१२-शेर शाह सूरी (१५४०-१५४५)
शेरशाह सूरी एक अफगान था जिसने देहली में केवल पाँच वर्ष राज्य किया।
वामपंथी इतिहासकार कहते हैं कि उसने पेशावर से लेकर पूर्वी बंगाल तक छतीस सौ मील लम्बी ग्रांड ट्रंक रोड बनाई जबकि पाँच साल के इतने छोटे समय के दौरान वह अनेकों युद्धों में फंसा रहा और पूरी सड़क के आधे क्षेत्र में भी उसका शासन नहीं था तो आखिर उसने इतनी लम्बी सड़क बनाई कैसे..??
और सड़क के निर्माण का उस समय के किसी भी ऐतिहासिक अभिलेख में कोई भी वर्णन उपलब्ध नहीं है। यही नहीं सेकुलरिस्ट उसे धर्मनिरपेक्ष, परोपकारी और दयालु कहकर उसकी प्रशंसा भी करते हैं।
अब्बास खान रिजिवी ने अपने इतिहास अभिलेख
तारीख-ई-शेरशाही में लिखा-
"१५४३ में शेरहशाह ने रायसीन के हिन्दू दुर्ग पर
आक्रमण किया। छः महीने के घोर संघर्ष के उपरान्त
रायसीन का राजा पूरनमल हार गया। शेर शाह द्वारा दिये गये सुरक्षा और सम्मान के वचन का हिन्दुओं ने विश्वास कर लिया, और समर्पण कर दिया। किन्तु अगले दिन प्रातः काल हिन्दू, जैसे ही किले से बाहर आये, शेरशाह के आदेश पर अफगानों ने चारों ओर से आक्रमण कर दिया, और हिन्दुओं का वध प्रारम्भ कर दिया और एक आँख के इशारे मात्र समय में ही, सबके सब वध हो गये। महाराज पूरनमल की पत्नियाँ और परिवार बन्दी बना लिये गये। पूरन मल की एक पुत्री और उसके बड़े भाई के तीन पुत्रों को जीवित ले जाया गया और शेष को मार दिया गया।
शेरशाह ने राजा पूरनमल की पुत्री को किसी घुम्मकड़ बाजीगर को दे दिया जो उसे बाजार में नचा सके, और लड़कों को बधिया(खस्सी) प्रक्रिया द्वारा नपुंसक बनाकर अफसरों के हरम में औरतों की देखभाल करने के लिए भेज दिया।''
(तारीख-ई-शेरशाही : अब्बास खान शेरवानी, अनुवाद एलिएट और डाउसन, खण्ड IV, पृष्ठ ४०३)
अब्बास खान ने आगे लिखा-
'' उसने अपने घुड़सवारों को आदेश दिया कि हिन्दू गाँवों की जाँच पड़ताल करें, उन्हें मार्ग में जो पुरुष मिलें, उन्हें वध कर दें, औरतों और बच्चों को बन्दी बना लें, पशुओं को पकड़ लें, किसी को भी खेती न करने दें, पहले से बोई
फसलों को नष्ट कर दें, और किसी को भी पड़ोस के भागों से कुछ भी न लाने दें।''
(उसी पुस्तक में पृष्ठ ३१६)
१३-अहमद शाह अब्दाली (१७५७ और १७६१)
मथुरा और वृन्दावन में जिहाद (१७५७)
''किसान जाटों ने निश्चय कर लिया था कि ब्रज भूमि की पवित्र राजधानी में मुसलमान आक्रमणकारी उनकी लाशों पर होकर ही जा सकेंगे...
