भारतीय इतिहास का विकृतिकरण

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कल बात कर रहे थे इतिहास पुरुषों के कालावधि को विकृत करने की आज आदि शंकराचार्य के बारे में

आचार्य शंकर के जन्मकाल में भी लगभग 1300 वर्ष का ही अन्तर पाश्चात्य और भारतीय आधारों से आता है। पाश्चात्य विद्वानों ने यूँ तो आचार्य शंकर के जन्म के सम्बन्ध में बहुत सारी तिथियाँ दी हैं किन्तु अधिकतर विद्वान 788 ई. पर सहमत हैं। (इस संदर्भमें विस्तृत जानकारी के लिए सूर्य भारती प्रकाशन, नई सड़क, दिल्ली-6 द्वारा प्रकाशित लेखक की पुस्तक ‘भारतीय एकात्मता के अग्रदूत आद्य जगद्गुरु शंकराचार्य‘ देखें) जबकि भारतीय (शंकर मठ)परम्परा के अनुसार उनका जन्मकाल 509 ई. पू. बनता है। द्वारका और कांची कामकोटि पीठ के पीठाधिपतियों की सूचियों में प्रत्येक आचार्य का नाम, गद्दी पर बैठने का वर्ष और कितने वर्ष वे गद्दी पर रहे, इन सबका पूरा वर्णन दिया गया है। आचार्य शंकर की जन्मतिथि की दृष्टि से वे सूचियाँ बहुत महत्वपूर्ण हैं।

अन्तर्साक्ष्य अर्थात आचार्य जी की अपनी रचनाओं के संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि उन्होंने अपनी किसी भी रचना में न तो अपने सम्बन्ध में और नही किसी रचना विशेष के रचनाकाल के सम्बन्ध में ही कुछ लिखा है। आचार्य शंकर के सम्बन्ध में यह भी उल्लेखनीय है कि उन्होंने अपने समस्त साहित्य में कहीं भी यवनों के आक्रमण और भारत में उनके निवासके सम्बन्ध में कुछ भी नहीं लिखा है जबकि अनेक विद्वानों द्वारा आचार्य जी का आविर्भाव काल ईसा की आठवीं शताब्दी से लेकर नौवीं शताब्दी तक माना गया है। यदि आचार्य जी इस अवधि में अवतरित हुए होतेतो उनकी किसी न किसी रचना में किसी न किसी रूप में मुसलमानों का उल्लेख अवश्य रहा होता क्योंकि मुसलमानों के सिन्ध प्रदेश पर आक्रमण ईसा का 7वीं शताब्दी के अन्त में होने शुरू हो गए थे एवं आक्रमण के पश्चात काफी मुसलमान वहीं रहने भी लगे थे। कोई भी विचारक या लेखक अपनी समकालीन स्थितियों से आँख मूंदकर नहीं रह सकता। उसकी रचनाओं में तत्कालीन स्थिति का उल्लेख किसी न किसी रूप में आ ही जाता है। अतः यह तो निश्चित है कि आचार्य जी का जन्म छठी शताब्दी से पूर्व ही हुआ है।यदि ऐसा है तो स्वामी चिद्सुखाचार्य जी की रचना, मठों की आचार्य-सूचियाँ, पौराणिक तिथिक्रम आदि पुष्ट आधारों पर निर्मित 509 ई. पू. को ही शंकराचार्य जी की जन्म तिथि मानना उचित होगा। इस तिथि की पुष्टि ‘नेपाल राजवंशावली‘ से भी होती है।

अशोक ने 265 ई.पू. में शासन संभाला- सम्राट अशोक को भारत के इतिहास में ही नहीं विश्व के इतिहास में जो महत्वपूर्ण स्थान मिला हुआ है, वह सर्वविदित है। आज अशोक का नाम संसार केमहानतम व्यक्तियों में गिना जाता है। इसकी प्रसिद्धि का मुख्य कारण उसके द्वारा चट्टानों और प्रस्तरस्तम्भों पर लिखवाए गए वे अजर-अमर शिलालेख हैं, जो सम्पूर्ण राज्य में इतस्ततः विद्यमान रहे हैं किन्तु उनसे उसके व्यक्तिगत जीवन अर्थात जन्म, मरण, माता-पिता के नाम, शासनकाल आदि के सम्बन्ध में कोई विशेष जानकारी सुलभ नहीं हो पाती। यह भी उल्लेखनीय है कि उन शिलालेखों में सेअशोक का नाम केवल एक ही छोटे शिलालेख में मिलता है। शेष पर तो ‘देवानांप्रिय‘ शब्द ही आया है। अतः इससे यह पता नहीं चल पाता कि यह नाम वास्तव में कौन से अशोक का है क्योंकि भारत में भिन्न-भिन्न कालों में अशोक नाम के चार राजा हुए हैं, यथा-

