किसी घर से कोई अपनी कुलदेवी की जात को जाता तो गाते बजाते गांव के बाहर स्थित पथवारी तक विदा करके आते थे
उनके साथ प्रसाद की हलवा-पूड़ी, अपने लिए पूड़ी-साग लड्डू-मठरी आदि का ठीक ठाक सा झोला भर कर जाता था
चार धाम में से किसी धाम की यात्रा पर जाने वाले को ऐसे विदा किया जाता था मानो ये इनकी अंतिम यात्रा हो
पहले जितने भी महत्वपूर्ण या साधारण मार्ग थे वहां कोस कोस पर कुएं थे, और लगभग दो कोस के बीच कुआं , एक कोठरी बरामदा एक साइड में रसोई हुआ करती थी
साथ ही शिव परिवार या हनुमान जी का चबूतरा हुआ करता था
पास में ही घोड़े या बैल आदि के लिए पानी की हौदिया भी हुआ करती थी
तीर्थों में स्थित धर्मशालाओं में वर्तन ईंधन मिल जाते , मसाले साथ ले जाये गए होते , आटा दाल वहीं से लोकल दुकानों से खरीद लेते , ज्यादा अच्छी धर्मशालाओं में राशन भी हुआ करता था
वहीं भोजन बना कर ले लिया जाता
कुछ आश्रम टाइप स्थलों पर तईयार रसोई भी मिल जाती थी , यह स्थल अभिजात्य वर्ग के भोजन के स्थल हुआ करते थे , जो कि वहां किन्हीं परिचितों के संबंध के आधार पर रुक सकें और चलते समय ठीक ठाक सा दान वहां करके आ सकें
इनके अलावा अभिजात्य वर्ग के लिए ही हर तीर्थ और नगरी में उनके पैतृक पंडे होते थे जो कि अपने यजमान तीर्थ यात्रियों के लिए घरों में भोजन और रुकने की व्यवस्था करते थे
1970 के दशक तक यही जात या तीर्थ यात्रा होती थी
साथ ही ऐसी यात्राएं क्षेत्रीय मेलों जैसे करौली की कैला देवी , रामदेवड़ा आदि लक्खी मेलों के समय होती थीं
बसें जब बढ़ीं तो सड़कों के किनारे दृश्य देखने को मिलते कि किसी कुएं या चलते ट्यूबबेल के पास बसें रुकतीं , वहीं ईंटों आदि से बनाये चूल्हों से धुआं उठने लगता , भोजन बनता इतनी देर में स्नान आदि हो जाता , बस आगे बढ़ जाती
ये बसें तीर्थ यात्रा कराने वालों द्वारा ऑर्गनाइज होती थीं
यह दृश्य अभी दस साल तक भी आम थे
चैत में देवी की जात , गर्मियों में बद्रीनाथ-केदारनाथ और 14 जनवरी को गंगासागर की यात्रा होती
कुल मिला कर यही डिवाइन टूरिज्म होता था ,
------------------------------------------------
अब पता नहीं कोई परिवार कब गाड़ी में बैठ कर जात को या मुंडन निकल जाता है, पड़ौसी तक को मालूम नहीं होता
केला देवी आदि स्थलों पर बनी हुई धर्मशालाओं में हर समय गाड़ियों की भीड़ हुआ करती है उनकी जो कि वहां जाकर छप्पन भोग आदि के आयोजन करते हैं
गोवर्धन आदि में छप्पन भोग आदि के दर्शन प्रसाद केवल मंन्दिरों के ही अंग होते थे , अब ना जाने कितनी ही समितियों द्वारा बारह महीने 365 दिन ये आयोजन होते रहते हैं
युवा ना जाने कब खाटू श्याम, केदार नाथ , शनि सिंगनापुर , साईं बबस्स , वैश्नो देवी का प्लान बना कर चल दें उनके घर वालों तक को पता उनके लौटने पर ही चलता है
सड़कों के किनारे की धर्मशालाएं या तो उनके बनवाने वालों के वंशजों द्वारा खत्म कर वहां दुकानें बना लीं ,
या फिर रोड चौड़ी होने के लिए सरकारी बुलडोजरों की भेंट चढ़ गयीं
बसें अभी भी जाती हैं , लेकिन चूल्हों का धुआं नहीं उठता वरन टूर ऑर्गनाइजर या ड्राइवर कंडक्टर को कमीशन मिलने वाले ढाबों पर रुकती हैं
घरों में किसी बहू बेटी के पास इतना समय और कुब्बत नहीं कि वो घरवालों या स्वयं अपने जाने के लिए एक टाइम का भोजन भी बना कर ले जा सके ,
सो भोजन की शुचिता जिसमें कि कच्चा भोजन बनते समय रसोई में कोई बिना नहाए प्रवेश नहीं कर सकता थातो दूर नॉनवेज बनाने वाले , हिंदू नामधारी मुस्लिमों ढाबों में ही वेज वाली दाल फ्राई और रोटी खानी पड़ती है
मारवाड़ी भोजनालय रोड पर ढूंढना भुस के ढेर में सुई ढूंढने की तरह है
और रास्ते मे कुएं तो दूर गड़करी जी वाली किसी भी रोड पर चढ़ने के बाद पानी के लिए मिलों गाड़ी चलती चली जाती है , रोड के नए कानूनों के चलते रोड से हट कर कहीं बने ढाबों या
60-65 km की दूरी पर स्थित ठेके की कैंटीन से दुगुने - चौगुने दामों पर पानी की बोतल मिल पाती है
रास्ते में लूज मोशन हो जाये उसके लिए शौचालय तो दूर पेशाब तक करने को जगह नहीं है
--------------------------------------------------
अलबत्ता विकास बहुत हुआ है
जमीनें दस दस गुनी तक मंहगी हो गयी है
धर्मशालाएं आउटडेटेड आयटम बन चुकी हैं
उनकी जगह गेस्ट हाउसेज ने ले ली हैं
प्रायः हर पवित्र नगरी, तीर्थ और मंन्दिरों के आसपास बने ढाबे और होटलों में थके यात्रियों के लिए हर तरह की मदिरा और गर्म ठंडा दौनों तरह का गोश्त भरपूर मिल जाता है
अब कुलदेवी की जात केदारनाथ वैश्नो देवी की हनीमून यात्रा से प्लेस हो गयी है
साथ ही पता नहीं कब किस तीर्थ पवित्र नगरी मन्दिर में प्राकृतिक आपदा, दुर्घटना, आदि के समाचार कब आ जाएं पता नहीं होता
Peace if possible, truth at all costs.