मथुरा के आठ मील उत्तर में २८ फरवरी १७५७ को जवाहर सिंह ने दस हजार से भी कम आदमियों के साथ आक्रमणकारियों का जीवन मरण की बाजी लगाकर, प्रतिरोध किया।
"सूर्योदय के बाद युद्ध नौ घण्टे तक चला। हिन्दू प्रतिरोधक अब आक्रमणकारियों के सामने बुरी तरह धराशायी हो गये। प्रथम मार्च के दिन निकलने के बहुत प्रारम्भिक काल में अफगान अश्वारोही फौज नें मथुरा शहर में किसी प्रकार की भी दया नहीं दिखाने की मनस्थिति में पूरे चार घण्टे तक, हिन्दू जनसंख्या का बिना किसी पक्षपात के, भरपूर मात्रा में, दिलखोलकर, नरसंहार व विध्वंस किया।
अंतत: प्राणरक्षार्थ काफिर हिन्दू अल्लाह के पंथ इस्लाम के प्रकाश में आये उनमें लगभग सभी के सभी निहत्थे असुरक्षित व असैनिक ही थे। उनमें से कुछ पुजारी थे... ''मूर्तियाँ तोड़ दी गईं और इस्लामी वीरों द्वारा, पोलों की गेदों की भाँति, ठुकराई गईं'',
(हुसैनशाही पृष्ठ ३९)''
''नरसंहार के पश्चात ज्योंही अहमद शाह की सेनायें मथुरा से आगे चलीं गई तो नजीब व उसकी सेना, वहाँ पीछे तीन दिन तक रूकी रही।
असंखय धन लूटा और बहुत सी सुन्दर हिन्दू महिलाओं
को बन्दी बनाकर ले गया।'' (नूर १५ b )
यमुना की नीली लहरों ने अपनी उन सभी पुत्रियों को शाश्वत शांति दी जितनी उसकी गोद में दौड़कर समा सकीं। कुछ अन्यों ने, अपने सम्मान सुरक्षा और अपमान से बचाव के लिए निकटस्थ, अपने घरों के कुओं में, कूदकर मृत्यु का आलिंगन कर लिया।
किन्तु उनकी उन बहिनों के लिए, जो जीवित तो रही परन्तु उनके सामने मृत्यु से भी कहीं अधिक बुरा जीवन था।
घटना के पन्द्रह दिन बाद एक मुस्लिम प्रत्यक्षदर्शी ने विध्वंस हुए शहर के दृश्य का वर्णन किया है।
''गलियों और बाजारों में सर्वत्र वध किये हुए काफिर व्यक्तियों के सिररहित, धड़, बिखरे पड़े थे। सारे शहर में आग लगी हुई थी। बहुत से भवनों को तोड़ दिया गया था।
जमुना में बहने वाला पानी, पीले जैसे रंग का था मानो कि रक्त से दूषित हो गया हो।''
''मथुरा के विनाश से मुक्ति पा, जहान खान आदेशों के अनुसार देश में लूटपाट करता हुआ घूमता फिरा।
मथुरा से सात मील उत्तर में, वृन्दावन भी नहीं बच सका...
पूर्णतः शांत स्वभाव वाले, आक्रामकताहीन, सन्त विष्णु भक्तों का वृन्दावन में भीषण नरसंहार किया गया।
(६ मार्च) उसी मुसलमान डाइरी लेखक ने वृन्दावन का भ्रमण कर लिखा था; ' 'जहाँ कहीं तुम देखोगे काफिरों के शवों के ढेर देखने को मिलेंगे। तुम अपना मार्ग बड़ी कठिनाई से ही निकाल सकते थे क्योंकि शवों की संख्या के आधिक्य और बिखराव तथा रक्त के बहाव के कारण मार्ग पूरी तरह रुक गया था। एक स्थान पर जहाँ हम पहुँचे तो देखा कि....
