इसका जन्म भारत में ही १८६४ में रावलपिण्डी के निकट पीरपंजाल की पहाडियों में मुरी नामक स्थान पर हुआ था। इसका बचपन शिमला में बती। जब ये लगभग १५ वर्ष की उम्र में लन्दन पढने गया तो वहां इसके साथी इसे ब्लडी इंडियन कहकर पुकारते थे और वैसे भी अभिजात्य अंगे्रजी समाज में इसके परिवार की इज्जत नहीं थी। अत: ये भारतीयों से दिली नफरत करता था। उधमसिंह ने हत्या का मंजर अपनी आंखों से देखा था,अत: उन्होने इस हत्यारे को मारने की शपथ ली थी। किन्तु वे अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर पाते उसके पूर्व ही २३ जुलाई १९२८ को इस नराधम का हृदयाघात से निधन हो गया। उधमङ्क्षसह ने जिस डायर को गाली मारी उसका नाम माईकल ओ डायर था,जो १९१९ में पंजाब प्रान्त का गवर्नर था।
उधमसिंह के बारे में
उधमसिंह का जन्म सन १८९९ में २६ दिसम्बर को पंजाब प्रान्त के संगरुर में हुआ था। इनके पिता का नाम हेटलसिंह था और इनके भाई का नाम मुक्तासिंह था। १९०१ में माताश्री और १९०७ में इनके पिताश्री का देहान्त हो गया। तब दोननो भाईयों को अमृतसर के अनाथालय में भरती किया गया जहां इन्होने सिखधर्म ग्रहण किया। उधमसिंह का बचपन का नाम शेरसिंह था,जिसे सिख बनने के बाद उधमसिंह और भाई का नाम साधुसिंह रखा गया। इनके भाई की १९१७ में मृत्यु हो गई।
१९१९ में जलियांवाला बाग काण्ड के बाद इनके जीवन का उद्देश्य डैयर की हत्या कर बदला लेना था,इसके लिए इन्होने कई देशों जैसे अफ्रीका,इटली,इग्लैण्ड,फ्रान्स आदि में नौकरियां की। ये वर्षों तक भटकते रहे और अपना नाम राम मोहम्मद सिंह आजाद रख लिया। हिन्दू मुस्लिम,सिख तीनो धर्मों को मिलाकर यह नाम उनके लिए धर्मनिरपेक्षता का प्रतीक था। जब रैजीनोल्ड डायर १९२८ में अपनी मौत मर गया तो इन्हे अपनी प्रतिज्ञा पूरी न कर पाने का बडा दुख हुआ। फिर उधमसिंह ने माइकल ओ डायर तथा तत्कालीन स्टेट सेक्रेटरी जीटलण्ड को मार डालने की सोची और इस कार्य के लिए इग्लैण्ड गए। वहां इन्हे १३ मार्च १९४० को मौका मिला।
कैक्सटन हाल का गोलीकाण्ड
१३ मार्च १९४० को लन्दन के कैक्सटन हाल में शाम को माइकल ओ डायर का भाषण का प्रोग्राम था। उधमसिंह को ये बात पता चली तो ये पुस्तक में पिस्तौल छिपाकर हाल में पंहुच गए। पुस्तक को बीच में से इस प्रकार काटा गया कि उसमें पिस्तौल छुप जाए। जैसे ही डायर भाषण देकर स्टेज से उतर रहा था,उधमङ्क्षसह ने उसे शूट कर दिया। इतना ही नहीं उधमसिंह ने जीटलैण्ड को भी गोली मारी जो उसके हाथ में लगी,जबकि निकट बैठे एक अंग्रेज की जांघ टूट गई। उधमसिंह को पकड लिया गया और जब उन्हे पता चला कि केवल डायर की मृत्यु हुई है,जीटलैण्ड साफ बच गया है,तो उन्हे उसके बच जाने का बडा अफसोस हुआ था। ३१ जुलाई १९४० को उधमसिंह को लन्दन की जेल में फांसी दे दी गई। इस प्रकार उधमसिंह ने २१ वर्ष बाद जलियांवाला बाग काण्ड का बदला लिया।
भारत में प्रतिक्रिया
