वर्तमान हिंदू समाज में जिनको चमार कहा जाता है, उनका किसी भी रूप में प्राचीन भारत के साहित्य में उल्लेख नहीं मिलता है। डॉ विजय सोनकर शास्त्री के अनुसार, प्राचीनकाल में न तो यह शब्द था और न ही इस नाम की कोई जाति ही थी। ऋग्वेद के दूसरे अध्याय में में बुनाई तकनीक का उल्लेख जरूर मिलता है, लेकिन उन बुनकरों को 'तुतुवाय' नाम प्राप्त था, चमार नहीं।
'अर्वनाइजेशन'की लेखिका डॉ हमीदा खातून लिखती हैं, मध्यकालीन इस्लामी शासन से पूर्व भारत में चर्म एवं सफाई कर्म का एक भी उदाहरण नहीं मिलता है। हिंदू चमड़े को निषिद्ध व हेय समझते थे, लेकिन भारत में मुसलिम शासकों ने इसके उत्पादन के भारी प्रयास किए थे।
डॉ विजय सोनकर शास्त्री के अनुसार, मुस्लिम आक्रांताओं के धार्मिक उत्पीड़न का अहिंसक तरीके से सर्वप्रथम जवाब देने की कोशिश संत शिरोमणी रैदास ने की थी, जिनको सिकंदर लोदी ने बलपूर्वक चर्म कर्म में नियोजित करते हुए 'चमार' शब्द से संबोधित किया और अपमानित किया था। 'चमार शब्द का प्रचलन वहीं से आरंभ हुआ।
संत रैदास ने सार्वजनिक मंच पर शास्त्रार्थ कर मुल्ला सदना फकीर को परास्त किया। परास्त होने के बाद मुल्ला सदना फकीर सनातन धर्म के प्रति नतमस्तक होकर हिंदू बन गया। इससे सिकंदर लोदी आगबबूला हो गया और उसने संत रैदास को पकड कर जेल में डाल दिया था। इसके प्रतिउत्तर में चंवर वंश के क्षत्रियों ने दिल्ली को घेर लिया था। इससे भयभीत हो सिकलंदर लोदी को संत रैदास को छोड़ना पड़ा था।
संत रैदास का यह दोहा देखिए:
बादशाह ने वचन उचारा । मत प्यारा इसलाम हमारा ।।
खंडन करै उसे रविदासा । उसे करौ प्राण कौ नाशा ।।
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जब तक राम नाम रट लावे । दाना पानी यह नहीं पावे ।।
जब इसलाम धर्म स्वीकारे । मुख से कलमा आपा उचारै ।।
पढे नमाज जभी चितलाई । दाना पानी तब यह पाई ।।
समस्या तो यह है कि आपने और हमने संत रविदास के दोहों को ही नहीं पढा, जिसमें उस समय के समाज का चित्रण है। बादशाह सिकंदर लोदी के अत्याचार, इस्लाम में जबरदस्ती धर्मांतरण और इसका विरोध करने वाले हिंदू ब्राहमणों व क्षत्रिए को निम्न कर्म में धकेलने की ओर संकेत है। समस्या हिंदू समाज के अंदर है, जिन्हें अंग्रेजों और वामपंथियों के लिखे पर इतना भरोसा हो गया कि उन्होंने खुद ही अपना स्वाभिमान कुचल लिया
Peace if possible, truth at all costs.