पिछले दिनों आर.एस.एस. प्रमुख मोहन भागवत ने मदर टेरेसा के विषय में कह
दिया कि मदर टेरेसा की सेवा भावना का उद्देश्य अभावग्रस्त लोगों को ईसाई
बनाना था। इस पर कुछ सैकुलरिस्टों ने शोर मचाना आरंभ कर दिया। पर हमें नही
लगता कि इसमें मोहन भागवत ने कुछ गलत कहा हो। मोहन भागवत का यह बयान सर्वथा
सत्य है।
हिंदू धर्म में करूणा, मुदिता, न्याय, समानता, सेवा, सदभाव, सम्मैत्री, समभाव इत्यादि मानवीय गुणों को मनुष्य को मनुष्य से देव बनाने की प्रक्रिया के लिए आवश्यक तत्वों के रूप में पूजनीय माना गया है। पर अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली के माध्यम से भारतीय मूल्यों को नई पीढ़ी में न परोसा जाकर ईसाई मूल्यों को उस पर थोपा गया है। जिससे नई पीढ़ी को अंग्रेजी आधुनिकता और सभ्यता की भाषा लगती है। हमारा मानना है कि किसी भाषा को समझना बुरी बात नही है, पर उसी भाषा के महापुरूषों को उस भाषा के माध्यम से समझकर अपने आपको और अपने महापुरूषों को या अपनी संस्कृति को भूल जाना बुरी बात है। अंग्रेजी में भारतीय वेद, उपनिषद, इतिहास, रामायण, महाभारत, कालिदास, गीता पढ़ाये जायें, और उनके अच्छे विचार जनता में प्रचारित किये जायें, इसके लिए अंग्रेजी को किसने रोका है?
यही बात किसी भी ‘मदर या फादर’ पर लागू होती है, ये मानवीय विचारों से लोगों का मार्गदर्शन करें, इससे इन्हें किसने रोका है? पर जब इनकी करूणा या समानता केवल किन्हीं विशिष्ट लोगों के लिए ही या उन लोगों के प्रति ही विस्तार का रूप लेती है, जो भारत में अभाव ग्रस्त हैं, या किसी भी प्रकार से अंग्रेजी संस्कृति से प्रभावित हैं, तो उनका कार्य अवश्य विचारणीय और चिंतनीय हो जाता है। यदि इन लोगों के हृदय में वास्तव में ही मानवतावाद है तो उस मानवतावाद को धर्मांतरित ईसाइयों तक संकीर्ण रखने की आवश्यकता नही पडऩी चाहिए। उसे स्वतंत्र पक्षी के समान खुले और अनंत आकाश में उडऩे देना चाहिए। इन्हें मानव को मानव बनाने का प्रयास करना चाहिए। पर मदर टेरेसा लोगों को मानव नही ईसाई बनाकर गयीं। एक प्रकार से मदर ने वही काम किया जिसका सपना टी.बी.मैकाले ने भारत में अंग्रेजी शिक्षा पद्घति लागू करते समय संजोया था।
टी.बी. मैकाले ने 12 अक्टूबर 1839 को अपने पिता के लिए लिखा था-‘‘हमारे अंग्रेजी स्कूल अद्भुत रूप से सफल हो रहे हैं। इस शिक्षा का हिंदुओं पर बहुत विचित्र प्रभाव हो रहा है। कोई भी हिन्दू जिसने हमारी शिक्षा प्राप्त की, अपने धर्म पर स्थिर नही रह सका। कुछ कहने मात्र को अपने को हिंदू कहते हैं कुछ ईसाई बन जाते हैं, मेरा विश्वास है कि यदि हमारी शिक्षा योजना चलती रही तो तीस वर्ष बाद बंगाल की उच्च जातियों में कोई भी मूर्तिपूजक नही रहेगा।’’
लार्ड मैकाले को चाहे अपने मिशन में सफलता मिली या न मिली, पर उसके काल में उस जैसे लोगों की प्रसन्नता का जो क्रम चला, उसे मदर टेरेसा ने पूर्वोत्तर भारत में व्यापकता प्रदान की। आज मिजोरम की 95 प्रतिशत जनता, नागालैंड की 90 प्रतिशत, मेघालय की 75 प्रतिशत जनता ईसाई बन चुकी है। पहाड़ी क्षेत्रों में तो यह औसत कहीं-कहीं तो शत प्रतिशत हो गया है। इस सबमें मदर टेरेसा का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