पहला अशोक - कल्हण की ‘राजतरंगिणी‘ के अनुसार कश्मीर के राजाओं की सूची में 48वें राजा का नाम ‘अशोक‘ था, जो कि कनिष्क से तीन पीढ़ीऊपर था। वह कश्मीर के गोनन्द राजवंश का था और उसको धर्माशोक भी कहते थे।दूसरा अशोक - पुराणों के अनुसार मौर्य वंश का तीसरा राजा अशोकवर्धन था। यह चन्द्रगुप्त मौर्य का पौत्र था। इसने बाद में बौद्ध धर्म अपनाकर धर्म-प्रचार के लिए बहुत कार्य किया था।तीसरा अशोक - गुप्त वंश के दूसरे राजा समुद्रगुप्त ने अपना उपनाम अशोकादित्य रखा हुआ था। अनेक स्थानों पर उसको मात्र ‘अशोक‘ ही कहा गयाहै। वह बड़ा ही साहसी तथा वीर राजा था। उसने सम्पूर्ण देश में बड़े व्यापक स्तर पर विजय अभियान चलाया था।चौथा अशोक चौथा अशोक - पुराणों के अनुसार शिशुनाग वंश के दूसरे राजा का नाम अशोक था। वह शिशुनाग का पुत्र था। उसका रंग अधिक काला होने से उसे कालाशोक या ‘काकवर्णा‘ नाम से भी पुकारा जाता था।

बौद्ध ग्रन्थों में यद्यपि अशोक के सम्बन्ध में बड़े विस्तार से चर्चा की गई है किन्तु उनके वर्णन एक-दूसरे से भिन्न हैं। इस संदर्भ में आचार्य रामदेव का कहना है कि बौद्ध लेखकों ने अशोकादित्य (समुद्रगुप्त) और गोनन्दी अशोक (कश्मीर) दोनों कोमिलाकर एक चक्रवर्ती अशोक की कल्पना कर ली है।

-- (‘भारतवर्ष का इतिहास‘, तृतीय खण्ड, प्रथम भाग, पृ.41)

इस स्थिति में यह निष्कर्ष निकाल पाना कि इनमें से बौद्ध धर्म-प्रचारक देवानांप्रिय अशोक कौन सा है, कठिन है। जहाँ तक अशोक के 265 ई. पू. में गद्दी पर बैठने की बात है, इस सम्बन्ध में भी अनेक मत हैं -

मैक्समूलर - 850 ई. पू. (चीनी विवरण) और 315 ई. पू. (सीलोनी विवरण)फ्लीट - 1260 ई. पू. (राजतरंगिणी)भारतीय कालगणना - 1472 ई. पू.

यहाँ उल्लेखनीय है कि पौराणिक कालगणना के अनुसार अशोक मौर्य के राज्य के लिए निकले 1472 से 1436 ई. पू. के काल में और ‘राजतरंगिणी‘ के आधार पर धर्माशोक के लिए निकले राज्यकाल 1448 से 1400 ई. पू. में कुछ-कुछ समानता है। जबकिभारत के इतिहास को आधुनिक रूप में लिखने वाले इतिहासकारों द्वारा निकाले गए 265 ई. पू. के कालसे कोई समानता ही नहीं है। उक्त विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि वर्तमान इतिहासकारों द्वारा अशोक के सम्बन्ध में निर्धारित काल-निर्णय भी बहुत उलझा हुआ है। अतः 265 ई. पू. में वह गद्दी पर बैठा ही था, यह निश्चित रूप से नहीं माना जा सकता। जहाँ तक आधुनिकरूप में भारत का इतिहास लिखने वालों और भारतीय पौराणिक आधार पर कालगणना करने वालों की अशोक के राज्यारोहण की तिथि का प्रश्न है, दोनों में लगभग 1200 वर्ष का अन्तर आ जाता है।

लेखक:-
रघुनन्दन प्रसाद शर्मा

कल कुछ और इतिहास पुरूषों की बातें .........

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