भारतीय इतिहास का विकृतिकरण

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कल के पोस्ट से आगे

भारत के इतिहास को आधुनिक रूप में लिखने की दृष्टि से कुछ पाश्चात्य विद्वानों ने यद्यपि आवश्यक सामग्री जुटाने के लिए पहले भारतीय ग्रन्थों की ओर ध्यान दिया तो अवश्य किन्तु लक्ष्य भिन्न होने से वे ग्रन्थ उन्हें अपनी योजना में सहायक प्रतीतनहीं हुए। अतः उन्होंने भारत के संदर्भ में विदेशियों द्वारा लिखे गए ऐसे साहित्य पर निगाह डालनी प्रारम्भ कीजो उनके उद्देश्य की पूर्ति में सहयोग दे सके। इस प्रयास में उन्हें यूनानी साहित्य में कुछ ऐसे तथ्य मिल गए जो उनके लिए उपयोगी हो सकते थे किन्तु वे तथ्य अपूर्ण, अस्पष्ट और अप्रामाणिक थे। अतः पहले तो उन्होंने सारा जोर उन्हें पूर्ण रूप से सत्य, स्पष्ट और प्रामाणिक सिद्ध करने में लगाया। अपनी बातों की युक्तिसंगत बनाने के लिए उन्हें कई प्रकार की नई-नई कल्पित कथाएँ बनानी पड़ीं। यह कल्पना भी उन्हीं में से एक है।

पाश्चात्य इतिहासकारों की इस कल्पना की पुष्टि न तो पुराणों सहित भारतीय साहित्य या अन्य स्रोतों से ही होती है और न ही यूनानी साहित्य कोछोड़कर भारत से इतर देशों के साहित्य या अन्य स्रोतों से होती है। स्वयं यूनानी साहित्य में भी ऐसे अनेक समसामयिक उल्लेखों का, जो कि होने ही चाहिए थे, अभाव है, जिनसे आक्रमण की पुष्टि हो सकती थी। यूनानी विवरणों के अनुसार ईसा की चौथी शताब्दी में यूनान का राजा सिकन्दर विश्व-विजय की आकांक्षा से एक बड़ी फौज लेकर यूनान से निकला और ईरान आदि को जीतता हुआ वह भारत के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र केपास आ पहुँचा। यहाँ उसने छोटी-छोटी जातियों और राज्यों पर विजय पाई। इन विजयों से प्रोत्साहित होकर वह भारत की ओर बढ़ा, जहाँ उसकी पहली मुठभेड़ झेलम और चिनाव के बीच के छोटे से प्रदेश के शासक पुरु से हुई। उसमें यद्यपि वह जीत गया किन्तु विजय पाने के लिए उसे जो कुछ करना पड़ा, उससे तथा अपने सैनिकों के विद्रोह के कारण उसका साहस टूट गया और उसे विश्व-विजय के अपने स्वप्न को छोड़कर स्वदेश वापस लौट जाना पड़ा।

यूनानी इतिहासकारों ने इस घटना को जहाँ बहुत बढ़ा-चढ़ा कर चित्रित किया है वहीं भारत के इतिहास को आधुनिक रूप में लिखने वाले पाश्चात्य इतिहासकारों द्वारा भी इसे इतना महत्वपूर्ण मान लिया गया कि इसके आधार पर 327 ई. पू. में सिकन्दर के आक्रमण के समय सेंड्रोकोट्टस के रूप में चन्द्रगुप्त मौर्य को जीवित मानकर आक्रमण के पश्चात 320 ई. पू. को उसके राज्यारोहण की तिथि घोषित करके उसके भारत सम्राट बनने की भी बात कर दी। यही नहीं, इस तिथि के आधार पर भारत के सम्पूर्ण प्राचीन इतिहास के तिथिक्रम की भी कल्पना कर डाली किन्तु यह युद्ध हुआ भी है या नहीं, इस विषय में विभिन्न विद्वानों के मत अलग-अलग हैं। यदि यह युद्ध हुआ ही नहींतो 320 ई. पू. में चन्द्रगुप्त मौर्य का भारत सम्राट बनना कैसे संभव हो सकता है?