मदर के कार्यों की पूर्ति के लिए 13 जनवरी 1997 को चैन्नई में सम्पन्न हुई ‘मिशन इंडिया 2000 काफे्रंस’ में यह तय किया गया था कि हमारा लक्ष्य होगा कि भारत के कोने-कोने में एकलाख चर्चों की स्थापना हो और फिर उन चर्चों में हिंदुओं को ईसाइयत में दीक्षित किया जाए। ईसाई मिशनरियों के द्वारा अपने काल के प्रचार-प्रसार में जो पर्चे बांटे जाते हैं उनमें यही बताया जाता है कि हिंदू देवी-देवताओं में कोई भी नैतिक नही है, कोई भी सक्षम नही है। कृष्ण स्वयं चोर थे, और यह कि सारे हिन्दुओं के सारे देवता पापी रहे हैं। (क्रिश्चियन मिशनरी, इन्क्वायरी कमेटी रिपोर्ट पृष्ठ 52-58 वाल्यूम 2, पार्ट 2, 1956)
ऐसे तथ्यों के प्रमाणों के रहते हिंदू महासभा के नेता वीर सावरकर के ये शब्द हमारा मार्गदर्शन आज भी कर सकते हैं कि धर्म परिवर्तन का अर्थ राष्ट्रीयता का परिवर्तन है। हिंदुओं में सहिष्णुता का पागलपन बहुत बढ़ गया है।
विदेशियों ने प्रचारित किया है कि हिंदू धर्म के समान सहिष्णु कोई धर्म नही है।
हिंदू धर्म अंशत: सहिष्णु है और अंशत: असहिष्णु। न्याय से सहिष्णुता और अन्याय से असहिष्णुता, यह हिन्दू धर्म का पाठ है। अन्याय से सहिष्णुता यह कायरता है। इसलिए हिंदुओं को ईसाई धर्म प्रचारकों की गतिविधियों का साहस से प्रतिकार करना चाहिए। हिन्दुत्व निष्ठ संस्थाओं को ईसाई मिशनरियों के विरूद्घ संयुक्त मोर्चा खड़ा करना चाहिए। हिन्दुओं को मिशनरियों का बहिष्कार करना चाहिए। समय रहते सावधान होने से धर्मांतरार्गत राष्ट्रांतरण का संकट टल सकता है। हिंदू जब तक हिन्दू है, तभी तक वह भारत की रक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग कर सकता है, सर्वस्व होम कर सकता है। वह प्यारी मातृभूमि परमपवित्र पुण्यभूमि के लिए प्राण देकर स्वर्ग व मोक्ष प्राप्ति की कामना कर सकता है। किंतु यदि वह धर्म परिवर्तन करके मुसलमान या ईसाई हो गया तो फिर वह क्यों व्यर्थ ही इस मिट्टी के ढेर की रक्षा के लिए प्राण देगा? अत: यह दृढ़ता पूर्वक समझ लेना चाहिए कि इस देश का सच्चा राष्ट्रीय वास्तविक भक्त हिन्दू ही रहा है हिंदू ही रहेगा।
‘थियोसोफीकल सोसायटी’ कीश्रीमती एनी बीसेंट भी थीं, जिन्होंने विदेशी होकर भारतीयता से प्रेम किया और वे भारतीयता से इतनी अभिभूत हुईं कि स्पष्ट कह बैठीं कि जब तक भारत में हिन्दू हैं तभी तक हिंदुस्तान की कल्पना की जा सकती है। उन्होंने विदेशी होकर भारतीयों को भारत के प्रति देशभक्ति से और हिंदू संस्कृति के प्रति आत्मीयता से भरने का प्रयास किया।
मदर टेरेसा के विषय में ऐसे कितने उदाहरण हैं, जब उन्होंने भारत की संस्कृति को विश्व की सर्वाधिकउत्तम संस्कृति घोषित किया हो और भारतीयों को अपनी हिंदू संस्कृति से प्रेम करना सिखाया हो? मदर टेरेसा को उनके कार्यों की समीक्षा और चारित्रिक गुणों की परीक्षा से केवल इसी आधार पर वंचित होने का लाभ नही दिया जा सकता कि वह तो ‘भारत रत्न’ हैं। ‘भारत रत्न’ होने का अभिप्राय है कि भारत के लिए ही व्यक्ति समर्पित रहा हो और भारत के मानवतावाद और भारत की सामासिक संस्कृति का उद्भट प्रस्तोता बनकर उसने भारत के लिए विशेष कार्य किये हों।
