनर्स्थापना थी।
इसलिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार इसे
‘अखिल आफत आंदोलन’ तथा हिन्दू महासभा के डा. मुंजे इसे ‘खिला-खिलाकर आफत बुलाना’ कहते थे; पर इन देशभक्तों की बात को गांधी ने नहीं सुना।
कांग्रेस ने मुस्लिम तुष्टीकरण का जो देशघाती मार्ग उस समय अपनाया था, उसी पर आज भारत के अधिकांश राजनीतिक दल चल रहे हैं।
इस आंदोलन के दौरान ही मो0 अली जौहर ने अफगानिस्तान
के शाह अमानुल्ला को तार भेजकर भारत को दारुल इस्लाम
बनाने के लिए अपनी सेनाएं भेजने का अनुरोध किया।
इसी बीच तुर्की में खलीफा सुल्तान अब्दुल माजिद अंग्रेजों की शरण में आकर माल्टा चले गये और आधुनिक विचारों के समर्थक कमाल अतातुर्क सर्वसम्मति से नये शासक बने। देशभक्त जनता ने भी उनका साथ दिया।
इस प्रकार खिलाफत आंदोलन अपने घर में ही मर गया;
पर भारत में इसके नाम पर अली भाइयों ने
अपनी रोटियां अच्छी तरह सेंक लीं।
अब अली भाई अपने चेलों का एक शिष्टमंडल लेकर सऊदी अरब के शाह अब्दुल अजीज से खलीफा बनने की प्रार्थना करने गये।
शाह ने तीन दिन तक मिलने का समय ही नहीं दिया और चौथे दिन दरबार में सबके सामने उन्हें दुत्कार कर बाहर निकाल दिया।
भारत आकर मो.अली ने भारत को दारुल हरब (काफिरों की भूमि) कहकर मौलाना अब्दुल बारी से हिजरत
का फतवा जारी करवाया।
इस पर हजारों मुसलमान अपनी सम्पत्ति बेचकर अफगानिस्तान चल दिये। इनमें उत्तर भारतीयों की संख्या सर्वाधिक थी; पर वहां उनके
मजहबी भाइयों ने ही उन्हें खूब मारा तथा उनकी सम्पत्ति भी लूट ली। अपमान की आग में जलते वापस लौटते हुए भारत की सीमा से ही वो रास्ते भर दंगे और लूटपाट करते हुए अाये।
खिलाफत आन्दोलन का समर्थन कर गाँधी तथा कांग्रेस ने मुस्लिम कट्टरवाद तथा अलगाववाद को बढ़ावा दिया था ।
मोपलाओं द्वारा हिन्दुओं की नृशंस हत्याओं का जब आर्य समाज तथा हिन्दू महासभा ने विरोध किया तब
भी गाँधी जी मोपलाओं को ‘शांति का दूत’ बताते रहे ।
दिसम्बर १९२४ में कर्णाटक के बेलगाँव में प. मदनमोहन मालवीय जी की अध्यक्षता में हुए हिन्दू महासभा के अधिवेशन में कांग्रेस की मुस्लिम पोषक नीति पर कड़े प्रहार कर हिन्दुओं को राजनीतिक दृष्टि से संगठित करने पर बल दिया गया । आर एस एस की स्थापना की प्रेरणा को और भी बल मिला।
इतिहासकार शिवकुमार गोयल ने अपनी पुस्तक में कांग्रेस की भूमिका का उल्लेख किया है ।
यह देश का दुर्भाग्य रहा है की कांग्रेस ने इस्लामी आतंकवाद के विरुद्ध एक भी शब्द नहीं बोला ।
स्वामी श्रध्दानंद जी शिक्षाविद तथा आर्य प्रचारक के साथ-साथ कांग्रेस के नेता भी थे । वह कांग्रेस कार्यकारिणी के सदस्य भी थे ।
स्वामी जी ने और लाला लाजपत राय ने यह महसूस
किया की अगर मुस्लिमों और इसाईयों को हिन्दुओं के
निर्बाध धर्मान्तरण की छूट मिलती रही तो ये हिंदुस्तान
की एकता के लिए भारी खतरा सिद्ध होगा।
