‼ टू फिंगर टेस्ट ‼

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"बलात्कार पीड़ित में टू फिंगर टेस्ट का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है!”
बलात्कार के दो दिन बाद 18 साल की वह लड़की दिल्ली के एक सरकारी अस्पताल में सफेद रंग की चादर पर लेटी थी. नर्स ने आकर पहले उसकी सलवार खोली और फिर कमीज को नाभि से ऊपर खिसकाया. इसके बाद दो पुरुष डॉक्टर आए. उन्होंने लड़की की जांघों के पास हाथ लगाकर जांच शुरू की तो उसने एकदम से अपने शरीर को कड़ा कर लिया. एकाएक दस्ताने पहने हुए हाथों की दो उंगलियां उसके वजाइना (योनि) के अंदर पहुंच गईं. वह दर्द से कराह उठी. डॉक्टर कांच की स्लाइडों पर उंगलियां साफ करके उसे अकेला छोड़कर वहां से चलते बने. उन्होंने जांच से पहले न तो उसकी अनुमति ली और न ही उसे बताया कि उन्होंने क्या और क्यों किया. यह टू फिंगर टेस्ट (टीएफटी) था.

देश में प्रचलित टीएफटी से बलात्कार पीड़ित महिला की वजाइना के लचीलेपन की जांच की जाती है. अंदर प्रवेश की गई उंगलियों की संख्या से डॉक्टर अपनी राय देता है कि ‘महिला सक्रिय सेक्स लाइफ’ में है या नहीं. भारत में ऐसा कोई कानून नहीं है, जो डॉक्टरों को ऐसा करने के लिए कहता है. 2002 में संशोधित साक्ष्य कानून बलात्कार के मामले में सेक्स के पिछले अनुभवों के उल्लेख को निषिद्ध करता है. सुप्रीम कोर्ट ने 2003 में टीएफटी को ‘दुराग्रही’ कहा था. ज्यादातर देशों ने इसे पुरातन, अवैज्ञानिक, निजता और गरिमा पर हमला बताकर खत्म कर दिया है.
जस्टिस जे.एस. वर्मा समिति ने भी इसकी तीखी आलोचना की है. समिति ने महिलाओं की सुरक्षा को लेकर आपराधिक कानूनों पर 23 जनवरी को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी. रिपोर्ट के मुताबिक, “सेक्स अपराध कानून का विषय है, न मेडिकल डायग्नोसिस का.” रिपोर्ट में कहा गया है कि महिला की वजाइना के लचीलेपन का बलात्कार से कोई लेना-देना नहीं है. इसमें टू फिंगर टेस्ट न करने की सलाह दी गई है. रिपोर्ट में डॉक्टरों के यह पता लगाने पर भी रोक लगाने की बात कही गई है जिसमें पीड़िता के ‘यौन संबंधों में सक्रिय होने’ या न होने के बारे में जानकारी दी जाती है.
इस तरह के टेस्ट के विरोध में आवाज उठने लगी है. 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस की परेड के बाद हजारों गुस्साए लोगों ने दिल्ली की सड़कों पर नारा लगाया, “टू फिंगर टेस्ट बंद करो.” इसके खिलाफ हस्ताक्षर अभियान भी चलाए ऑल इंडिया प्रेग्रेसिव वूमंस एसोसिएशन की राष्ट्रीय सचिव कविता कृष्णन कहती हैं, “सरकार इस अपमानजनक प्रक्रिया को बंद करे.”
महाराष्ट्र में वर्धा के सेवाग्राम में महात्मा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज में फॉरेंसिक एक्सपर्ट और वकील डॉ. इंद्रजीत खांडेकर कहते हैं, “उस टेस्ट का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है.” वे कहते हैं कि उंगलियों के साइज के हिसाब से नतीजे बदल जाते हैं. हाइमन और वजाइना से जुड़ी पुरानी दरार भी यह साबित नहीं करती है कि लड़की या महिला की सक्रिय सेक्स लाइफ रही है. बंगलुरू के वैदेही इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज में फॉरेंसिक एक्सपर्ट और कानून के जानकार डॉ. एन. जगदीश के मुताबिक इस तरह की दरार कसरत, खेल-कूद, चोट, किसी लकड़ी या उंगलियों के कारण भी पड़ सकती है. वे कहते हैं, “कुछ महिलाओं की हाइमन इतनी लचीली होती है कि सेक्स के दौरान भी आसानी से नहीं टूटती.”
