एक मुसलमान लड़के को कोई साधु-संन्यासी मिले, बोलेः "बेटा पानी पिला दे।"
लड़का बोलाः "बाबा मैं मुसलमान हूँ, क्या आप जानते हैं आप बड़े उच्चकोटि के
संत-संन्यासी और मुसलमान के हाथ का पानी पियेंगे " बोलेः "बेटा मुझे प्यास
लगी है, कौन हिन्दू, कौन मुसलमान कौन अपने, कौन पराये सबमें एक ईश्वर है।
जा, पानी ला।" लोटा साफ करके पानी पिला दिया। साधु उस पर खुश हो गये। बोलेः
"देख, तेरी श्रद्धा-नम्रता पर मैं बड़ा खुश हूँ। मैं तुमको एक मंत्र और एक
सिद्धि का उपाय बताता हूँ, जिससे तुम एक अजगैबी लोक के मालिक हो जाओगे।
तुम जो चाहोगे वह वस्तु आ जायेगी, जो चाहोगे वह चीज चली जायेगी। लेकिन
तुम्हारे पिछले जन्मों के सत्कर्मों को भी देख रहा हूँ और बुरी आदतों को भी
देख रहा हूँ। बुरी आदत से, स्वार्थ से बचना। शक्ति मिले तो उसका सही उपयोग
करना।" मंत्रदीक्षा दी और कोई युक्ति सिखा दी। वह तो ऐसा लगा, ऐसा लगा कि
बीस साल तक मंत्रसिद्धि में लगा रहा और उस लोक की शक्तियों का मालिक हो
गया। यह बात परमहंस योगानंद के गुरु युक्तेश्वर गिरिजी ने योगानंदजी को
बतायी थी कि हमारे देखने में एक ऐसा फकीर आया। उसको हम देखने जाते थे। उसका
नाम था अफजल खान। वह जिस वस्तु को छूता वह अदृश्य हो जाती और जो वस्तु
मँगाता वह हाजिर हो जाती। जो चीज चाहे वह मँगा के दिखा दे, खिला दे, पिला
दे। अफजल खान एक चमत्कारी फकीर के नाम से प्रसिद्ध हो गया। लेकिन उसकी गंदी
आदतों ने उसका पीछा नहीं छोड़ा, क्योंकि ईश्वरप्रीति के लिए मंत्र नहीं
था। रावण के पास शक्तियाँ थीं लेकिन ईश्वरप्रीति नहीं थी तो रावण फिसला।
शबरी में ईश्वरप्रीति जगा दी गुरु ने। इसलिए मैं ध्यान देता हूँ कि आपके
जीवन में फिसलाहट ने आये। ईश्वर में प्रीति कर दो बस। नहीं तो शक्तियाँ
कैसे जगती हैं, मुझे पता है। मैं आपको वह नहीं बताता हूँ। उसके बाद पतन का
खतरा बढ़ जाता है। ईश्वर की प्रसन्नता के लिए सत्कर्म करो तो आनंदस्वरूप
ईश्वर अंदर में जगमगायेगा। अफजल कोलकाता के बाजार में हीरे –जवाहरात की
बड़ी-बड़ी दुकानों में खरीददारी के बहाने जाता। दुकानदार हीरे, जवाहरात,
मोती दिखाते। वह देखता और पसंद नहीं आया - ऐसा कहकर बस दुकान से नीचे उतरता
और वह चीज वहाँ से गायब जिस-जिस रत्न को वह छू लेता, वे सारी चीजें अफजल
के पास पहुँच जातीं। जब कोई प्रसिद्ध होता है तो उसके सेवक भी शिष्य हो
जाते हैं, कई चमचे हो जाते हैं। बापू के तो शिष्य होते हैं लेकिन अफजल के
तो चमचे होंगे। अफजल कभी-कभी यात्रा में उन्हें अपने साथ ले जाता। वह रेलवे
स्टेशन पर टिकट की खिड़की पर किसी बहाने टिकट के बंडल को छू लेता। फिर
बोलताः "हमें टिकटें नहीं चाहिए।" चमचों को बोलताः "चलो, ट्रेन में बैठो।"
वह टिकट का बंडल वहाँ से गायब हो जाता। अफजल सबको टिकटें पकड़ा देता। अब उस
बेचारे टिकटवाले की तो एक महीने की पगार ही कट गयी। एक बार युक्तेश्वर
