भारत में इस्लामी आक्रमण एवं धर्मान्तरण का खूनी इतिहास (भाग-३)। ऐतिहासिक प्रमाणों के साथ।

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१०-तिमूर या तैमूरलंग (१३९८-१३९९)
तिमूर ने अपनी जीवनी में लिखा-
'लगभग उसी समय मेरे मन में एक अभिलाषा आयी कि मैं हिन्दुस्तान के काफिरों और मूर्तिपूजकों के विरुद्ध जिहाद प्रारम्भ करूं और उन्हें इस्लाम का पवित्र प्रकाश दिखाऊं। 'इस विषय में मैनें अपने मौलवियों एवं उलेमाओं से मशविरा किया और अपने सिपहसालारों को उनके विरुद्ध जिहाद की आज्ञा दे दी।'
(तिमूर की जीवनी-मुलफुजात-ई-तिमूर : एलियट और
डाउसन, खण्ड III पृष्ठ ३९४-९५)
भाटनिर (जो आजकल राजस्थान के गंगानगर जिले का हनुमान गढ़ है) में काफिरों का नरसंहार ।
'इस्लाम के योद्धाओं ने हिन्दुओं पर चारों ओर से
आक्रमण कर दिया और समय की बहुत छोटी अवधि में ही दस हजार हिन्दुओं के सिर काट दिये गये।
काफिरों के रक्त से इस्लाम की तलवार अच्छी तरह धुल गई और सारा खजाना सैनिकों की लूट का माल हो गया।'
(वही पुस्तक, पृष्ठ ४२१-२२)
सिरसा में नरसंहार
'तिमूर ने आगे लिखा- जब मैंने सरस्वती नदी के विषय
में पूछा, मुझे बताया गया कि उस स्थान के लोग इस्लाम के पंथ से अनभिज्ञ थे। मैंने अपनी सैनिक टुकड़ी उनका पीछा करने भेजी और एक महान युद्ध हुआ।
सभी हिन्दुओं का वध कर दिया गया या धर्मान्तरित कर दिया गया। मारे गये हिन्दुओं की सम्पत्तियाँ ,वस्तुएँ व औरतें मुसलमानों के लिए लूट का माल हो गईं। सैनिक अपने साथ कई हजार हिन्दू महिलाओं और बच्चों को साथ लेकर वापिस लौटे।
इन हिन्दू महिलाओं को इस्लाम के पवित्र योद्धाओं के मध्य बाँट दिया गया और बच्चों को मुसलमान बनाकर श्रमकार्यों में लगा दिया गया।'
(वही पुस्तक, पृष्ठ ४२७-२८)
जाटों का नरसंहार
तिमूर ने लिखा - ' मेरे ध्यान में आया कि ये उत्पाती जाट चींटी की भाँति असंखय हैं और इन जाटों का पराभव (वध) कर देना इस्लाम के लिए आवश्यक है।
मैं जंगलों और बीहड़ों में घुस गया, और दो हजार जाटों का वध कर दिया...उसी दिन
सैय्यद मुसलमानों का एक दल, जो वहीं निकट ही रहता था, बड़ी विनम्रता व शालीनता से मुझसे भेंट करने आया और उनका बड़ी शान से स्वागत किया गया।
(उसी पुस्तक में, पृष्ठ ४२९)
इस संदर्भ में यह बताना आवश्यक हो जाता है कि वहाँ के सैय्यद मुसलमान, अपने पड़ोसी जाटों के साथ न तो तनिक भी सहयोगी हुए, और न उन्होंने उनके साथ कोई भी सहानुभूति ही दिखाई; वरन् अपने मजहब के आक्रमणकारियों, द्वारा जाटों के नरसंहार पर खूब प्रसन्न हुए।
लोनी में चुन चुन कर कत्लेआम
जमुना के उस पार देहली के निकट शहर, लोनी,
की विजय का वर्णन करते हुए तिमूर लिखता है।
' उन्तीस तारीख को मैं पुनः अग्रसर हुआ और जमुना नदी पर पहुँच गया। नदी के दूसरे किनारे पर
