तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के सामने एक
लिखित प्रस्ताव पेश किया जाता है। वे तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी
के चार लाइन के इस प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करते हैं और अगले दिन से ही
देशवासियों के सारे नागरिक अधिकार समाप्त हो जाते हैं। हजारों लोगों की
गिरफ्तारियां होती हैं और यातनाओं का दौर शुरू हो जाता है। आज 40 साल बाद
देश इसे "आपातकाल' के भयानक दौर के रूप में याद करता है। वह दौर ऐसा था जब
गिरफ्तारी से बचने के लिए आज के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा नेता
सुब्रमण्यम स्वामी तक ने सिख वेश धारण कर लिया था। हाल ही में पूर्व
उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने आपातकाल की आशंका जताकर उन 19 महीनों की
भयावह यादें ताजा कर दी हैं। साथ ही जिन्होंने उस समय को नहीं देखा उनके
मन में जिज्ञासा पैदा हो गई है।
25, जून 1975 के दिन दोपहर के साढ़े तीन बजे थे। इंदिरा गांधी के दिमाग में दूर-दूर तक यह ख्याल नहीं था कि कोई आंतरिक आपातकाल जैसी स्थिति भी होती है। जेपी के आंदोलनों से परेशान इंदिरा ने अपने विश्वसनीय और प. बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थशंकर रे से कहा कि वे उन्हें संविधान की कोई कमजोर कड़ी बताएं। रे ने घंटों तक संविधान के पन्ने पलटे। अंतत: उन्हें वह तोड़ मिल गया, जो इंदिरा चाहती थीं। आर्टिकल 152। उसी शाम इंदिरा और रे राष्ट्रपति से मिलने पहुंचे। इधर, इंदिरा राष्ट्रपति के दस्तखत ले रही थीं और उधर गिरफ्तारी के लिए विपक्ष के नेताओं की सूची बन रही थी। दूसरे दिन यानी 26 जून, 1975 को इंदिरा ने आल इंडिया रेडियो पर आपातकाल की घोषणा कर दी।
तत्कालीन केन्द्र सरकार ने अपने राजनीतिक विरोधियों सर्वश्री जय प्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, चन्द्रशेखर, शरद यादव, लालू प्रसाद यादव और रा. स्व. संघ के वरिष्ठ अधिकारियों को चुन-चुन कर जेल भिजवा दिया, लेकिन देश में इन्दिरा की तानाशाही और अत्याचार के विरुद्ध लोगों का आंदोलन भीतर ही भीतर सुलगने लगा था। लोगों की जनसभाएं कांग्रेस की कुरीतियों के विरुद्ध जारी थीं। आपातकाल हटने के बाद कांग्रेस की आम चुनाव में हुई करारी हार ने न केवल इन्दिरा गांधी के तिलिस्म को तोड़ दिया, बल्कि बड़े-बड़े धुरंधरों को मुंह की खानी पड़ी। आज आपातकाल के 40 वर्ष बाद भी उसका दंश झेल चुके लोगों की आंखें भर आती हैं। आपातकाल के उस कालिमा भरे अध्याय को स्मरण कराती पाञ्चजन्य की रपट...
उस दौरान पुलिस-प्रशासन द्वारा प्रताड़ना का शिकार हुए लोग आज भी आपातकाल की भयावह कारा के बारे में सोचकर कांप उठते हैं। उन पर हुए अत्याचारों, दमन और अमानवीय कृत्यों के जख्म आज भी ताजा हैं। आपातकाल यानी भारतीय लोकतंत्र का काला अध्याय। इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा लोकसभा चुनाव में अयोग्य ठहराए जाने के फैसले से तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी इस कदर बौखला गई थीं कि उन्होंने आपातकाल लगवा दिया। आपातकाल की इस आपाधापी में पुलिस भूमिका किसी खलनायक से कम न था क्योंकि अपने ही देश की पुलिस के अत्याचार ब्रिटिश राज के अत्याचारों को भी मात दे रहे थे। जो जहां, जिस हालत में मिला उसे जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया गया। चप्पे-चप्पे पर पुलिस के सीआईडी विभाग वाले नजर बनाए रहते थे। देश के नामीगिरामी राजनेताओं को रातोंरात गिरफ्तार कर लिया गया, आम व्यक्ति की तो हैसियत ही क्या थी। पुलिस की दबिश के डर से घर के घर खाली हो गए और लगभग प्रत्येक परिवार के पुरुष सदस्यों को भूमिगत होना पड़ा। वे लोग हर दिन अपना ठिकाना बदलने को विवश थे। मीडिया पर पाबंदी लगाकर सरकार ने खूब मनमानी की। आपातकाल के दौरान संजय गांधी ने नसबंदी अभियान चलाया। शहर से लेकर गांव-गांव तक नसबंदी शिविर लगाकर लोगों के ऑपरेशन कर दिए गए।