जनरब डायर की मृत्यु की भारत में बहुत अच्छी प्रतिक्रिया हुई थी। आम जनता जलियांवाला बागकाण्ड का बदला लेने से खुश थे। नौजवानों ने जगह जगह सम्मेलनों में उदमसिंह जिन्दाबाद,उधमसिंह अमर रहे के नारे लगाए,किन्तु गांधी जी व नेहरु जी की प्रतिक्रियाएं अत्यन्त दुखभरी थी। गांधी जी ने अपने समाचार पत्र हरिजन में लिखा था कि मै उधमसिंह के इस कार्य से अत्यन्त दुखी हूं। माइकल ओ डायर से हमारे मतभेद हो सकते है,किन्तु क्या हमें उनकी हत्या कर देना चाहिए? ये हत्या एक पागलपन में किया गया कार्य है और अपराधी पर बहादुरी के अहं का नशा सवार है। जीटलैण्ड से हमारे मतभेद होते हुए भी उनके प्रति कोई विद्वेष की भावना नहीं है। मै इस काण्ड पर खेद व्यक्त करता हूं। पं. नेहरु ने कहा कि मुझे हत्या का गहरा दुख है और मै इसे शर्मनाक कृत्य मानता हूं। गौरलब है कि इन्ही नेहरु ने १९६२ में पंजाब में भाषण देते समय कहा था कि मै उधम सिंह को नमन करता हूं। उधमसिंह ने फांसी का फन्दा स्वीकार करके हमें आजादी प्रदान की है।
केवल सुभाषचन्द्र बोस ने उधमसिंह के इस काण्ड की जमकर तारीफ की थी। उन्होने इस कृत्य को जायज ठहराया और कहा कि इस समय द्वितीय विश्वयुध्द में संलग्र ब्रिटेन की अस्थिरता का हमे फायदा उठाना चाहिए। युध्द के पश्चात अंग्रेज हमे आजादी दे देंगे। जैसा कि गांधी जी व नेहरु सोचते है,गलत है। ऐसा सोचकर हमे चुपचाप नहीं बैठना चाहिए। वाईसराय के कांग्रेस से पूछे बगैर भारत को द्वितीय विश्वयुध्द में शामिल करने का भी बोस ने विरोध किया। गांधी जी को समय का फायदा उठाने के बारे में सुभाष बोस ने खूब समझाया किन्तु सब बेकार। जब बात नहीं बनी तो उन्होने कलकत्ता में आयोजित सम्मेलन में अपने भाषण में कहा कि उधमसिंह ने आजादी का बिगुल बजा दिया है।
विदेशों में प्रतिक्रिया- उधमसिंह द्वारा डायर की हत्या की योरोप में अच्छी प्रतिक्रिया हुई। खासकर जर्मनी ने खूब तारीफ की। जर्मनी में बर्लिन से निकलने वाले समाचार पत्रों में इस कृत्य को भारत की स्वतंत्रता की ङ्क्षचगारी कहा। जर्मनी रेडियो ने कहा कि नरसंहार से उत्पीडित व्यक्तियों की आवाज आज गोली की आवाज के रुप में आई है। जिस प्रकार हाथी बदला लेना नहीं भूलते ठीक इसी प्रकार भारतीय लोग भी बदला लेना नहीं भूलते हैं और बीस वर्ष बाद बदला लेकर एक भारतीय ने ये सिध्द कर दिया है। लन्दन टाईम्स ने उधमसिंह को स्वतंत्रता का लडाकू कहा तो दूसरे समाचार पत्र ने उसे निडर व निर्भीक कहा।
उधमसिंह के परिवार की हालत
उधमसिंह के पौत्र व प्रपौत्र आज बुरी हालत में है। पौत्र जीतसिंह और उनका पुत्र दोनो दिहाडी मजदूरी करते है तथा भवन निर्माण में ईंट गारा उठाते हैं।
जहां एक ओर करोडो रुपए के घोटाले रोज सामने आते है,जहां हाल में निवृतमान राष्ट्रपति ने केवल विदेश यात्राओं में २ अरब अर्थात २०० करोड रुपए खर्च किए हो,उस देश में एक शहीद का परिवार भूखों मरने की कगार पर है। यदि ऐसा होता रहा तो कौन इस देश के लिए शहीद होना चाहेगा?
उधमसिंह,भगतसिंह,आजाद और अन्य शहीद भी तो दूसरे लोगों की तरह विलासितापूर्ण जीवन जी सकते थेष उन्हे क्या पडी थी अपना जीवन बलिदान करने की। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश के कर्णधारों के जब इन शहीदों के बारे में अच्छे विचार न हो तो फिर इनके परिवारों की ये हालत तो होना ही है।
एक ताजा खबर के अनुसार,रिजर्व बैंक की रिपोर्ट में कहा गया है कि देश की बैंकों में २५०० करोड अर्थात २५ अरब रुपया लावारिस है जिसे पूछने पिछले १० वर्षों से कोई नहीं आया है,वहां उधमसिह का परिवार भूखों मर रहा है। वाह रे इण्डिया।
Peace if possible, truth at all costs.