लोनी का दुर्ग था। अनेकों राजपूतों नें अपनी पत्नियों और बच्चों को में घरों में बन्द कर आग लगा कर मार दिया; और युद्ध क्षेत्र में आ गये, शैतान की भाँति लड़े, और अन्त में मार दिये गये। दुर्ग रक्षक दल के अन्य लोग भी लड़े, और कत्ल कर दिये गये और बहुत से बन्दी बना लिये गये और धर्मान्तरित कर दिये गये। दूसरे दिन मैंने आदेश दिया कि मुसलमान-बन्दियों को पृथक कर बचा लिया जाए किन्तु गैर-मुसलमानों को तलवार द्वारा कत्ल कर दिया जाए।
मैंने यह भी आदेश दिया कि मुसलमानों के घरों को सुरक्षित रखा जाए, किन्तु अन्य सभी घरों को लूट लिया जाए, और विनष्ट कर दिया जाए।'
(मुलफुज़ात-ई-तिमूरी,अनुवाद एलियट और डाउसन,
खण्ड III पृष्ठ ४३२-३३)
एक लाख असहाय हिन्दुओं का एक ही दिन में कत्ल
हिन्दुओं के वध एवं रक्तपात में उसे कितना आनन्द आता था, इसके विषय में तिमूर ने लिखा -
'अमीर जहानशाह और अमीर सुलेमान शाह और अन्य अनुभवी अमीरों ने मेरे ध्यान में लाया,कि जब से हम हिन्दुस्तान में घुसे हैं तब से अब तक हमने १००००० हिन्दू बन्दी बनाये हैं और उन्होंने इस्लाम स्वीकार नहीं किया वे सभी मेरे डेरे में हैं।
मैंने बन्दियों के विषय में मौलवियों का परामर्श माँगा, और उन्होंने कहा, कि इन बन्दियों को लूट के सामान की तरह छोड़ा नहीं जा सकता; और मैंने इस्लामी युद्ध के
नियमों के अनुरूप सीधे ही सभी डेरों में आदेश दे दिया, कि प्रत्येक व्यक्ति जिसके पास युद्ध बन्दी हैं, उन्हें मृत्यु को सौंप दें ।
इस्लाम के गाजियों को जैसे ही आदेशों का ज्ञान हुआ, उन्होंने बन्दियों को मौत के घाट उतार दिया। १००००० 'अविश्वासी 'अपवित्र मूर्ति पूजक', (हिन्दू) उस दिन कत्लकर दिये गये।
मौलाना नसीरुद्दीन उमर, मेरा एक परामर्श दाता और
विद्वान, जिसने अपने सारे जीवन में जहाँ एक
चिड़िया भी नहीं मारी थी, मेरे आदेश के पालन में, उसने
अपने पन्द्रह हिन्दू बन्दियों का वध कर दिया।
(उसी पुस्तक में, पृष्ठ ४३५-३६)
दिल्ली में चुन चुनकर कत्ल
' महीने की छः तारीख को मैंने देहली को लूट लिया,
ध्वंस कर दिया। हिन्दुओं ने अपने ही हाथों अपने
घरों में आग लगा दी, और अपनी पत्नियों और
बच्चों को उन घरों के भीतर जला दिया, और युद्ध में
दैत्यों की भाँति कूद पड़े, और मार दिये गये...उस दिन
बृहस्पतिवार को और शुक्रवार की पूरी रात्रि को लगभग
पन्द्रह हजार तुर्क, हिन्दुओं का वध करने, लूटने और विनाश कार्य में लिप्त थे...अगले दिन शनिवार को भी पूरे दिन उसी प्रकार का क्रिया कलाप चलता रहा और लूट इतनी अधिक थी कि कोई व्यक्ति ऐसा नहीं था जिसके पास बीस से अधिक पुरूष,महिलाएं और बच्चे बन्दी न हों। और दूसरे प्रकार की लूट भी माणिक, मोती, हीरों के रूप में अथाह व असीमित थी।
औरतें तो इतनी अधिक मात्रा में हाथ लगीं कि गिनती से परे थीं।
उलेमाओं और दूसरे मुसलमानों को छोड़कर और जिन्होंनें इस्लाम स्वीकार किया; को छोड़कर सभी का वध कर दिया गया और सारे शहर को विध्वंस कर दिया।'
(उसी पुस्तक में, पृष्ठ ४४५-४६)
