ऐसे में उनका अंगरक्षक होना,
या हथियारों और मल्ल युद्ध का शिक्षक होना तो संभव ही नहीं⁉
फिर भी भारत में घूम कर देखें
तो
आज ज्येष्ठी मल्ल गुजरात, मैसूर, हैदराबाद और राजस्थान में होते हैं | ✔
बड़ोदा में आज भी कुछ ज्येष्ठी मल्ल अपने अखाड़े चलते हैं ✔
ये मोधा ब्राह्मणों के कुल से होते हैं और पारंपरिक रूप से कृष्ण भक्त भी हैं ✔
बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी में जब इनका जिक्र आता है …
तो इन्हें आयुधजीवी ब्राह्मण बताया गया है ✔
मतलब
वो ब्राह्मण
जो शस्त्रों के जरिये अपनी आजीविका चलाते हैं ✔
सोलहवीं शताब्दी तक भी इनके मल्ल होने का ही लिखा जाता है ✔
आज भी गुजरात में
अगर दो लोगों में गंभीर लड़ाई हो जाये,
तो कहते हैं
कि वो ज्येष्ठीमल्लों जैसा भिड गए ✔
बारातों के रक्षकों
और राजाओं,
राजकुमारों के अंगरक्षकों के तौर पर
इनका इतिहास बहुत पुराना है✔
✖अब इनकी कला धीरे धीरे लुप्त हो चली है
इसलिए
आपने शायद इनका जिक्र ना सुना हो |
✖अब ना राजा रहे
ना उनके अंगरक्षकों में ज्येष्ठीमल्ल नियुक्त होते हैं,
✖इसलिए
इन्हें प्रश्रय देने वाला कोई नहीं रहा |
अब
केवल मैसूर के दुर्गा पूजा उत्सव में ज्येष्ठीमल्ल नजर आते हैं |
इनकी लड़ाई
का तरीका इसलिए ख़ास होता है
क्योंकि इनके परंपरागत तरीके में सिर्फ सर और छाती पर वार किया जाता है |
उस से नीचे प्रहार निषिद्ध है |
अपने दाहिने हाथ में ये वज्रमुष्टि पहनते हैं |
वही जिसे आम तौर पर Knuckle Duster कहा जाता है |
शायद फिल्मों में आपने देखा होगा |
पुराने ज़माने में ये
भैंस की सींग, हाथी दांत,
लकड़ी, लोहे सबसे बनता था |
आज ये
आम तौर पर सिर्फ लोहे का होता है |
युद्धों में इस्तेमाल
होने वाली वज्रमुष्टि में,
किनारे की तरफ धारदार नोक भी होती थी |
ऐसे ही हथियार का जिक्र पुराने ग्रीक साहित्य में भी आता है |
अभ्यास के लिए
हाथों को जकड़ लेने के कई तरीके ज्येष्ठीमल्लों को सिखाये जाते हैं |
प्रहारों से सुरक्षा के लिए भी कई दावं पेंच हैं |
इस युद्ध में घुटनों और कोहनी का भी इस्तेमाल होता है |
अभ्यास या प्रदर्शन के लिए होने वाली लड़ाइयों में छाती से नीचे प्रहार नहीं किया जाता |
जिन पुराणों में
इनका जिक्र है उनमे से एक है मल्लपुराण |
✖पीढ़ी दर पीढ़ी
आगे आते आते ये ग्रन्थ आज जरा लुप्तप्राय हो गया है …
लेकिन 1731 की इसकी एक देवनागरी में लिखी प्रति
अभी भी ओरिएण्टल रिसर्च इंस्टिट्यूट,
पुणे में देखी जा सकती है ✔
इस ग्रन्थ में
अन्य तरीकों के अलावा ज्येष्ठीमल्लों की कला का जिक्र भी है |
वज्रमुष्टि के उनके इस्तेमाल का जिक्र भी पाया जाता है |
ये शब्द ज्येष्ठ यानि सबसे बड़े,
सबसे उत्तम से निकल कर आया है |
कई अन्य हिन्दुओं के ग्रंथों की तरह ही मल्लपुराण में भी अठारह अध्याय हैं
और ये
कुश्ती के दाँव पेंच से लेकर,