गिरि के एक मित्र ने उसे अपने लगभग 20 मित्रों के साथ घर पर बुलाया। उनमें
युक्तेश्वर गिरि भी थे। उनसे अफजल ने कहाः "नीचे बगीचे में से कोई पत्थर
उठा के ले आओ और उस पर अपना नाम लिख दो। फिर उस गंगा में जितनी दूर फेंक
सकते हो फेंक दो।" उन्होंने ऐसा ही किया। फिर अफजल ने कहाः "जाओ, इस घर के
साथ-साथ बहने वाले गंगा के पानी को एक बर्तन में भर लाओ।" युक्तेश्वर जी
बर्तन में गंगाजल भरकर लाये तो अफजल ने कहाः "हजरत फेंका हुआ, पत्थर ला
दो।" और उनके हाथ का नाम लिखा वह पत्थर पानी में प्रकट हो गया "यही था आपका
पत्थर " बोलेः "हाँ।" वहाँ युक्तेश्वर गिरि का एक मित्र भी था, बाबू। उसने
सोने की पुरानी घड़ी और चेन पहन रखी थी। उसको बोलाः "ला देखें तेरी घड़ी
और चेन।" हाथ में लेते ही दोनों अदृश्य बाबू ऊँचा-नीचा हो गया। रूआँसा होकर
बोलाः "अफजल कृपया मेरी घड़ी और चेन लौटा दो। वे मेरी अनमोल पारम्परिक
सम्पत्ति हैं।" "जा तेरे घर की तिजोरी में 500 रूपये पड़े हैं, उन्हें मेरे
पास ले आ फिर बताऊँगा कि घड़ी कहाँ मिलेगी।" बाबू तुरंत घर गया और 500
रूपये लाकर उसे दे दिये। 500 रूपये हजम "जा, तेरे घर के पास की छोटी पुलिया
पर तेरी चेन और घड़ी मिल जायेगी।" बाबू तीर की तरह दौड़ा। जब वापस आया तो
उसके चेहरे पर मुस्कान थी, पर दोनों वस्तुओं को इस बार तिजोरी में रखकर आया
था। घड़ी व चेन के बदले धन जाने से बाबू के मित्र अफजल को तिरस्कार की नजर
से घूर रहे थे। उन्हें शांत करने के लिए अफजल ने कहाः "आप लोगों को जो कुछ
पीना हो उसका केवल नाम बोलिये।" किसी ने कहाः "दूध चाहिए।" किसी ने कहाः
"फलों का रस चाहिए।" बाबू ने कहाः "व्हिस्की चाहिए।" देखते ही देखते तुरंत
सीलबंद बोतलें आ गयीं। सबको अपनी पसंद का पेय मिला। बाबू बोलाः "मेरे इतने
पैसे गये, मैं तो चिल्लाऊँगा।" अफजलः "तू और कुछ माँग ले।" बाबूः "हम सबको
बढ़िया भोजन खिलाओ, सोने की थाली में। तब हम मानेंगे।" "क्या खाओगे " "पूरा
राजसी भोजन चाहिए।" थालियों की खनखनाहट की आवाज आयी। सोने की थालियाँ बिछ
गयीं। व्यंजन परोसे गये। जो भी 20-22 लोग थे, सबने भोजन कर लिया। पेट भी
भरा, स्वाद भी आया। परमहंस योगानंद के गुरु बताते हैं कि फिर सभी लोग आराम
करने के लिए बाहर जाने लगे तो पीछे मुड़कर देखा कि थालियों की बड़े जोर की
खनखनाहट हो रही है, मानो कोई उन्हें एकत्र कर रहा हो। देखते-ही-देखते वे
अदृश्य हो गयीं। परमहंस योगानंद ने हँसते हुए पूछाः "गुरुजी सोने की
थालियाँ पैदा करके भोजन करा सकता है, वह 500 रूपये के लिए धोखा क्यों करेगा
" "अफजल आध्यात्मिक दृष्टि से बहुत उन्नत नहीं था। उसे गंदी आदत थी। गुरू
की दी हुई जो शक्ति थी, उस सिद्धि के बल से वातावरण में से वस्तु-अनुरूप-कण
इकट्ठे होकर वे चीजें बन जाती थीं लेकिन ज्यादा देर टिक नहीं सकती थीं।
जिनको ऐहिक परिश्रम से बनाया, कमाया जाता है वे रहती हैं, बाकी सिद्धियों
के बल से बनी हुई चीजें अस्थायी होती हैं। खान-पान की तो ठीक हैं, बाकी सब