मोहम्मद हबीब और ए. के. निजामी ने, ए कम्प्रीहैन्सिव हिस्ट्री ऑफ इण्डिया, खण्ड ५ दी 'सुल्तानेट्स', (पृष्ठ १२२) पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस ऑफ इण्डिया, नई दिल्ली, पुस्तक में से बन्दी व वध हुए हिन्दू पुरुष,महिला बच्चों सम्बन्धी इस लेख में से 'हिन्दू' शब्द को जानबूझ कर हटा दिया है।
यमुना के किनारे-किनारे जिहाद
तिमूर ने लिखा था- 'जुमादा-ई-अव्वाल के पहले दिन
मैंने अपनी सेना की बाईं ओर के भाग, को अमीर जहाँशाह के नेतृत्व में सौंप दिया और आदेश दे दिया कि यमुना के किनारे-किनारे ऊपर की ओर अग्रसर हुआ जाए और मार्ग में आने वाले प्रत्येक दुर्ग, शहर व गाँव को विजय किया जाए और देश के सभी गैर-मुसलमानों को तलवार से काट दिया जाए...मेरे वीर
अनुयायियों ने आज्ञा पालन किया और शत्रुओं
का पीछा किया और उनमें से बहुतों को मार दिया और
उनकी पत्नियों और बच्चों को बन्दी बना लिया। जब अल्लाह की कृपा से मैंने विजय प्राप्त कर ली। मैं अपने घोड़े से उतर आया और अल्लाह को धन्यवाद देने के लिए भूमि पर लेट गया और साष्टांग प्रणाम किया।
(उसी पुस्तक में, पृष्ठ ४५१-५४)
हरिद्वार के कुम्भ मेले में रक्तपात
तिमूर ने आगे लिखा था-' मेरे वीर आदमियों ने बड़े
साहस और चुनौती का प्रदर्शन किया और गंगा स्नान
के पर्व के अवसर पर हिन्दुओं के वध में परिश्रम
किया, उन्होंने काफिरों में से बहुतों को वध कर दिया और उनका पीछा किया जो पर्वतों की ओर भागे।
उनमें से इतनों का वध किया गया कि उनका रक्त पर्वतों और मैदानों में बहने लगा। इस प्रकार सभी को नर्क की अग्नि में झोंक दिया गया।
(उसी पुस्तक में, पृष्ठ ४५९)
शिवालिक में इस्लाम का प्रवेश
तिमूर ने लिखा-' जुमादा-ई-अव्वाल के
दसवें दिन शिवालिक के काफिरों से युद्ध करने व
उन का वध करने के निश्चय के साथ मैं अपने घोड़े पर
चढ़ा और अपनी तलवार खींच ली। वीर-योद्धाओं ने कट मरे हिन्दुओं के शवों के अनेकों ढेर बना दिये।
पहाड़ी की सभी महिलायें व बच्चे बन्दी बना लिये गये।
अगले दिन मैंने यमुना नदी पार कर ली और शिवालिक
पहाड़ी की दूसरी ओर डेरा लगा दिया।��
इस लूट में सैनिकों को असीमित वस्तुएं और बहुमूल्य पदार्थ, बन्दी, और पशु प्राप्त हुए। उनमें से किसी के पास एक या दो सौ गायों और दस या बीस दासों से कम न थे।'
(उसी पुस्तक में, पृष्ठ ४६२-४६४)
कांगड़ा में जिहाद
'शिवालिक के उस पार घाटी में मैं जैसे
ही घुसा तो हिन्दुओं के एक विशाल शहर, नगर कोट,
के विषय में मुझे सूचना दी गई, तो तुरन्त ही मैंने अमीर
जहाँ शाह को शत्रु पर आक्रमण करने के लिए आदेश
दिया। इस्लाम के पवित्र योद्धाओं ने हाथों में तलवारें
लेकर भगोड़ों के मध्य घुस जाने का साहस दिखाया और
हिन्दुओं की लाशों के ढेर लगा दिये। बहुतांश संख्या में,
वध कर दिये गये, और विजेताओं के हाथ में एक महान
लूट के रूप में विशाल संख्या में, वस्तुएं, बहुमूल्य
पदार्थ व बन्दी आये।'
(वही पुस्तक, पृष्ठ ४६५-६६)