आहार विहार तक,
हर चीज़ बताती है ✔✔
जो प्रमुख विधाएं
मल्लपुराण में हैं, उनमें हैं :
रंगाश्रम –
ये सीधा कुश्ती के दाँव पेंच हैं | विरोधी को पटकने से लेकर पटके जाने पर कैसे बचाव करें वो तरीके इस हिस्से में हैं |
स्तम्भाश्रम -
मल्लखंभ नाम की जो विधा एक खम्भे पर जिमनास्ट जैसा आपने कभी देखा होगा,
वो इसी हिस्से में है |
गोनितका –
ये एक भारी भरकम छल्ला होता था तो कई किस्म की कसरतों में काम आता था |
कई बार इसे गले और पीठ को मजबूत करने के लिए घंटों गले में टाँगे रखा जाता था |
प्रमदा – गदा और मुग्दर जैसे शस्त्रों के इस्तेमाल की कला इस हिस्से में है |
मुग्दर लगभग सभी भारतीय अखाड़ों में अभी भी होता है |
कुंडकवर्तन –
दंड बैठक जैसे बिना औजार के होने वाले कसरतों का वर्णन करता है |
उपाहोहाश्रम –
किसी कठिन परिस्थिति,
किसी दाँव में फंस जाने पर अपने को छुड़ाने की कला |
इस के हिसाब से प्रशिक्षण करीब दस वर्ष की आयु में शुरू होता था |
शुरू में ताकत और लम्बे समय तक श्रम करने की विधा पर ध्यान होता था (बल-अतिबल) |
बैठक और दंड,
ख़ास तौर पर push up के भारतीय प्रकार पर जोर दिया जाता था |
उसके बाद छात्र को मल्लखंभ पर अभ्यास करने दिया जाता था
ताकि उसकी पकड़ और शरीर पर नियंत्रण बेहतर हो |
दौड़ना और तैराकी भी इन अभ्यासों में शामिल था |
इसके बाद अखाड़े में ही दाँव पेंचों का अभ्यास शुरू होता था |
अखाड़ा करीब दस गज के व्यास का गोल घेरा सा होता था, कभी कभी चौकोर भी होता था |
लगभग हर तीसरे दिन अखाड़े में पानी छिड़का जाता था,
मौसम के हिसाब से और
तेल, छाछ जैसी चीज़ें भी
मिटटी में डाल कर उसे नर्म रखने का विधान था |
ध्यान रहे
कि जिन विधाओं पर किताबें लिखी जा सके …
उनके बनने में सदियाँ लगती हैं‼
ख़त्म होने में पांच दस साल‼
भारत चूँकि
श्रुति की परम्पराओं पर चलता है और परिवार एक पेशे को आगे बढ़ाता है …
इसलिए ये युद्ध कलाएं अभी बची हुई हैं‼
✖ अंग्रेजों के बनाये
आर्म्स एक्ट के कारण भारत की सामरिक कलाओं का बहुत तेजी से लोप हुआ है |
इन कलाओं को पुनर्जीवित करने में कोई बहुत से साल नहीं लगने वाले ✔
कुंग फु और शाओलीन टेम्पल का नाम पिछले 30-40 साल में ही दुनियां के सामने आया है |
ब्रूस ली से पहले कोई जुडो कराटे का नाम भी नहीं जानता था |
बाकी
अब ये हमपर है
कि हम इन भारतीय परम्पराओं को कितने दिन
और जिन्दा रख सकते हैं |
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विभिन्न स्रोतों के आधार पर जनसँख्या और मंदिरों का अनुपात देखें …
तो मात्र 7 प्रतिशत ब्राह्मण मंदिरों पर आश्रित थे ✔
तो प्रश्न उठता है…
कि 93 प्रतिशत ब्राह्मणों की जीविका
का स्रोत क्या था⁉⁉
#हिन्दू_धर्म #हिन्दू #जय_हिन्दूत्व #जय_श्रीराम #जय_हिन्द #ब्राह्मण,
Peace if possible, truth at all costs.