स्वामी श्रध्दानंद जी , लाला लाजपत राय जी और
महात्मा हंसराज जी ने धर्म परिवर्तन करने वाले हिन्दुओं
को पुन: वैदिक धरम में शामिल करने का अभियान शुरू किया ।
गांधी के कहने पर कांग्रेस के मुस्लिम नेताओं ने इनके द्वारा चलाये जा रहे शुध्दि आन्दोलन का विरोध शुरू कर दिया ।कहा गया की यह आन्दोलन हिन्दू मुस्लिम एकता को कमजोर कर रहा है ।
स्वामी श्रध्दानंद जी ने कांग्रेस से सम्बन्ध तोड़ लिया ।
स्वामी श्रध्दानंद जी शुध्दि अभियान में पुरे जोर शोर से
सक्रिय हो गए ।
पर उन्मादी मुसलमान शुध्दि अभियान को सहन नहीं कर पाए।
पहले तो उन्हें धमकियां दी गयीं, अंत मैं २२ दिसम्बर १९२६ को दिल्ली में अब्दुल रशीद नामक एक मजहबी उन्मादी ने उनकी गोली मारकर हत्या कर डाली ।
स्वामी श्रध्दानंद जी की इस नृशंस हत्या ने सारे देश
को व्यथित कर डाला।
परन्तु गाँधी ने यंग इंडिया में लिखा -
” मैं भईया अब्दुल रशीद नामक मुसलमान, जिसने
श्रध्दानंद जी की हत्या की है , का पक्ष लेकर
कहना चाहता हूँ ,की इस हत्या का दोष हमारा है । अब्दुल रशीद जिस धर्मोन्माद से पीड़ित था, उसके लिए केवल मुसलमान ही नहीं, हिन्दू भी दोषी हैं ।”
स्वातंत्रवीर सावरकर जी ने उन्हीं दिनों २० जनवरी १९२७ के ‘श्रध्दानंद’ के अंक के अपने लेख में गाँधी द्वारा हत्यारे अब्दुल रशीद की तरफदारी की कड़ी आलोचना करते हुए लिखा –
गाँधी जी ने अपने-आपको को साधू-हृदय , ‘महात्मा’ तथा निस्पक्ष सिद्ध करने के लिए एक मजहबी उन्मादी हत्यारे के प्रति सुहानुभूति व्यक्त की है ।
मालाबार के मोपला हत्यारों के प्रति वे पहले ही ऐसी सहानुभूति दिखा चुके हैं ।
गाँधी ने स्वयं ‘हरिजन’ तथा अन्य पत्रों मैं लेख लिखकर
स्वामी श्रधानंद जी तथा आर्य समाज के ‘शुद्धि आन्दोलन ” की कड़ी निंदा की वहीं दूसरी ओर जगह जगह हिन्दुओं के जबरन धर्मांतरण के विरुद्ध उन्होंने एक भी शब्द कहने का साहस नहीं दिखाया।
खिलाफत आन्दोलन को भारत के राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा बनाकर गांधी ने कट्टरपंथी वर्ग को और बढ़ावा दे दिया तथा विशाल मुस्लिम समाज की मजहबी कट्टरता को संगठित होकर हिंसक आंदोलन के रास्ते पर बढ़ने का अवसर प्रदान किया।
अगर खिलाफत आन्दोलन नहीं होता तो मुस्लिम लीग
का वजूद एक छोटे क्षेत्रीय दल जैसा ही रहता और उसमें इतनी ताकत कभी नहीं आ पाती कि देश के बँटवारे की माँग करे और कभी बटवारा न हुआ होता।
हम कह सकते हैं की मोपला और खिलाफत
आन्दोलन के कारण ही मुस्लिम नेताओं को प्रोत्साहन और प्रेरणा मिली। देश का रक्तरंजित बँटवारा आखिर हुआ और हजारों नागरिकों का बेरहमी से कत्लेआम हुआ।
नोट - ये लेख पढ़कर जिसे दर्द हो वो इतिहास की किताबें पढ़ें। सभी तथ्य
किताबों से ही निकाले गये हैं और ये सब बोलने और लिखने वाले
बिके हुए नहीं थे ।
Peace if possible, truth at all costs.