हिंदू धर्म में करूणा, मुदिता, न्याय, समानता, सेवा, सदभाव, सम्मैत्री, समभाव इत्यादि मानवीय गुणों को मनुष्य को मनुष्य से देव बनाने की प्रक्रिया के लिए आवश्यक तत्वों के रूप में पूजनीय माना गया है। पर अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली के माध्यम से भारतीय मूल्यों को नई पीढ़ी में न परोसा जाकर ईसाई मूल्यों को उस पर थोपा गया है। जिससे नई पीढ़ी को अंग्रेजी आधुनिकता और सभ्यता की भाषा लगती है। हमारा मानना है कि किसी भाषा को समझना बुरी बात नही है, पर उसी भाषा के महापुरूषों को उस भाषा के माध्यम से समझकर अपने आपको और अपने महापुरूषों को या अपनी संस्कृति को भूल जाना बुरी बात है। अंग्रेजी में भारतीय वेद, उपनिषद, इतिहास, रामायण, महाभारत, कालिदास, गीता पढ़ाये जायें, और उनके अच्छे विचार जनता में प्रचारित किये जायें, इसके लिए अंग्रेजी को किसने रोका है?
यही बात किसी भी ‘मदर या फादर’ पर लागू होती है, ये मानवीय विचारों से लोगों का मार्गदर्शन करें, इससे इन्हें किसने रोका है? पर जब इनकी करूणा या समानता केवल किन्हीं विशिष्ट लोगों के लिए ही या उन लोगों के प्रति ही विस्तार का रूप लेती है, जो भारत में अभाव ग्रस्त हैं, या किसी भी प्रकार से अंग्रेजी संस्कृति से प्रभावित हैं, तो उनका कार्य अवश्य विचारणीय और चिंतनीय हो जाता है। यदि इन लोगों के हृदय में वास्तव में ही मानवतावाद है तो उस मानवतावाद को धर्मांतरित ईसाइयों तक संकीर्ण रखने की आवश्यकता नही पडऩी चाहिए। उसे स्वतंत्र पक्षी के समान खुले और अनंत आकाश में उडऩे देना चाहिए। इन्हें मानव को मानव बनाने का प्रयास करना चाहिए। पर मदर टेरेसा लोगों को मानव नही ईसाई बनाकर गयीं। एक प्रकार से मदर ने वही काम किया जिसका सपना टी.बी.मैकाले ने भारत में अंग्रेजी शिक्षा पद्घति लागू करते समय संजोया था।
टी.बी. मैकाले ने 12 अक्टूबर 1839 को अपने पिता के लिए लिखा था-‘‘हमारे अंग्रेजी स्कूल अद्भुत रूप से सफल हो रहे हैं। इस शिक्षा का हिंदुओं पर बहुत विचित्र प्रभाव हो रहा है। कोई भी हिन्दू जिसने हमारी शिक्षा प्राप्त की, अपने धर्म पर स्थिर नही रह सका। कुछ कहने मात्र को अपने को हिंदू कहते हैं कुछ ईसाई बन जाते हैं, मेरा विश्वास है कि यदि हमारी शिक्षा योजना चलती रही तो तीस वर्ष बाद बंगाल की उच्च जातियों में कोई भी मूर्तिपूजक नही रहेगा।’’
लार्ड मैकाले को चाहे अपने मिशन में सफलता मिली या न मिली, पर उसके काल में उस जैसे लोगों की प्रसन्नता का जो क्रम चला, उसे मदर टेरेसा ने पूर्वोत्तर भारत में व्यापकता प्रदान की। आज मिजोरम की 95 प्रतिशत जनता, नागालैंड की 90 प्रतिशत, मेघालय की 75 प्रतिशत जनता ईसाई बन चुकी है। पहाड़ी क्षेत्रों में तो यह औसत कहीं-कहीं तो शत प्रतिशत हो गया है। इस सबमें मदर टेरेसा का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