११-बाबर (१५१९-१५३०)
भारत में मुगल साम्राज्य के संस्थापक, बाबर ने उत्तरपश्चिम सीमा प्रान्त के, एक छोटे से राज्य, बिजनौर, में अपनी भारतविजय के प्रारम्भिक काल १५१९ में आक्रमण किया जिसमें उसे मुजाहिद की उपाधि मिली थी। उसने अपनी जीवनी, बाबरनामा, में इस घटना का बड़े आनन्द व हर्षोल्लास, के साथ वर्णन किया था।
'चूंकि बिजौरीवासी इस्लाम के शत्रु व विद्रोही थे, अत: उनका समावेशी नर संहार किया गया। उनकी पत्नियों और बच्चों को बन्दी बना लिया गया।
एक अनुमान के अनुसार तीन हजार व्यक्ति मौत के घाट उतारे गये,नर्क पहुँचाये गये। दुर्ग को विजयकर जब हमने उसमें प्रवेश किया और उसका निरीक्षण किया। दीवालों के सहारे, घरों में, गलियों में, गलियारों में, अनगित संख्या में हिन्दू मृतक पड़े हुए थे। आने वाले व जाने वाले सभी को शवों के ऊपर से ही जाना पड़ा था..
मुहर्रम के नौवें दिन मैंने आदेश दिया कि मैदान में हिन्दू मृतक सिरों की एक मीनार बनाई जाए।
(बाबरनामा अनु. ए. एस. बैवरिज, नई
दिल्ली पुनः छापी १९७९, पृष्ठ ३७०-७१)
बाबर में अपने पूर्वज तिमूर की भांति हिन्दू सिरों की मीनारें खड़ी करने की एक असाधारण लगन थी।
हमारे वामपंथी इतिहासकारों ने बाबर को एक दक्ष,चतुर,
भावुक कवि चित्रित किया है। लेकिन उसी के शब्दों में वो एक महान गाजी (काफिरों का कातिल) था।
'इस्लाम के निमित्त मैं जंगलों में भटका।
मूर्ति पूजकों व हिन्दुओं के विरुद्ध प्रस्तुत हुआ।
शहीद की मृत्यु स्वयं पाने का निश्चय किया,
अल्लाह का धन्यवाद कि मैं गाजी हो गया हूँ।'
(उसी पुस्तक में, पृष्ठ-५७४-७५)
बाबरी मस्जिद
१५२८-२९ में, बाबर के आदेशानुसार, मुगल सैन्य संचालक, मीरबाकी ने, भगवान राम
की जन्मभूमि अयोध्या मन्दिर का विध्वंस कर दिया और एक लाख पचहत्तर हजार हिन्दुओं को मारकर पानी की जगह उनके रक्त को मसाले में मिलाकर उस स्थान पर एक मस्जिद बनवा दी।'
(उसी पुस्तक में, पृष्ठ ६५६, और मुस्लिम स्टेट इन
इण्डिया, के. एस. लाल),
(लखनऊ गजेटियर, लार्ड कनिंघम)
गुरु नानक देव द्वारा बाबर की निन्दा
पंजाब के ऐमनाबाद अंचल में सन १५२२ में बाबर
की सैन्यवाहिनी ने जिस क्रूरता के साथ हज़ारों नागरिकों के सामूहिक कत्ल के साथ सम्पूर्ण अंचल को नष्ट कर उसे मलवे के ढेर में परिवर्त्तित कर दिया उसे देखकर गुरूनानक देव अत्यंत ही द्रवित एवं व्यथित हो उठे।
उसी के परिणामस्वरूप उन्होंने बाबरगाथा नामक
अपनी काव्यकृति की सृष्टि की।
१९ रागों वाले बाबरगाथा में नानकदेव ने लिखा है: बाबर अपने पापों की बरात लेकर हमारे देश पर चढ़ आया है और ज़बर्दस्ती हमारी बेटियों के हाथ माँगने पर आमादा है। धर्म और शर्म दोनों कहीं छिप गये लगते हैं। हमलावर लोग हर रोज़ हमारी बहू-बेटियों को उठाने में लगे हैं ।
हे ईश्वर, क्यों तुमने हिन्दुस्तान को बाबर द्वारा पैदा की गयी आग में झोंक दिया है। तेरे दिल में क्या कुछ भी दर्द नहीं है?
