सेकुलड़ हिन्दुओं ने भारत की दुर्दशा कर रखी है...

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पिछले 30 वर्षों से अमेरिका में रहकर वापस लौटी मेरी एक सहेली सन्नावस्था में है कि जिस भारत से वह गयी थी,वह कहाँ गया।

उसके अनुसार,

यहाँ से 3-4-5 दशक पहले बाहर जाकर बसे भारतीय जो पारिवारिक सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्य लेकर गए थे(केवल हीनग्रंथि वाले उन्हें छोड़कर जिन्हें पश्चिम सदैव ही श्रेष्ठ लगा और जल्दी जल्दी भारतीयता त्यागकर उन्होंने स्वयं को अंग्रेज बना लिया),उन्होंने खूब सहेज कर उसे रखा है। फलस्वरूप यहाँ वालों से बहुत अधिक भारतीय वे हैं।

किन्तु यहाँ वाले तथाकथित प्रगतिशील भारतीय, उसमें भी सेकुलड़ हिन्दुओं ने तो दुर्दशा कर रखी है अपनी।न वे ठीक से भारतीय बचे हैं और न ही पाश्चात्य संस्कृति को समझ पाए हैं।पश्चिम की अपसंस्कृति, जिसके दुष्परिणाम आज वह समाज भोग रहा है,भारतीयों को ग्रहणीय और प्रगतिशीलता लगती है।


एक छोटा सा उदाहरण,,

हमारे यहाँ गोदभराई के रस्म की जो परंपरा है, वस्तुतः उसका उद्देश्य गर्भवती स्त्री और उसके होनेवाले संतान को आशीर्वाद देना,गर्भिणी को मातृव के उत्तरदायित्व का गम्भीर बोध देना है।कहते हैं सातवें महीने में बच्चे के कान बनते हैं,तो उसमें सर्वप्रथम कोई मन्त्र,सात्त्विक विचार गर्भस्थ शिशु के कान में जाये, माता का मन सात्त्विक हो, इस हेतु यह आयोजन होता है।

अब पश्चिम में ऐसी कोई परम्परा तो है नहीं, तो बच्चे के जन्म से पहले बेबी शॉवर नाम से एक उत्सव वे मनाते हैं। जिसमें बच्चे के जन्म के उपरान्त प्रयोग में लाये जाने वाले जच्चा बच्चा उत्पाद लोग दम्पति को उपहार स्वरूप देते हैं।अब वहाँ बच्चे को जन्म देने से लेकर उसे पालने तक के खर्चे के पहाड़ के नीचे अभिभावक दब कर कुचल न जाएँ इसलिए परिचित मित्र आदि मिलकर एक तरह से यह आर्थिक सहयोग होनेवाले माता पिता को देते हैं।जबकि हमारे यहाँ देशभर में लगभग सभी जगह यह परम्परा है कि बच्चे के जन्म के बाद छट्ठी या बारही तक बच्चे को न ही नए कपड़े पहनाए जाते हैं और न ही जन्म से पहले किसी तरह की कोई खरीदारी होती है।


इधर डेढ़ दशक पहले तक गर्भिणी को पेट को ढाँक तोप कर रखने,सूरज ढलने के बाद घर के बाहर न टहलने, ग्रहण के समय के नियम निबाहने के निर्देशों का पालन करते देखती थी।लेकिन अब तो तथाकथित मदरहुड सेलिब्रेशन के तरीके देख लगता है "आँय,ऐसा भी"... प्रीवेडिंग फोटो वीडियो शूट से आरम्भ हुआ तमाशा प्री डिलीवरी शूट तक पहुँच गया है।


