भारतीय इतिहास का विकृतिकरण

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भारत के पुरातन साहित्य में, यथा- वेदों, पुराणोंआदि में ही नहीं रामायण, महाभारत और श्रीमद्भागवत् सरीखे ग्रन्थों में भी सरस्वती का स्मरण बड़ी गरिमा के साथ किया गया है। भारत भू के न केवल धार्मिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक ही वरन् ऐतिहासिक आदि परिवेशों में भी सरस्वती का बड़ा महत्त्व दर्शाया गया है। इस नदी के साथ भारतवासियों के अनेक सुखद और आधारभूत सम्बन्ध रहे हैं। इसके पावन तट पर भारतीय जीवन पद्धति के विविध आयामों का विकास हुआ है। इसके सान्निध्य में वेदों का संकलन हुआ है। ऋग्वेद के 2.41.16 में इसका उल्लेख मातृशक्तियों में सर्वोत्तम माता, नदियों में श्रेष्ठतम नदी और देवियों में सर्वाधिक महीयशी देवी के रूप में हुआ है-

अम्बितमे नदीतमे देवितमे सरस्वती ।अप्रशस्ता इव स्मसि प्रशस्तिमम्ब नस्कृधि ।।

यह 6 नदियों की माता सप्तमी नदी रही है। यह ‘स्वयं पयसा‘ (अपने ही जल से भरपूर) और विशाल रही है। यह आदि मानव के नेत्रोन्मीलन से पूर्व-काल में न जाने कब से बहती आ रही थी। वास्तव में सरस्वती नदी का अस्तित्व ऋग्वेद की ऋचाओं के संकलन से बहुत पहले का है। ऐसी महत्वपूर्ण नदी के आज भारत में दर्शन न हो पाने के कारण आधुनिकविद्वान इसके अस्तित्व को ही मानने से इन्कार करते आ रहे हैं किन्तु इस नदी के अस्तित्व का विश्वास तो तब हुआ जब एक अमेरिकन उपग्रह ने भूमि के अन्दर दबी इस नदी के चित्र खींचकर पृथ्वी पर भेजे। अहमदाबाद के रिसर्च सेन्टर ने उन चित्रों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि शिमला के निकट शिवालिक पहाड़ों से कच्छ की खाड़ी तक भूमि के अन्दर एक सूखी हुई नदी का तल विद्यमान है, जिसकी चौड़ाई कहीं-कहीं 6 कि.मी. है। उनका यह भी कहना है कि उस समय सतलुज और यमुना नदी इसी नदी में मिलती थी। सेटेलाइट द्वारा भेजे गए चित्रों से पूर्व भी बहुत से विद्वान इसी प्रकार के निष्कर्षों पर पहुँच चुके थे। राजस्थान सरकार के एक अधिकारी एन. एन. गोडबोले ने इस नदी के क्षेत्र में विविध कुओं के जल का रासायनिक परीक्षण करने पर पाया था कि सभी के जल में रसायन एक जैसा ही है। जबकि इस नदी के क्षेत्र के कुओं से कुछ फर्लांग दूर स्थित कुओं के जलों का रासायनिक विश्लेषण दूसरे प्रकार का निकला। अनुसंधान कर्ताओं ने यह भी पाया कि राजस्थान के रेत के नीचे बाढ़ की मिट्टी की मोटी तह है, जो इस बात की प्रतीक है कि यहाँ कोई बड़ी नदी वर्षानुवर्ष तक बहती रही है एवं उसी के कारण यह बाढ़ की मिट्टी यहाँ इकट्ठी हुई है। कुछ दिन पूर्व ही केन्द्रीय जल बोर्ड के वैज्ञानिकों को हरियाणाऔर पंजाब के साथ-साथ राजस्थान के जैसलमेर जिले में सरस्वती नदी की मौजूदगी के ठोस सबूत मिले हैं। (‘दैनिक जागरण‘, 10.1.2002)

ऐसी स्थिति में यह मान लिया जाना कि सरस्वती नदी का कोई अस्तित्त्व नहीं है उचित नहीं है। निश्चित ही यह भी एक भ्रान्ति ही है, जो भारत के इतिहास को ‘विकृत‘ करने की दृष्टि से जान बूझकर फैलाई गई है।

भारत का शासन समग्र रूप में एक केन्द्रीय सत्ता के अन्तर्गत केवल अंग्रेजों के शासनकाल में आया, उससे पूर्व वह कभी भी एक राष्ट्र के रूप में नहीं रहा

भारतवर्ष के संदर्भ में केन्द्रीय सत्ता का उल्लेख वेदों, ब्राह्मण ग्रन्थों, पुराणों आदि में मिलता है और यह स्वाभाविक बात है कि ग्रन्थों में उल्लेख उसीबात का होता है जिसका अस्तित्त्व या तो ग्रन्थों के लेखन के समय में हो या उससे पूर्व रहा हो। यद्यपि यह भी सही है कि आधुनिक मानदण्डों के अनुसार सत्ता का एक राजनीतिक केन्द्र समूचे देश में कदाचित नहीं रहा किन्तु अनेक ब्राह्मण ग्रन्थों और पुराणों में विभिन्न साम्राज्यों के लिए सार्वभौम या समुद्रपर्यन्त जैसे शब्दों का प्रयोग मिलता है। इस बात के उल्लेख भी प्राचीन ग्रन्थों में मिलते हैं कि अनेक चक्रवर्ती सम्राटों ने अश्वमेध, राजसूय या वाजपेय आदि यज्ञ करके देश में अपनी प्रभुसत्ताएँ स्थापित की थीं। इसीप्रकार से कितने ही सम्राटों ने दिग्विजय करके सार्वभौम सत्ताओं का निर्माण भी किया था। ऐसे सम्राटों में प्राचीन काल के यौवनाश्व अश्वपति, हरिश्चन्द्र, अम्बरीश, ययाति, भरत, मान्धाता, सगर, रघु, युधिष्ठिर आदि और अर्वाचीन काल के महापद्मनन्द, चन्द्रगुप्त मौर्य, अशोक आदि के नाम गिनाए जा सकते हैं।