जिन महिलाओं के मस्तक पर उनके बालों की लटें लहराया करती थीं और उन लटों के बीच जिनका सिन्दूर प्रज्ज्वलित और प्रकाशमान रहता था, उनके सिरों को उस्तरों से मूंड डाला गया है और चारों ओर से धूल उड़ उड़ कर उनके ऊपर पड़ रही है। जो औरतें किसी ज़माने में महलों में निवास करती थीं उनको आज सड़क पर भी कहीं ठौर नहीं मिल पा रही है। कभी उन स्त्रियों को विवाहिता होने का गर्व था और पतियों के साथ वह प्रसन्नता के साथ अपना जीवन-यापन करती थीं आज उनके गलों में मोतियों की लड़ियाँ टूट चुकी हैं।
बड़े बड़े राजमहल आग की भेंट चढ़ा दिये गये, राजपुरूषों के टुकड़े-टुकड़े कर उन्हें मिट्टी में मिला दिया गया। जिनकी अर्ज़ियाँ भगवान के दरबार में फाड़ दी गयी हों, उनको बचा भी कौन
सकता है?
(बाबरगाथा और गुरु नानक, पृष्ठ १२५, प्रकाशन विभाग, भारतसरकार)
विजयानगरम् का विनाश (१५६५)
काम्पिल के राजा के पुत्रों, हरिहर और बुक्का द्वारा स्थापित विजया नगरम् अपने समय में पूरे विश्वभर में सर्वाधिक सम्पन्न राजधानियों में से एक थी जो स्वयं में सौन्दर्य एवं कला का एक आश्चर्य ही है। इस हिन्दू राज्य में धन, सम्पदा, संस्कृति और उदार मानव समाज था।
भारत में भ्रमणार्थ आये यात्री, दुआर्ते बारबोसा के शब्दों में,
''विजया नगर के राजाओं ने आज्ञा दे रखी थी कि कोई भी व्यक्ति, कभी भी, कहीं भी आये या जाये; और बिना किसी कैसी भी रुकावट, असुविधा के, स्वेच्छानुसार अपने मतानुसार अपना जीवन यापन करे। उसे यह पूछने या बताने की आवश्यकता नहीं थी कि वह ईसाई, मुसलमान या विधर्मी है। वह जो भी है सुख से स्वेच्छानुसार रहे।
सर्वत्र सभी द्वारा समता, न्याय और
आत्मीयता ही देखने को थी।''
(दुआर्ते बारबोसा की पुस्तक, खण्ड १, पृष्ठ २०२)
उदाहरणार्थ, ''(१४१९-१४४९) में देव राय ने आदेश
निकाला कि मुसलमानों को सेवाओं में रखा जाए, उन्हें
सम्पत्तियाँ आवण्टित कीं, और विजयनगर में मुसलमानों के लिए एक मस्जिद भी बनावाईं।
इसी वंश के राम राजा ने विजयनगर के निकट के मुस्लिम शासक, सुल्तान अली आदिल शाह जिसे कई बार उन्होनें युद्ध में पराजित किया था को उसका राज्य लौटाकर उसके साथ उदारता पूर्वक शांति स्थापित कर ली। जो उनकी सबसे बड़ी भूल साबित हुई।
सुल्तान ने मूर्ति पूजकों (गैर-मुसलमानों) के साथ धोखाधड़ी कर देने सम्बन्धी कुरानी (३ः११८) आज्ञा का पालन करते हुए दक्षिण भारत की मुस्लिम रियासतों का एक संघ बनाकर, इस राज्य के विरुद्ध जिहाद कर दिया।
२३ जनवरी १५६५ को ताली कोट के यृद्ध के अन्तिम दिन राम राजा के दो मुसलमान सेना नायकों द्वारा धोखा देकर पक्ष त्याग देने के कारण वो जीता हुआ युद्ध हार गये।
कैसर फ्रैडरिक, जिसने उस समय विजय नगर को देखा था, ने कहा था कि इन दोनों सेना नायकों के नेतृत्व में प्रत्येक के अधीन सत्तर से अस्सी हजार योद्धा थे, इनके पक्ष त्याग व धोखा धड़ी के कारण ही विजया नगर की हार हुई।