दुर्गन्ध और सड़ान्ध हवा में इतनी अधिक थी कि मुँह
खोलने और साँस लेना भी कष्ट कर था''
(फॉल ऑफ दी मुगल ऐम्पायर-सर जदुनाथ सरकार, नई दिल्ली १९९९ पृष्ठ ६९-७०)
अब्दाली का गोकुल पर आक्रमण
''अपन डेरे की एक टुकड़ी को गोकुल विजय के लिए भेजा गया। किन्तु यहाँ पर राजपूताना और उत्तर भारत के नागा सन्यासी सैनिक रूप में थे। राख लपेटे नग्न शरीर चार हजार सन्यासी सैनिक, बाहर खड़े थे और तब तक लड़ते रहे जब तक उनमें से सारे के सारे मर न गये, और उतने ही शत्रु पक्ष के सैनिकों की भी मृत्यु हुई।
सारे वैरागी तो मर गये, किन्तु शहर के देवता गोकुल नाथ बचे रहे, जैसा कि एक मराठा समाचार पत्र ने लिखा।''
(राजवाड़े प ६३, उसी पुस्तक में, पृष्ठ ७०-७१)
पानीपत में जिहाद (१७६१)
''युद्ध के प्रमुख स्थल पर कत्ल हुए शवों के इकत्तीस, पृथक-पृथक, ढेर गिने गये थे। प्रत्येक ढेर में शवों की संख्या, पाँच सौं से लेकर एक हजार तक,
और चार ढेरों में पन्द्रह सौ तक शव थे, कुल मिलाकर
अट्ठाईस हजार शव थे।
इनके अतिरिक्त मराठा डेरे के चारों ओर की रवाई शवों से पूरी तरह भरी हुई थी। लम्बी घेराबन्दी के कारण, इनमें से कुछ रोगों, और अकाल के शिकार थे,
तो कुछ घायल आदमी थे, जो युद्ध स्थल से बचकर,
रेंग रेंग कर, वहाँ मरने आ पहुँचे थे।
भूख और थकान के कारण, मरने वालों के शवों से, जंगल और सड़क भरे पड़े थे।
उनमें तीन चौथाई असैनिक और एक चौथाई सैनिक थे। जो घायल पड़े थे शीत की विकरालता के कारण मर गये।''
''संघर्षमय महाविनाश के पश्चात पूर्ण निर्दयतापूर्वक, नर संहार प्रारम्भ हुआ।
मूर्खता अथवा हताशा वश कई लाख मराठे जो विरोधी वातावरण वाले शहर पानीपत में छिप गये थे,
उन्हें अगले दिन खोज लिया गया, और एक मैदान में ले जाकर तलवार से वध कर दिया गया।
एक विवरण के अनुसार अब्दुल समद खान के पुत्रों और मियाँ कुत्ब को अपने पिता की मृत्यु का बदला ले लेने के लिए पूरे एक दिन भर मराठों के लाइन लगाकर वध करने की शाही, अनुमति मिल गई थी'',
और इसमें लगभग नौ हजार लोगों का वध किया गया था खभाऊ बखर १२३,;
वे सभी प्रत्यक्षतः, असैनिक व निहत्थे ही थे।
प्रत्यक्षदर्शी काशीराज पण्डित ने इस दृश्य का वर्णन इस प्रकार किया है-
''प्रत्येक सैनिक ने, अपने-अपने डेरों से, सौ या दो सौ, बन्दी बाहर निकाले, और यह चीखते हुए, कि, वह अपने देश से जब चला था तब उसकी माँ, बाप, बहिन और पत्नी ने उससे कहा था कि पवित्र जिहाद में विजय पा लेने के बाद वह उन प्रत्येक के नाम से इतने काफिरों का वध करे कि उन अविश्वासियों के वध के कारण, उन्हें धार्मिक श्रेष्ठता की मान्यता मिल जाए',
और उन्हें डेरों के बाहरी क्षेत्रों में ले जाकर तलवारों से वध कर दिया। ( ' सुरा ८ आयत ५९-६०)
''इस प्रकार हजारों सैनिक और अन्य नागरिक पूर्ण निर्ममता पूर्वक कत्ल कर दिये गये। शाह के डेरे में उसके सरदारों के आवासों को छोड़कर, प्रत्येक डेरे के सामने कटे हुए शिरों के ढेर पड़े हुए थे।''
(उसी पुस्तक में, पृष्ठ २१०-११)
१४-औरंगजेब (१६५८ - १७०७)