क्या कर रहे हैं,क्यों कर रहे हैं,कोई होश नहीं,कोई चिन्तन मनन नहीं।

हर चीज एक इवेन्ट बनकर रह गया है।विवाह से पहले मेहन्दी और संगीत का बॉलीवुडिया टक्कर का आयोजन न हो तो लगता है, सबसे पवित्र और अनिवार्य कोई कर्मकाण्ड नहीं हुआ।बेचारे जो माता पिता तथा उनके जेनरेशन वाले अन्य, कभी हिले भी नहीं थे,कोरियोग्राफर उन्हें फिल्मी गानों पर नचा रहे हैं और स्टेज पर उनकी दयनीय नृत्यकला देखकर उनकी तरह के बाकी अभिभावक मनेमन काँप रहे हैं कि भैया जब अपनी बारी आएगी तो क्या करेंगे।वर और वधु के मातापिता न नांचें,तो फिर बियाह कैसे होगा।


और यही नहीं, प्री वेडिंग फोटोशूट के विशेष दर्शन का विशेष स्लॉट उस कार्यक्रम में रखाता है जिसमें सारे बड़े बुजुर्ग नाते रिश्ते परिचित वेटर सभी वरवधू के वे फोटो वीडियो भी देखते हैं जो यह दिग्दर्शन करा रहा होता है कि विवाह के उपरान्त वरवधू हनीमून कैसे मना रहे होंगे।


जिस वधू का घूँघट हटाकर केवल मुख, विवाह के उपरान्त बड़े बुजुर्ग मुँह दिखाई की आशीर्वादी देकर देखा करते थे,अब बड़े वाले LED स्क्रीन पर उसको छोटे छोटे कपड़ों में चूम्माचाटी पोज में देखने को अभिशप्त हैं।


अब जब विवाह एक यज्ञ,एक संस्कार और पूजा न रहकर केवल एक इवेन्ट बनकर रह जाय, तो उसी गति को प्राप्त होगा न, जिस गति को बॉलीवुडिया शादियाँ(एक से मेरा क्या होगा)प्राप्त होती है?

"इवेंट से अदालत तक..(इतने)...दिन/महीने/साल में"


अब तो किसी के भी इंगेजमेंट या विवाह में सम्मिलित होने पर मन ही मन भगवान से एक ही प्रार्थना होती है- "हे प्रभु, ये इस पवित्र सम्बन्ध की गरिमा महत्त्व को समझें और सफलता से इसे निभा लें"...


मुझसे यदि आज कोई पूछे कि आपको वर्तमान में समाज की कौन सी समस्या सबसे बड़ी और गम्भीर लगती है,,,तो मैं कहूँगी "विवाह विच्छेद",,परिवारों का टूटना और अंततः अवसादग्रस्त व्यक्तियों से लैस समाज का अस्वस्थ होना।कोविड जैसे महामारी से कम नहीं यह पारिवारिक सामाजिक मूल्यों का क्षरण।व्यक्ति का आत्मकेंद्रित स्वार्थी दिखावटी मेटिरिलिस्टिक होना।शिक्षित होते जा रहे मनुष्यों का अचैतन्य होना।


भारतीय संस्कृति सा उन्नत और वैज्ञानिक और कौन होगा जिसमें गर्भाधान संस्कार से आरम्भ होकर मृत्युपरांत सोलह संस्कारों की व्यवस्था है।और ये सभी संस्कार केवल इस निमित्त बने कि व्यक्ति सच्चे अर्थ में सुखी हो।यदि हम शिक्षित हैं,चैतन्य हैं,तो हमारा कर्तब्य नहीं बनता कि हम परम्पराओं विधियों को उनके वास्तविक स्वरूप में जानकर स्वयं भी जीवन में उतारें


और बाकियों को भी इस हित प्रोत्साहित करें?


*जन्मदिन इंगेजमेंट वैवाहिक वर्षगाँठों पर केक,मोमबत्ती,कॉकटेल पार्टी आदि की अनिवार्यता

* विवाह में फूहड़ दिखावटी आयोजनों की अनिवार्यता

*किसी भी धार्मिक अनुष्ठान पर बेमतलब के चकाचौंध की अनिवार्यता

हम ही आगे बढ़कर समाप्त कर सकते हैं,बस मन से यह भय त्यागना होगा कि "लोग क्या कहेंगे"...और दृढ़प्रतिज्ञ होना होगा कि हम ही सब स्वच्छ स्वस्थ पुनर्स्थापित करेंगे।


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