इस आक्रमण की स्थिति भारत तथा भारतेतर देशों केसाक्ष्यों से इस प्रकार बनती है-

भारतीय साक्ष्य

ऐतिहासिक - भारत के इतिहास का जो ब्योरा विभिन्न पुराणों तथा संस्कृत और अन्य भारतीय भाषाओं के अनेक ग्रन्थों में दिया हुआ है उसमें इस आक्रमण का कोई उल्लेख नहीं मिलता। अतः भारत के इतिहास की दृष्टि से इसे प्रामाणिक मानना कठिन है।

साहित्यिक- भारत की तत्कालीन साहित्यिक रचनाएँ, यथा- वररुचि की कविताएँ, ययाति की कथाएँ, यवकृति पियंगु, सुमनोत्तरा, वासवदत्ता आदि, इस विषय पर मौन हैं। अतः इस प्रश्न पर वे भी प्रकाश डालने में असमर्थ हैं। यही नहीं, पुरु नाम के किसी राजा का भारतीय साहित्य की किसी भी प्राचीन रचना में कोई भी उल्लेख कहीं भी नहीं मिलता और मेगस्थनीज का तो दूर-दूर तक पता नहीं है। हाँ, हिन्दी तथा कुछ अन्य भारतीय भाषाओं के कतिपय अर्वाचीन नाटकों में अवश्य ही इस घटना का चित्रण मिलता है।

साहित्येतर ग्रन्थ - साहित्यिक ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य विभिन्न विषयों, यथा- आयुर्वेद, ज्योतिष, राजनीति, समाजनीति आदि के ग्रन्थों में भी, जिनमें भारत के अनेक ऐतिहासिक संदर्भ मिलते हैं, इसका उल्लेख नहीं मिलता। चाणक्य का अर्थशास्त्र, पतंजलि का महाभाष्य आदि ग्रन्थ भी इस विषय पर मौन हैं।

भारतेतर देशों के साक्ष्य

साहित्यिक

पड़ोसी देशों का साहित्य पड़ोसी देशों का साहित्य - उस समय के भारतवर्ष के वाङ्मय में ही नहीं, तत्कालीन त्रिबिष्टक (तिब्बत), सीलोन (श्रीलंका) तथा नेपाल के ग्रन्थों मेंभी भारत पर सिकन्दर के आक्रमण के बारे में ही नहीं स्वयं तथाकथित विश्व-विजय के आकांक्षी सिकन्दर के बारेमें भी कोई उल्लेख नहीं मिलता।

यूनानी साहित्य - विभिन्न यूनानी ग्रन्थों में उपलब्ध मेगस्थनीज के कथनों के अंशों में तथा टाल्मी, प्लिनी, प्लूटार्क, एरियन आदि विभिन्न यूनानी लेखकों की रचनाओं में सिकन्दर के आक्रमण के बारे में विविध उल्लेख मिलते हैं। इन्हीं में सेंड्रोकोट्टस का वर्णन भी मिलता है किन्तु वह चन्द्रगुप्त मौर्य है, इस सम्बन्ध में किसी भी ग्रन्थ में कोई उल्लेख नहीं हुआ है। यह तो भारतीय इतिहास के अंग्रेज लेखकों की कल्पना है। यदि वास्तव में ही सेंड्रोकोट्टस चन्द्रगुप्त मौर्य होता और उसके समय में ही यूनानी साहित्य लिखा गया होता तो उसमें अन्य अनेक समसामयिक तथ्य भीहोने चाहिए थे, जो कि उसमें नहीं हैं। इससे चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में आक्रमण हुआ था, इस पर प्रश्नचिन्ह् लग जाता है। इस दृष्टि से निम्नलिखित तथ्य विचारणीय हैं-