राम राजा शत्रुओं के हाथ लग गये और हसन के आदेशानुसार उनका सर काट दिया गया।''
(आर. सी. मजूमदार सं. हिस्ट्री एण्ड कल्चर ऑफ
दी इण्डियन पीपुल, बी वी बी, खण्ड VII पृष्ठ ४२५)
अब्बास खान शेरवानी ने अपने ऐतिहासिक अभिलेख
तारीख-ई-फरिश्ता में लिखा- ' 'पवित्र सेनाओं ने सुल्तान के साथ हिन्दुओं का पीछा किया इतनी मात्रा में कत्ल किया कि रक्त बहने लगा और नदी का पानी रक्त रंजित हो गया।
सर्वश्रेष्ठ अधिकारियों ने गणना की थी कि हजारों अविश्वासी, हिन्दू व्यक्तियों का वध किया गया था। लूटपाट इतनी व्यापक और अधिक थी कि संघीय सेना का प्रत्येक व्यक्ति सोने, जवाहरात, आयुध, घोड़े और दास सभी से बेहद धनी हो गया,
उन्होंने लूटपाट की, प्रत्येक प्रमुख भवन को गिराकर
भूमि सात कर दिया, और हर सम्भव प्रकार
का अत्याचार किा।''
(तारीख-ई-फरिश्ता, अब्बास खान शेरवानी, एलियट
और डाउसन, खण्ड IV, पृष्ठ ४०७-०९)
दार-उल-हरब का विनाश
''तीसरे दिन, अन्त का प्रारम्भ हुआ।
विजयी मुसलमानों ने पूर्ण निर्ममतापूर्वक हिन्दू लोगों को काटा, कत्ल किया, मन्दिरों और पूजा घरों को तोड़ डाला, और अतिसुन्दर राजमहलों का इतनी असभ्यता,
बर्बरता पूर्ण बदले की भावना प्रदर्शित करते हुए विनाश किया कि जहाँ शाही भवन हुआ करते थे उन स्थानों की पहचान के लिए वहाँ अवशेषों के ढेर मात्र रह गये।
ऐसा नहीं लगता था कि उनसे कुछ भी बच पया हो।
आकर्षक एवं महिमा पूर्ण ढंग से सजे भवनों को विनष्ट करने के लिए उन्होंने व्यापक व विशालकाय आग लगा दी, और उनके अनुपम रूप में सुन्दर पत्थर की भवन निर्माण कला का ध्वंस कर दिया।
विश्व के इतिहास में सम्भवत कभी भी ऐसे विनाश का काम नहीं किया गया है। समूचा नगर हिन्दुओं से खाली कर दिया गया जो या तो वध कर दिये गये, पलायन कर गये अथवा इस्लाम स्वीकार कर अपने प्राणों की रक्षा की। समस्त सुन्दर व ऐश्वर्यवान शहर को खण्डहरों में बदल दिया गया, और ऐसे असभ्य, बर्बर, आतंकपूर्ण व यातनापूर्ण वातावरण के मध्य कि उसका वर्णन भी न किया जा सके।''
(रौबर्ट स्वैल : ऐ फौरगौटिन ऐम्पायर, पृष्ठ
१९९-२००, न्यू देहली, पुनः मुद्रित १९६६)

to be continued ..in part-4

नोट- इन ऐतिहासिक वर्णनों में एक शब्द भी मेरा नहीं है। ये पूरा वर्णन खुद इन सुल्तानों के नजदीकी इतिहास लेखकों का है जो इनकी विजयों को लेखनबद्ध करने के लिए हमेशा इनके साथ ही रहा करते थे।
जिन्हें बाद में एलियट और डाउसन ने अपनी पुस्तक "The history of India as told by its own
historians" में अनुवाद किया था।
अपनी पुस्तक के लोकार्पण के समय दोनों ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया था कि इन अमानवीय अत्याचारों के अनुवाद के दौरान उन्हें कई दिनों तक नींद नहीं आयी और कई बार वो रो पड़े थे।

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