आपातकाल को कोई आजाद भारत के इतिहास का सबसे अलोकतांत्रिक कालखंड मानता है तो कोई इसे जायज ठहराता है।
25, जून 1975 के दिन दोपहर के साढ़े तीन बजे थे। इंदिरा गांधी के दिमाग में दूर-दूर तक यह ख्याल नहीं था कि कोई आंतरिक आपातकाल जैसी स्थिति भी होती है। जेपी के आंदोलनों से परेशान इंदिरा ने अपने विश्वसनीय और प. बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थशंकर रे से कहा कि वे उन्हें संविधान की कोई कमजोर कड़ी बताएं। रे ने घंटों तक संविधान के पन्ने पलटे। अंतत: उन्हें वह तोड़ मिल गया, जो इंदिरा चाहती थीं। आर्टिकल 152। उसी शाम इंदिरा और रे राष्ट्रपति से मिलने पहुंचे। इधर, इंदिरा राष्ट्रपति के दस्तखत ले रही थीं और उधर गिरफ्तारी के लिए विपक्ष के नेताओं की सूची बन रही थी। दूसरे दिन यानी 26 जून, 1975 को इंदिरा ने आल इंडिया रेडियो पर आपातकाल की घोषणा कर दी।
तत्कालीन केन्द्र सरकार ने अपने राजनीतिक विरोधियों सर्वश्री जय प्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, चन्द्रशेखर, शरद यादव, लालू प्रसाद यादव और रा. स्व. संघ के वरिष्ठ अधिकारियों को चुन-चुन कर जेल भिजवा दिया, लेकिन देश में इन्दिरा की तानाशाही और अत्याचार के विरुद्ध लोगों का आंदोलन भीतर ही भीतर सुलगने लगा था। लोगों की जनसभाएं कांग्रेस की कुरीतियों के विरुद्ध जारी थीं। आपातकाल हटने के बाद कांग्रेस की आम चुनाव में हुई करारी हार ने न केवल इन्दिरा गांधी के तिलिस्म को तोड़ दिया, बल्कि बड़े-बड़े धुरंधरों को मुंह की खानी पड़ी। आज आपातकाल के 40 वर्ष बाद भी उसका दंश झेल चुके लोगों की आंखें भर आती हैं। आपातकाल के उस कालिमा भरे अध्याय को स्मरण कराती पाञ्चजन्य की रपट...
उस दौरान पुलिस-प्रशासन द्वारा प्रताड़ना का शिकार हुए लोग आज भी आपातकाल की भयावह कारा के बारे में सोचकर कांप उठते हैं। उन पर हुए अत्याचारों, दमन और अमानवीय कृत्यों के जख्म आज भी ताजा हैं। आपातकाल यानी भारतीय लोकतंत्र का काला अध्याय। इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा लोकसभा चुनाव में अयोग्य ठहराए जाने के फैसले से तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी इस कदर बौखला गई थीं कि उन्होंने आपातकाल लगवा दिया। आपातकाल की इस आपाधापी में पुलिस भूमिका किसी खलनायक से कम न था क्योंकि अपने ही देश की पुलिस के अत्याचार ब्रिटिश राज के अत्याचारों को भी मात दे रहे थे। जो जहां, जिस हालत में मिला उसे जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया गया। चप्पे-चप्पे पर पुलिस के सीआईडी विभाग वाले नजर बनाए रहते थे। देश के नामीगिरामी राजनेताओं को रातोंरात गिरफ्तार कर लिया गया, आम व्यक्ति की तो हैसियत ही क्या थी। पुलिस की दबिश के डर से घर के घर खाली हो गए और लगभग प्रत्येक परिवार के पुरुष सदस्यों को भूमिगत होना पड़ा। वे लोग हर दिन अपना ठिकाना बदलने को विवश थे। मीडिया पर पाबंदी लगाकर सरकार ने खूब मनमानी की। आपातकाल के दौरान संजय गांधी ने नसबंदी अभियान चलाया। शहर से लेकर गांव-गांव तक नसबंदी शिविर लगाकर लोगों के ऑपरेशन कर दिए गए।
आपातकाल को कोई आजाद भारत के इतिहास का सबसे अलोकतांत्रिक कालखंड मानता है तो कोई इसे जायज ठहराता है।
Peace if possible, truth at all costs.