अदृश्य हो जाती हैं।" कुछ वर्षों के बाद युक्तेश्वर गिरि के पास बाबू ने
आकर समाचार-पत्र दिखाया और कहाः "यह लेख पढ़ो, जिसमें अफजल ने अपनी गलतियों
को स्वीकार किया है।" उसमें लिखा था कि मैं एक समय बाजार से जा रहा था तो
किसी कराहते हुए वृद्ध ने कहाः अफजल फकीर मेरा लँगड़ापन ठीक कर दो। मैंने
उसकी ओर देखा और कहाः तेरे हाथ में यह सोना मैंने उसे स्पर्श किया और आगे
बढ़ गया। देखते-देखते वह सोना मैंने अपनी विद्या के बल से गायब कर दिया।
उसने कहाः सोना तो छीन लिया, मेरे पैर तो ठीक करो ओ अफजल तुम बड़े चमत्कारी
फकीर हो। अफजल अफजल फकीर अल्लाह के नाम पर मेरे पैर तो ठीक करो मैंने
सुना-अनसुना कर दिया। जब मैंने उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया, तब वह बुलंद
आवाज में अधिकारपूर्वक कहने लगाः अफजल क्या तूने मुझे नहीं पहचाना यह तू
क्या करता है देखते-देखते वह लँगड़ाता हुआ बूढ़ा जवान हो गया मैं दंग रह
गया कि जिस संन्यासी ने मुझे दीक्षा दी थी, जो तीसों साल पहले मुझे मिले
थे, लँगड़े के रूप में ये वही महापुरूष हैँ मेरे गुरु की आँखों से अँगारे
बरस रहे थे। बोलेः मैं स्वयं अपनी आँखों से देख रहा हूँ कि तुम अपनी
शक्तियों का उपयोग दुःखी- पीड़ित मानव-जाति की सहायता के लिए नहीं बल्कि एक
घटिया चोर की तरह उसे लूटने में करते हो। मैं तुम्हारी सारी शक्तियाँ वापस
लेता हूँ। गरीब-गुरबों की सेवा के लिए दी हुई शक्तियों का दुरुपयोग कर रहा
है जा, मैं उन्हें लिये जाता हूँ। फिर मैंने अपनी शक्ति को पुकारा या करने
को कहा तो कुछ नहीं हुआ। मेरी आँखों में आश्चर्य, मन में पश्चाताप की आग
और अतीत की स्मृतियाँ रहीं। मैं चरणों पर गिर पड़ा और बोलाः मैं सोचता था
मुझमें कोई ऐब नहीं है। बिना मेहनत के मिली हुई ऋद्धि-सिद्धियों का मैंने
दुरुपयोग किया। आपने कहा था कि तेरे में मलिन ख्वाहिशें हैं किंतु शक्तियों
को अच्छे काम में लगाना। उन्हें परोपकार में लगाने से ईश्वर का प्रेम
मिलता है, इश्क-नूरानी, इश्क-मिजाजी, इश्क-इलाही... लेकिन मैंने इश्क
रुपये-पैसों और वाह-वाही से किया। मालिक मुझे बख्शो। तब उन संन्यासी को दया
आयी। दयालु संन्यासी ने कहाः अफजल अब ये ठगी के धंधे तो गये क्योंकि तेरे
से शक्ति मैं लिये जाता हूँ। जब भी तुझे भोजन और वस्त्र आदि की जरूरत
पड़ेगी तो तुझे मिल जाया करेंगे। अब हिमालय के एकांतवास में रहकर भोजन करो।
मैंने कहाः मालिक अब वही करूँगा। ईश्वर के प्रेम के सिवाय, आत्मसुख के
सिवाय सब व्यर्थ है। किसी से छीनाझपटी करो या कमाकर भी संसार के भोग भोगो,
अंत में विनाश है लेकिन प्रेमस्वरूप परमात्मा को पाओ तो प्रेम बढ़ता जाता
है, ज्ञान बढ़ता जाता है, रस बढ़ता जाता है। नीरस जीव रसवान प्रभु की कोटि
में आ जाता है। युक्तेश्वर गिरि का सत्संग सुनकर योगानंद भी बड़े समर्थ संत
हो गये।
Peace if possible, truth at all costs.