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1962 की लड़ाई भारत नहीं हारा, हमारी फौज भी नहीं हारी, नेहरू की नोबेल-पुरस्कार-प्रेरित पंचशीली मूर्खता हारी और ड्रैगन की मक्कारी जीती। 2017 की लड़ाई का पहला चरण--माइंड गेम--तो भारत बिना लड़े ही जीत गया है। दूसरे चरण की लड़ाई-- आयातित माल पर एंटी-डंपिंग ड्यूटी-- ड्रैगन के बूते की है ही नहीं , इसलिए वह बिलबिला रहा है क्योंकि 62 अरब डॉलर के गोल होने का ख़तरा है। तीसरे चरण की लड़ाई के लिए वह न मानसिक रूप से तैयार है, न सैन्य रूप से और न ही कूटनीतिक रूप से। उधर भारत के जवान और किसान असली युद्ध के लिए तड़प रहे रहे हैं। युद्ध हुआ तो पाक के चार टुकड़े, PoK की समस्या खतम, भारत की जमीन वापस, तिब्बत को आज़ादी और ड्रैगन की धौंस भी फुर्र-फाख्ता। सबसे बड़ी बात , भारत का गौरव वापस और सेकुलर-वामी-जेहादी गिरोह का लोमड़ी-विलाप खतम।
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22 जुलाई की एक पोस्ट:
यह युद्ध भारत को आत्मविश्वास से भर देगा
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चीन के साथ युद्ध भारत को आत्मविश्वास से भर देगा।जयचंद-मीरज़ाफ़रों का तो सफाया ही समझिए। इस युद्ध के आसार कम हैं क्योंकि दूरगामी लाभ भारत के खाते में जाते हैं, फिर चीन और चीन के भारत में बसे एजेंट ऐसा क्यों चाहेंगे?
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बिना युद्ध के चीन को पीछे छोड़ने में भारत को अगर 30 साल लगते तो युद्ध के बाद 20 साल भी नहीं लगेंगे क्योंकि तब भारत का मन सही अर्थों में भयमुक्त और बौद्धिक रूप से स्वतंत्र होगा।
इसलिए सिर्फ फौज और राजनैतिक नेतृत्व ही नहीं बल्कि देश के जन-जन को चीन को दुश्मन नंबर एक मानते हुए तन-मन-धन से इस महायज्ञ की तैयारी में लग जाना चाहिए।
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गाँठ बाँध लीजिए कि चीन के साथ युद्ध एक सृजनात्मक ध्वंस साबित होगा जो नये भारतवर्ष का शंखनाद करेगा। अहिंसा को कायरता की हदतक महिमामंडित करनेवाले सदाबहार बुद्धिविलासी इस बात को समझने में असमर्थ हैं कि 100 करोड़ मोबाइल कनेक्शन पर सवार भारत दुनिया में अपनी हनक स्थापित करने के लिया कितना खलबला रहा है। इस काम के लिए पहला पड़ाव है एक अदद दुश्मन का चुनाव और भारत ने चीन को अपना दुश्मन नंबर एक घोषित कर रणनीतिक जीत का डंका पहले ही पीट दिया है।
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युद्ध के हथियार से ज्यादा जरूरी है युद्ध की जरुरत में अकुंठ विश्वास, युद्ध में कोई भी कसर न उठा रखने का संकल्प, कुछ लड़ाइयाँ हारने पर भी युद्ध को जीतने की जिद और जमीन पर लच भी गए तो राणा प्रताप की तरह कभी न हारनेवाला मन। आज के युवा भारत में वह सब कुछ है जो युद्ध के लिए जरूरी है और जो बूढ़े होते तानाशाही चीन में तेजी से तिरोहित होता जा रहा है।
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पाकिस्तान ने जब भी हमला किया उसके पास हिन्दुस्तान से बेहतर हथियार थे फिर भी मैदान में हारा क्योंकि उसके फौजी लीडरान ऐय्याश थे, कामचोर थे और पाकिस्तानी सम्मान से ज्यादा जेहाद-प्रेरित थे; जेहाद और इस्लाम वैश्विक अवधारणा होने के कारण युद्ध की स्थानीय और तात्कालिक जरुरत को कमतर करके आँकते हैं। इसके उलट भारत के युवा मन को चीन के साथ युद्ध की तात्कालिकता पर न सिर्फ विश्वास है बल्कि वह युद्ध के लिए उत्सर्ग करने को उद्धत है।
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क्यों उद्धत है भारत का युवा आज चीन से युद्ध के लिये? क्योंकि भारत के राष्ट्रीय नवजागरण को कुचला गया है भारतीय बुद्धिजीवियों द्वारा--पहले अंग्रेज़ों की मदद से और आजादी के बाद अंग्रेजियत की गुलाम सरकारों और नौकरशाही की मदद से। राणा प्रताप-शिवाजी-गुरुगोविंद सिंह-तिलक-अरविन्द-लाला लाजपतराय-भगतसिंह-आजाद-नेताजी-बादशाह खान की परम्परा को अपमानित किया गया है, पीढ़ी- दर -पीढ़ी को हीनभावना का शिकार बनाया गया है, भारत की आत्मा को घायल किया गया है। लेकिन इंटरनेट-मोबाइल-सोशल मीडिया पर सवार लोकतांत्रिक भारत के युवाओं ने इस भारतीयता-विरोधी साज़िश को अब पूरी तरह पहचान लिया है और इसे नेस्तनाबूद करने के लिए वे दिलोजान से लग गए हैं।
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इतिहास की बात करें तो वियतनाम, कोरिया और जापान ने चीन को नाकों चने चबा दिए हैं। अपना पड़ोसी नेपाल चीन को हरा चुका है। मंगोलिया तो रौंद चुका है।
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Peace if possible, truth at all costs.