मदर के कार्यों की पूर्ति के लिए 13 जनवरी 1997 को चैन्नई में सम्पन्न हुई ‘मिशन इंडिया 2000 काफे्रंस’ में यह तय किया गया था कि हमारा लक्ष्य होगा कि भारत के कोने-कोने में एकलाख चर्चों की स्थापना हो और फिर उन चर्चों में हिंदुओं को ईसाइयत में दीक्षित किया जाए। ईसाई मिशनरियों के द्वारा अपने काल के प्रचार-प्रसार में जो पर्चे बांटे जाते हैं उनमें यही बताया जाता है कि हिंदू देवी-देवताओं में कोई भी नैतिक नही है, कोई भी सक्षम नही है। कृष्ण स्वयं चोर थे, और यह कि सारे हिन्दुओं के सारे देवता पापी रहे हैं। (क्रिश्चियन मिशनरी, इन्क्वायरी कमेटी रिपोर्ट पृष्ठ 52-58 वाल्यूम 2, पार्ट 2, 1956)
ऐसे तथ्यों के प्रमाणों के रहते हिंदू महासभा के नेता वीर सावरकर के ये शब्द हमारा मार्गदर्शन आज भी कर सकते हैं कि धर्म परिवर्तन का अर्थ राष्ट्रीयता का परिवर्तन है। हिंदुओं में सहिष्णुता का पागलपन बहुत बढ़ गया है।
विदेशियों ने प्रचारित किया है कि हिंदू धर्म के समान सहिष्णु कोई धर्म नही है।
हिंदू धर्म अंशत: सहिष्णु है और अंशत: असहिष्णु। न्याय से सहिष्णुता और अन्याय से असहिष्णुता, यह हिन्दू धर्म का पाठ है। अन्याय से सहिष्णुता यह कायरता है। इसलिए हिंदुओं को ईसाई धर्म प्रचारकों की गतिविधियों का साहस से प्रतिकार करना चाहिए। हिन्दुत्व निष्ठ संस्थाओं को ईसाई मिशनरियों के विरूद्घ संयुक्त मोर्चा खड़ा करना चाहिए। हिन्दुओं को मिशनरियों का बहिष्कार करना चाहिए। समय रहते सावधान होने से धर्मांतरार्गत राष्ट्रांतरण का संकट टल सकता है। हिंदू जब तक हिन्दू है, तभी तक वह भारत की रक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग कर सकता है, सर्वस्व होम कर सकता है। वह प्यारी मातृभूमि परमपवित्र पुण्यभूमि के लिए प्राण देकर स्वर्ग व मोक्ष प्राप्ति की कामना कर सकता है। किंतु यदि वह धर्म परिवर्तन करके मुसलमान या ईसाई हो गया तो फिर वह क्यों व्यर्थ ही इस मिट्टी के ढेर की रक्षा के लिए प्राण देगा? अत: यह दृढ़ता पूर्वक समझ लेना चाहिए कि इस देश का सच्चा राष्ट्रीय वास्तविक भक्त हिन्दू ही रहा है हिंदू ही रहेगा।
‘थियोसोफीकल सोसायटी’ कीश्रीमती एनी बीसेंट भी थीं, जिन्होंने विदेशी होकर भारतीयता से प्रेम किया और वे भारतीयता से इतनी अभिभूत हुईं कि स्पष्ट कह बैठीं कि जब तक भारत में हिन्दू हैं तभी तक हिंदुस्तान की कल्पना की जा सकती है। उन्होंने विदेशी होकर भारतीयों को भारत के प्रति देशभक्ति से और हिंदू संस्कृति के प्रति आत्मीयता से भरने का प्रयास किया।
मदर टेरेसा के विषय में ऐसे कितने उदाहरण हैं, जब उन्होंने भारत की संस्कृति को विश्व की सर्वाधिकउत्तम संस्कृति घोषित किया हो और भारतीयों को अपनी हिंदू संस्कृति से प्रेम करना सिखाया हो? मदर टेरेसा को उनके कार्यों की समीक्षा और चारित्रिक गुणों की परीक्षा से केवल इसी आधार पर वंचित होने का लाभ नही दिया जा सकता कि वह तो ‘भारत रत्न’ हैं। ‘भारत रत्न’ होने का अभिप्राय है कि भारत के लिए ही व्यक्ति समर्पित रहा हो और भारत के मानवतावाद और भारत की सामासिक संस्कृति का उद्भट प्रस्तोता बनकर उसने भारत के लिए विशेष कार्य किये हों।
Peace if possible, truth at all costs.