इस समस्या की जड़ में अंग्रेजी शासन के कानूनी अवशेष हैं, जिनकी नई सदी में कोई तुक नहीं है. वे पूरी तरह तर्कों से परे हैं. जेएनयू के सेंटर फॉर लॉ ऐंड गवर्नेंस में पढ़ाने वाली प्रतीक्षा बख्शी कहती हैं, “फ्रांसीसी मेडिकल विधिवेत्ता एल. थोइनॉट ने 1898 के आसपास नकली और असली कुंआरी लड़कियों में फर्क करने वाली जांच के लिए इस तरह का टेस्ट ईजाद किया था. नकली कुंआरी उस महिला को कहा जाता था, जिसकी हाइमन लचीलेपन के कारण सेक्स के बाद भी नहीं टूटती है.” भारत में मेडिकल विधिशास्त्र की लगभग हर पुस्तक में आंख मूंदकर टीएफटी को बढ़ावा दिया गया है, जिनमें जयसिंह पी. मोदी की लिखी किताब ए टेक्स्ट बुक ऑफ मेडिकल ज्यूरिसप्रूडेंस ऐंड टॉक्सीकोलॉजी भी शामिल है.
चरित्र हनन का हथियार हालांकि बलात्कार के मुकदमों में मेडिकल सबूत बहुत अहम होते हैं, लेकिन बचाव पक्ष के वकील इस तरह की पुस्तकों और डॉक्टरों की राय का इस्तेमाल यह साबित करने के लिए करते हैं कि महिला का चरित्र अच्छा नहीं है. बख्शी कहती हैं, “वे पूछते हैं कि बलात्कार के समय वह किस पोजीशन में थी, यह कितने समय तक चला. अगर महिला का शीलभंग हुआ है तो वे महिला के चरित्र हनन के लिए हजारों बेतुके सवाल पूछते हैं.” बख्शी अपने शोध के लिए तमाम जिला अदालतों में बलात्कार के मुकदमों के दौरान उपस्थित रही हैं. 1872 के भारतीय साक्ष्य कानून की धारा 155(4), जो 2002 तक चली, कहती है, “जब किसी आदमी पर बलात्कार या बलात्कार की कोशिश का मुकदमा चलाया जाता है तो यह दिखाया जा सकता है कि बलात्कार का मुकदमा करने वाली महिला का चरित्र अच्छा नहीं था.” इस धारा को हटा दिया गया, लेकिन वह मानसिकता अब भी बनी हुई है.
अंतरराष्ट्रीय एनजीओ ह्यूमन राइट्स वॉच की ओर से 2010 में दी गई रिपोर्ट, ‘डिग्निटी ऑन ट्रायल’ दिखाती है कि किस तरह जज महिला के ‘चरित्र’ को फिंगर टेस्ट से जोड़ते हैं. 2009 में मुसौद्दीन अहमद के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि 13 साल की मीरा बेगम अच्छे चरित्र वाली महिला नहीं थी, क्योंकि उसके टीएफटी से पता चला कि वह पहले से सक्रिय सेक्स लाइफ जी रही थी.
2007 में हिमाचल प्रदेश हाइकोर्ट ने यतिन कुमार को दोषी करार दिया क्योंकि मेडिकल रिपोर्ट से पता चलता था कि पीड़ित महिला को ‘सेक्स की आदत’ नहीं थी क्योंकि डॉक्टर अपनी दो उंगलियों को ‘मुश्किल’ से प्रवेश करा सका, जिसके कारण खून बह निकला. 2006 में पटना हाइकोर्ट में हरे कृष्णदास को गैंगरेप के मामले में बरी कर दिया गया क्योंकि डॉक्टर ने जांच में पाया कि पीड़िता की हाइमन पहले से भंग थी और वह सक्रिय सेक्स लाइफ जी रही थी. जज का कहना था कि महिला का कैरेक्टर ‘लूज़’ है.