यह उल्लेखनीय है कि प्राचीन भारतीय राजनीतिक मानदण्डों के अनुसार केवल वे ही शासक चक्रवर्ती सम्राट की पदवी पाते थे और वे ही अश्वमेध आदि यज्ञ करने के अधिकारी होते थे, जिनका प्रभुत्व उस समय के ज्ञात कुल क्षेत्र पर स्थापित हो जाता था। प्रकारान्तर से यह प्राचीन भारतीय परिवेश और मानदण्डों के अनुसार केन्द्रीय सार्वभौम सत्ता का ही द्योतक है अतः पाश्चात्यों की उपरोक्त मान्यता तत्त्वतः सही नहीं है।

सांस्कृतिक दृष्टि से तो प्रारम्भ से ही भारत एक राष्ट्र के रूप में रहा है। यहाँ के अवतारी पुरुष, यहाँ के महापुरुष, यहाँ का इतिहास, यहाँ की भाषाएँ,यहाँ के त्यौहार, यहाँ के मठ-मन्दिर, यहाँ की सामाजिक मान्यताएँ, यहाँ के मानबिन्दु आदि देश के सभी भागों, सभी राज्यों और सभी क्षेत्रों के निवासियों को जहाँ एक संगठित और समान समाज के अंग बनाने में सहायक रहे हैं वहीं उनमें यह भावना भी भरते रहे हैं कि वे सब एक ही मातृभूमि या पितृभूमि की सन्तान हैं। यह भी ध्यान देने की बात है कि राष्ट्र एक सांस्कृतिक अवधारणा है। इस दृष्टि से विचार करने पर पाश्चात्यों तथा उनके परिवेश में ढले-पले भारतीय विद्वानों द्वारा प्रस्तुत यह विचार कि भारत राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में है या यह देश प्रशासनिक दृष्टि से कभी एक केन्द्रीय सत्ता के अधीन नहीं रहा, न केवल भ्रामक सिद्ध होता है अपितु इस राष्ट्र के तेजोभंग करने के उद्देश्य से गढ़ा गया प्रतीत होता है। राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक किसी भी दृष्टि से क्यों न हो गहराई से विचार करने पर यह स्वार्थवश और जानबूझ कर फैलाया गया मात्र एक भ्रम लगता है क्योंकि भारत के प्राचीन ग्रन्थ अथर्ववेद में कहा गया है - ‘माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः‘ (अ. 12.1.12) अर्थात यह भूमि हमारी माता है और हम इसके पुत्र हैं। अथर्ववेद के 4.2.5 के अनुसार हिमालय से समुद्र पर्यन्त फैला हुआ क्षेत्र भारत का ही था। विष्णुपुराण के 2.3.1 में कहा गया है- हिमालय के दक्षिण और समुद्र के उत्तर का भाग भारत है और उसकी सन्तान भारतीय हैं।

महाभारत के भीष्म पर्व के अध्याय 9 में भारत भूमि के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए उसे एक राष्ट्र के रूप में ही चित्रित किया गया है। तमिल काव्य संग्रह ‘पाडिट्रूप्पट्ट‘ में दी गई विभिन्न कविताएँ भी इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं जिनमें देश का वर्णन कन्याकुमारी से हिमालय तक कहकर किया गया है।

सदियों से ऋषि-महर्षि, साधु-सन्यासी, योगी-परिव्राजक, दार्शनिक-चिन्तक, कवि-लेखक आदि सबने इस देश को सदा-सर्वदा ही एक देश माना है। दक्षिण में पैदा हुए शंकराचार्य कश्मीर और असम क्यों गए और उन्होंने देश के चार कोनों में चार धाम क्यों स्थापित किए ? क्या इसीलिए नहीं कि वे इस देश को एक मानते थे ? असम के सन्त शंकरदेव और माधवदेव ने भी भारतवर्ष की बात की है -

धन्य-धन्य कलिकाल, धन्य नर तनुमाल धन्य जन्म भारतवरिषे।

इससे यह निष्कर्ष सहज ही में निकल आता है कि कन्याकुमारी से हिमालय तक फैले समस्त क्षेत्र में रहने वालों के लिए सदा से ही भारतवर्ष जन्मभूमि, कर्मभूमि और पुण्यभूमि रहा है और उनके लिए इस देश का कण-कण पावन, पूज्य और पवित्र रहा है फिर चाहे वह कण भारत के उन्नत ललाट हिमगिरि के धवल हिम शिखरों का हो या कन्याकुमारी पर भारत माँ के चरण प्रक्षालन करते हुए अनन्त सागर की उत्ताल तरंगों का।

भारत की इस समग्रता को और यहाँ के रहने वालों की इस समस्त भूमि के प्रति इस भावना को देखते हुए यह विचार कि भारत का शासन अंग्रेजों के आने से पूर्व समग्र रूप में कभी भी एक केन्द्रीय सत्ता के अधीन नहीं रहा और भारत कभी एक राष्ट्र के रूप में नहीं रहा, वह तो राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में है, मात्र एक भ्रान्ति ही है जो जान बूझकर फैलाई गई है और आज भी फैलाई जा रही है।

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रघुनन्दन प्रसाद शर्मा✍🏻

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