औरंगजेब द्वारा हिन्दुओं पर अमानवीय अत्याचारों की गाथा इतनी लम्बी है कि उसे संक्षिप्त लेख में बिल्कुल नहीं लिखा जा सकता है। उसकी केवल दो नीतियाँ थी काफिरों,सिखों को पकड़कर उन्हें इस्लाम या मृत्यु में से एक स्वीकार करवाना और दूसरा मन्दिरों का विध्वंस करके उनके स्थान पर मस्जिदें खड़ी करवाना।
गुरु तेग बहादुर का वध
गुरुजी ने हिन्दू ब्राह्मणों के गुहार पर कश्मीर में धर्म परिवर्तन के प्रतिरोध का नेतृत्व किया, इससे औरंगजेब क्रुद्ध हो गया और उसने गुरु जी को बन्दी बना लिया। औरंगजेब ने गुरु जी के सामने मृत्यु और इस्लाम में से एक को चुन लेने का विकल्प प्रस्तुत किया। गुरु जी ने धर्म त्याग देने को मना कर दिया और शहंशाह के आदेशानुसार,पाँच दिन तक अमानवीय यंत्रणायें देने के उपरान्त, गुरु जी का सिर काट दिया गया।
(विचित्र नाटक-गुरु गोविन्द सिंहः ग्रन्थ सूरज
प्रकाश-भाई सन्तोख सिंह : इवौल्यूशन ऑफ खालसा,
प्रोफैसर आई बनर्जी, १९६२)
औरंगजेब द्वारा भारतीय हिन्दू समाज के एक बड़े हिस्से को अत्याचारिक तरीकों द्वारा नरसंहार एवं धर्मान्तरित कर देने एवं प्राचीन भव्य मन्दिरों का विध्वंस कर देने की लम्बी कहानी अत्यंत संक्षिप्त रूप में पढ़ें:
औरंगजेब द्वारा मन्दिरों का विनाश
''सीतादास जौहरी द्वारा सरशपुर के निकट बनवाये
गये चिन्तामन मन्दिर का विध्वंस कर, उसके स्थान पर
शहजादे औरंगजेब के आदेशानुसार १६४५ में क्वातुल-
इस्लाम नामक मस्जिद बनावा दी ग्ई।'' (मीरात-ई-
अहमदी, २३२)। दी बौम्बे गजेटियर खण्ड I भाग I
पृष्ठ २८० ''मन्दिर में एक गाय
का वध भी किया गया।''
''मेरे ओदशानुसार, मेरे प्रवेश से पूर्व के दिनों में, अहमदाबार और गुजरात के अन्य परगनों में अनेकों मन्दिरों का विध्वंस कर दिया गया था।
(मीरात पृष्ठ. २७५)
''औरंगाबाद के निकट सतारा गाँव में पहाड़ी के शिखर पर खाण्डेराय का मूर्ति युक्त एक मन्दिर था। अल्लाह की कृपा से मैंने उसे ध्वंस कर दिया।''
(कालीमात-ई-अहमदी, पृष्ठ ३७२)
१९ दिसम्बर १६६१ को मीर जुम्ला ने, कूचविहार शहर में प्रवेश किया और आदेश दिया कि सभी हिन्दू मन्दिरों को ध्वंस कर दिया जाए और उनके स्थन पर मस्जिदें बनवा दी जाएँ।
"जनरल ने स्वयं, युद्ध की कुल्हाड़ी नेकर, नारायण की मूर्ति का ध्वंस कर दिया।''
(स्टुअर्ट्स बंगाल)
''जैसे ही शहंशाह ने सुना कि दाराशिकोह ने मथुरा के
केशवराय मन्दिर में पत्थरों की एक बाड़ को पुनः स्थापित करा दिया है, उसने कटाक्ष किया,
कि इस्लामी पंथ में तो मन्दिर की ओर देखना भी पाप
है और इसने मन्दिर की बाड़ को पुनः स्थापित
करा दिया है। मुहम्मदियों के लिए वह आचरण जनक
नहीं है। बाड़ को हटा दो। उसके आदेशानुसार मथुरा के
फौजदार अब्दुलनबी खान ने बाड़ को हटा दिया एवं इस युद्ध में बड़ी संख्या में काफिरों का नरसंहार हुआ।''
(अखबारातः ९वाँ वर्ष, स्बीत ७, १४ अक्टूबर १६६६)
२० नवम्बर १६६५ ''गुजरात प्रान्त के निकट के क्षेत्रों के लोगों ने ध्वंस किये गये मन्दिरों को पुनः बना लिया है... अतः शहंशाह आदेश देते हैं कि... पुनः स्थापित मन्दिरों को ध्वंस कर दिया जाए''
(फरमान जो मीरात २७३ में दिया गया)
९ अप्रैल १६६९ ''सभी प्रान्तों के