समस्या यह है कि देश भर के अस्पताल डॉक्टरों से मेडिकल परीक्षा के रूप में पूछते हैं कि हाइमन के सुराख में एक उंगली गई या दो उंगली, वजाइना का प्रवेश द्वार तंग था या फैला हुआ, चोटें ताजा थीं या पुरानी. अगर डॉक्टर ‘नो रेप’ या ‘बलात्कार की कोशिश’ लिखकर देता है तो आरोपी को अदालत में पहले ही फायदा मिल जाता है.
डॉक्टर अगर यह लिखकर देता है कि ‘महिला की पहले से ही सक्रिय सेक्स लाइफ थी’ तो इसे महिला के चरित्र हनन और उसके बयान को गलत साबित करने के लिए बतौर सबूत प्रयोग किया जाता है. डॉ. जगदीश इसके लिए देश में बलात्कार की जांच के लिए आधुनिक तरीकों के अभाव को जिम्मेदार बताते हैं. दुनिया भर में सिर्फ एक-तिहाई बलात्कार पीड़ित महिलाओं में ही शारीरिक चोट के निशान दिखाई देते हैं. हो सकता है, महिला बेहोश रही हो, मेडिकल जांच देर से की गई हो. तब इस तरह के निशान नहीं मिल सकते हैं. वीर्य धुल गया हो या हो सकता है बलात्कारी ने सेक्स के समय कंडोम का इस्तेमाल किया हो. अदालतें आमतौर पर इन बातों को नहीं मानतीं.
डॉक्टर बढ़ाते हैं तकलीफ दिल्ली गैंगरेप के समय लोग तब दहल गए, जब लड़की के दोस्त ने टीवी पर आकर बताया कि अस्पताल में डॉक्टरों का व्यवहार कितना असंवेदनशील था. डॉ. खांडेकर कहते हैं, “अनुभवहीन डॉक्टरों का होना एक बड़ी समस्या है क्योंकि पीड़ित को उनकी वजह से और भी तकलीफें झेलनी पड़ती हैं और जरूरी सबूत नष्ट हो जाते हैं. एमबीबीएस की पढ़ाई में फॉरेंसिक साइंस के बारे में बहुत कम बताया जाता है.”
कानूनी बदलावों से भी समस्या बढ़ी है. 1997 में कानून बनाया गया कि सिर्फ महिला डॉक्टर ही बलात्कार के मामलों में मेडिकल जांच कर सकती हैं. लेकिन महिला डॉक्टरों की कमी को देखते हुए 2005 में फिर से कानून में संशोधन हुआ. अब किसी भी लिंग और किसी भी विषय का रजिस्टर्ड मेडिकल डॉक्टर इस तरह की जांच कर सकता है.
हालांकि इसके लिए पीड़िता की अनुमति जरूरी है. इस तरह के बदलावों ने इतनी संवेदनशील जांच के लिए ज्यादा डॉक्टर उपलब्ध करा दिए हैं. लेकिन उनमें से बहुतों के पास योग्यता ही नहीं है.
भारत में बलात्कार की शिकार होने वाली महिला को दो बार तकलीफ झेलनी पड़ती है. पहली बार वह तब तकलीफ झेलती है, जब उसका बलात्कार होता है और दूसरी बार हमारी व्यवस्था उसे परेशान करती है. इस बीच तमाम एजेंसियां दखल देती हैं और वे पूर्वाग्रह की अपनी नजर से पीड़िता को देखती हैं. लेकिन बलात्कार के मामलों में डॉक्टर जिस तरह की भूमिका निभाते हैं, वह देश में बलात्कार के बढ़ते मामलों को देखते हुए बेहद चिंता का विषय है.

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