नन्द का कोई उल्लेख नहीं नन्द का कोई उल्लेख नहीं- सिकन्दर के आक्रमण के समय भारत सम्राट के पद पर महापद्मनन्द का नाम लिया जाता है किन्तु उस नन्द के बारेमें यूनानी साहित्य में कुछ भी लिखा हुआ नहीं मिलता। सभी लेखकों की रचनाएँ इस विषय पर मौन हैं।जैन्ड्रेमस (Xandrammes) का उल्लेख अवश्य मिलता है किन्तु इस शब्द का नन्द से न तो ध्वनि-साम्य है और न ही किसी और प्रकार से समानता है।इस सम्बन्ध में यह भी उल्लेखनीय है कि भले ही जोन्स आदि ने यह माना हो कि सिकन्दर के आक्रमण के समय मगध की गद्दी पर नन्द बैठा हुआ था किन्तु इलियट के ‘भारत का इतिहास‘, भाग-1, पृ. 108-109 के अनुसार सिकन्दर के हमले के समय ‘हल‘ नाम का राजा गद्दी पर था। भारतीय पौराणिक तिथिक्रम के अनुसार हल का राज्यकाल लगभग 490ई. पू. में बैठता है। अतः इस सम्बन्ध में निश्चय से नहीं कहा जा सकता कि सिकन्दर का हमला कब हुआथा ?टी. एस. नारायण शास्त्री का सिकन्दर के आक्रमण के सम्बन्ध में कहना है कि यद्यपि स्मिथ और उनके अन्य प्रशंसकों ने सिकन्दर के झेलम तक आने का उल्लेख किया है किन्तु वह वास्तव में तक्षशिला से आगे भारत में कभी आया ही नहीं। वहीं उसके सिपाहियों ने रोना-धोना शुरू कर दिया था। अतः उसके सतलुज तक आने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता (‘एज ऑफ शंकर‘ (1917 ई.), भाग-1, पृष्ठ 96-97)चाणक्य का कोई उल्लेख नहीं- भारतीय स्रोतों के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य को राजगद्दी अपने गुरु चाणक्य के प्रयत्नों के फलस्वरूप मिली थी। वह चन्द्रगुप्त मौर्य का गुरु, महामंत्री और देश की राजनीति की धुरी था लेकिन तत्कालीन यूनानी साहित्य में चाणक्यका कहीं भी, किसी भी प्रकार का और कोई भी उल्लेख नहीं मिलता।
उक्त समसामयिक तथ्यों का यूनानी साहित्य में उल्लेख न होने से यह सन्देह होता है कि क्या ये वर्णन चन्द्रगुप्त मौर्य से सम्बंधित हैं? यदि सेंड्रोकोट्टस चन्द्रगुप्त मौर्य था तो चन्द्रगुप्त मौर्य से सम्बंधित इन महत्वपूर्ण तथ्यों का उल्लेख यूनानी साहित्य में क्यों नहीं किया गया ?

इस प्रकार न तो भारतीय साक्ष्य और न ही यूनानी साहित्य सहित अन्य भारतेतर देशों के साक्ष्य यह सिद्ध करने में समर्थ हैं कि विश्व-विजय के स्वप्नद्रष्टासिकन्दर ने चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में भारत पर आक्रमण किया था और सेंड्रोकोट्टस चन्द्रगुप्त मौर्य था, विशेषकर इसलिए कि भारतीय पौराणिक आधार पर चन्द्रगुप्त मौर्य 320 ई. पू. से काफी समय पूर्व अर्थात 1534 ई. पू. में मगध की गद्दी पर बैठा था और वही भारत का सम्राट बना था। दूसरे शब्दों में किसी भी आधार पर न तो सिकन्दर के 327 ई. पू. में हुए आक्रमण की और न ही चन्द्रगुप्त मौर्य के 320 ई. पू. में भारत का सम्राट बनने की बात की पुष्टि होती है। अतः यह भी मात्र एक भ्रान्त धारणा ही सिद्ध होती है किन्तु भारत के इतिहास को विकृत करने में इसका बहुत बड़ा हाथ है।

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लेखक:- रघुनन्दन प्रसाद शर्मा

कल कुछ और तथ्यों पर प्रकाश डालेंगे .........


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