गवर्नरों को शहंशाह ने आदेश दिया कि काफिरों के सभी स्कूलों और मन्दिरों का विध्वंस कर दिया जाए और उनकी शिक्षा और धार्मिक क्रियाओं को पूरी शक्ति के साथ समाप्त कर दिया जाए-
''मासिर-ई-आलमगीरी"
मई १६६९ ''सलील बहादुर को मालारान के मन्दिर को तोड़ने के लिए भेजा गया।''
(मासीर-ई-आलम गीरी ८४)
२ सितम्बर १६६९ ''शाही आदेशानुसार शहंशाह के अफसरों ने बनारस के विश्वनाथ मन्दिर का ध्वंस कर
दिया (उसी पुस्तक में, ८८)
जनवरी १६७० ''रमजान के इस महीने में शहंशाह ने मथुरा के केशव मन्दिर के ध्वंस का आदेश किया। उसके अफसरों ने आज्ञा पालन किया बहुत बड़े खर्च के साथ उस मन्दिर के स्थान पर एक मस्जिद बना दी गई।
महान पन्थ इस्लाम के अल्लाह की खयाति बढ़े कि मन्दिर में स्थापित छोटी बड़ी सारी मूर्तियाँ, जिनमें बहुमूल्य जवाहरात जड़े हुए थे, आगरा नगर में लाई गईं, और जहाँनारा मस्जिद की सीढ़ियों में लगा दी गईं ताकि, उन्हें निरन्तर पैरों तले रौंदा जा सकें।''
(उसी पुस्तक में पृष्ठ ९५-९६)
''सैनोन के सीता राम जी मन्दिर का उसने आंशिक
ध्वंस किया; उसके अफसरों में से एक ने पुजारी को काट
डाला, मूर्ति को तोड़ दिया, और गोंड़ा की देवीपाटन के मन्दिर में गाय काटकर मन्दिर को अपवित्र कर दिया।''
(क्रुक का एन. डब्ल्यू. पी. ११२)
''कटक से लेकर उड़ीसा की सीमा पर मेदिनीपुर तक के
सभी थानों के फौजदारों, प्रशासन अधिकारियों के लिए आदेश प्रसारित किये गये कि; विगत दस बारह सालों में, जो भी मूर्तिघर बना हो, भले वह ईंटों से बनाया गया हो, या मिट्टी से, प्रत्येक को अविलम्ब नष्ट कर दिया जाए। घृणित अविश्वासियों को इस्लाम पंथ के प्रकाश में लाया जाए अन्यथा उनका वध कर दिया जाए।"
[मराकात-ई-अबुल हसन, (१६७० में पूर्ण की गई)
पृष्ठ २०२]
''उसने ८ मार्च १६७९ को खण्डेला और शानुला के
मन्दिरों का ध्वंस कर दिया और आसपास, अड़ौस
पड़ौस, अन्य के मन्दिरों को भी ध्वंस कर दिया।''
(मासीर-ई-आलमगीरी १७३)
२५ मई १६७९, ''जोधपुर में मन्दिरों का ध्वंस करके
और खण्डित मूर्तियों की कई गाड़ियाँ भर कर खान जहान बहादुर लौटा। शहंशाह ने आदेश दिया कि मूर्तियों, जिनमें अधिकांश सोने, चाँदी, पीतल, ताँबा या पत्थर की थीं, को दरबार के चौकोर मैदान में बिखेर दिया जाए और जामा मस्जिद की सीढ़ियों में लगा दिया जाए ताकि उनकों पैरों तले रौंदा जा सके।''
(मासीर-ई-आलमगीरी पृष्ठ १७५)
१७ जनवरी १९८० ''उदयपुर के महाराणा के महल के
सामने स्थित, एक विशाल मन्दिर, जो अपने युग के
महान भवनों में से एक था, और काफिरों ने जिसके निर्माण के ऊपर अपार धन व्यय किया था, उसे विध्वंस कर दिया गया, और उसकी मूर्तियाँ खण्डित कर दी गईं।''
(मासीर-ई- आलमगीरी १६८)
''२४ जनवरी को शहंशाह उदय सागर झील को देखने
गया और उसके किनारे स्थित तीनों मन्दिरों के ध्वंस का आदेश दे आया।''
(पृष्ठ १८८, उसी पुस्तक में)।
''२९ जनवरी को हसन अली खाँ ने सूचित
किया कि उदयपुर के चारों ओर के अन्य १७२ मन्दिर
ध्वंस कर दिये गये हैं''
(उसी पुस्तक में पृष्ठ १८९)
''१० अगस्त १६८० आबू टुराब दरबार में लौटा और
उसने सूचित किया कि उसने आमेर में ६६ मन्दिर तोड़
दिये हैं''
(पृष्ठ १९४)।
२ अगस्त १६८० को पश्चिमी मेवाड़ में सोमेश्वर मन्दिर को तोड़ देने का आदेश दिया गया।
(ऐडुब २८७a और २९०a)
सितम्बर १६८७ गोल कुण्डा की विजय के पश्चात् शहंशाह ने 'अब्दुल रहीम खाँ को हैदराबाद शहर का कोतवाल नियुक्त किया और आदेश दिया कि गैर मुसलमानों के रीति रिवाजों व
परम्पराओं तथा इस्लाम धर्म विरुद्ध नवीन
विचारों को समाप्त कर दें, काफिरों का वध कर दें अथवा इस्लाम में दीक्षित कर लें और मन्दिरों को ध्वंस कर
उनके स्थानों पर मस्जिदें बनवा दें।''
(खफ़ी खान ii ३५८-३५९)
''१६९३ में शहंशाह ने वाद नगर के मन्दिर हाटेश्वर, जो नागर ब्राह्मणों का संरक्षक था, को ध्वंस करने का आदेश किया''
- (मीरात ३४६)
१६९८ के मध्य में ''हमीदुद्दीन खाँन बहादुर, जिसे बीजापुर के मन्दिरों को ध्वंस करने और उस स्थान पर
मस्जिद बनाने के लिए नियुक्त किया था,
आदेशों का पालन कर दरबार में वापिस आया था।
शहंशाह ने उसकी प्रशंसा की थी।''
(मीरात ३९६)
''मन्दिर का ध्वंस किसी भी समय सम्भव है क्योंकि वह अपने स्थान से भाग कर नहीं जा सकता''
-(औरंगजेब से जुल्फि कार खान और मुगल खान
को पत्र (कलीमत-ई-तय्यीबात ३९ं)
''अभियानों के मध्य कुल्हाड़ियाँ ले जाने वाले
सरकारी आदमियों के पास पर्याप्त शक्ति व अवसर नहीं रहता अत: गैर-मुसलमानों के मन्दिरों को, तोड़ कर चूरा करने के लिए ,तुम्हें एक दरोगा नियुक्त कर देना चाहिए जो बाद में सुविधानुसार मन्दिरों को ध्वंस करा के उनकी नीवों को खुदवा दिया करे।''
(औरंगजेब से, रुहुल्ला खान को कांलीमत-ई-औरंगजेब
में पृष्ठ ३४ रामपुर M.S. और ३५a I.0.L.M.S.
३३०१)
१ जनवरी १७०५ ''कुल्हाड़ीधारी आदमियों के दरोगा,
मुहम्मद खलील को शहंशाह ने बुलाया... ओदश
दिया कि पण्ढरपुर के मन्दिरों को ध्वंस कर दिया जाए
और डेरे के कसाइयों को ले जाकर, मन्दिरों में
गायों का वध कराया जाए... आज्ञा पालन हुई''
(अखबारात ४९-७)
इस्लामी शैतानों की सूची इतनी लम्बी है एवं भारत समेत पूरी दुनियाँ में उनके द्वारा किये गये भीषण रक्तपात एवं अमानवीय अत्याचारों द्वारा करवाये गये धर्मपरिवर्तन की कहानी भी इतनी लम्बी है कि इन्हें संक्षिप्त से भी संक्षिप्त करके लिखना उन सभी असहाय भारतीय नागरिकों के साथ अन्याय है जो इनके हाथों बेरहमी से मारे गये।
सच तो ये है कि मुगल और अन्य सभी मुस्लिम आक्रमणकारी भारत में अय्याशी, लूट-खसोट, मार-काट एवं अन्य तरीकों से इसे दारूल हरब से दारूल इस्लाम बनाने में ही लगे रहे।
इन्होंने देश को कुछ इमारतों, कब्रों, मजारों एवं एक बड़ी धर्मान्तरित आबादी के अलावा कुछ नहीं दिया।
इनके हजार साल के शासन काल में एक भी वैज्ञानिक आविष्कार नहीं हुआ। बल्कि इस देश की आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक दशा में विनाशकारी एवं विभाजनकारी बदलाव आ गये।
कभी-कभी तो लगता है इनसे बेहतर तो ब्रिटिश थे जिन्होंने लूट-खसोट तो किया पर भारत को कानूनी एवं संवैधानिक लोकतंत्र, रेल, पुल, डाक, टेलीफोन, बिजली, चिकित्सा क्रान्ति, तरह-तरह के आवागमन के साधन एवं ज्ञान विज्ञान की नयी-नयी तकनीकें भी देकर गये जिनका लाभ हमें आज तक मिल रहा है
Peace if possible, truth at all costs.