कश्मीर घटी अपने ही गुन्हो की सजा..

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कश्मीर में पाकिस्तान परस्त मुसलमानों द्वारा छेड़ी गई तथाकथित आजादी की जंग का खामियाजा आज उन्हीं मुस्लिम परिवारों को भुगतना पड़ा है जिन्होंने कभी आतंकवादियों तथा पाकिस्तान के बहकावे में आकर सड़कों पर निकल कर आजादी समर्थक प्रदर्शनों में भाग लिया था।
हालांकि आजादी का सपना तो पूरा नहीं हुआ, परंतु उनके परिवारों के कई लोगों को जिन्दगी से आजादी अवश्य मिल गई। और यह आजादी किसी और ने नहीं,
बल्कि मुस्लिम आतंकवादियों ने ही दी है मौत के रूप में।
धरती के स्वर्ग कश्मीर में फैले इस्लामी कट्टरपंथ एवं आतंकवाद का एक दर्दनाक पहलू यह है कि पाकिस्तान द्वारा कश्मीर में जो अप्रत्यक्ष युद्ध छेड़ा हुआ है उसके अधिकतर शिकार होने वाले मुस्लिम ही हैं और यह भी सच है कि इस्लाम के नाम पर ही आज पाक प्रशिक्षित आतंकवादी मुस्लिम लड़कियों को अपनी हवस का शिकार बना रहे हैं।
हालांकि हिन्दू भी इस आतंकवाद का शिकार हुए हैं, किन्तु समय रहते उनके द्वारा पलायन कर लिए जाने के
परिणामस्वरूप उतनी संख्या में वे इसके शिकार नहीं हुए
जितने कि मुस्लिम हुए और हो रहे हैं।
26 सालों के आतंकवाद के दौर के दौरान कश्मीर में अनुमानतः 17,000 लोग आतंकवादियों के हाथों मारे गए हैं और दिलचस्प बात यह है कि इन 17,000 में से 15,000 से अधिक मुस्लिम ही हैं।
कश्मीर में आज कोई ऐसा परिवार नहीं है जिसके एक या दो सदस्य आतंकवादियों या सुरक्षाबलों की गोलियों से न मारे गए हों बल्कि मौतों के अतिरिक्त इन परिवारों के लिए दुखदायी बात यह है कि उनके परिवार के कई सदस्य अभी भी लापता हैं, जो आतंकवादियों के साथ गये थे अथवा सुरक्षाबलों द्वारा हिरासत में लिए गए थे। आज भी उनके प्रति कोई जानकारी नहीं है।
इससे और अधिक चौंकाने वाला तथ्य क्या हो सकता है कि हिन्दुओं के कश्मीर छोड़ देने के बाद कश्मीर में आतंकवाद के पूरे दौर के दौरान जितनी भी महिलाएं तथा युवतियां आतंकवादियों के सामूहिक बलात्कार की शिकार हुई हैं वे सभी मुस्लिम ही थीं जिनकी अस्मत इस्लाम के लिए जंग लड़ने वालों ने लूट ली।
कश्मीर में सैकड़ों मुस्लिम युवतियों तथा महिलाओं को अपनी जान तथा अस्मत से इसलिए भी हाथ धोना पड़ा, क्योंकि उन्होंने आतंकवादियों के लिए कार्य करना स्वीकार नहीं किया।
आतंकवादियों की कार्रवाईयों से सबसे अधिक त्रस्त मुस्लिम ही हुए हैं। इसका प्रमाण घाटी में होने वाली हत्याओं से तो मिलता ही है, अपहरणों तथा युवतियों के साथ होने वाले बलात्कार की घटनाओं से भी मिलता है। गौरतलब है कि आतंकवादियों ने करीब 5,000 लोगों को अपनी अपहरण नीति का शिकार बनाया है और इसमें 99 प्रतिशत मुस्लिम ही थे।
यह भी एक तथ्य है कि आतंकवाद के दौर के दौरान मारे
जाने वाले 23 हजार से अधिक आतंकवादी भी मुस्लिम
ही थे, जो पाकिस्तान के बहकावे में आकर आतंकवाद के पथ पर चल निकले थे उस आजादी को हासिल करने के लिए, जो मात्र एक छलावा थी और वे इस प्रक्रिया में मौत की नींद सो गए।
कश्मीर की जमीनी हकीकत जानने वाला हर आदमी ये
जानता है कि कश्मीर में कोई जंग आज़ादी की नहीं है। यह सिर्फ गैर मुस्लिमों के खिलाफ नफरत, उनके क़त्ल ए आम और बलात्कार की लड़ाई है। क्योंकि पहला काम जो इस जंग के शुरू में किया गया वो था हजारों सालों से कश्मीर में बसने वाले कश्मीरी हिन्दुओं को कश्मीर से बाहर निकालना। जिस को भी ‘कश्मीरियत’ की सच्चाई जाननी है वो दो दिन कश्मीर घाटी में बिता ले। गैर मजहबी लोगों से जिहादी नफरत का नाम इन्होंने कश्मीरियत रखा है। यह वही नफरत है जो अल क़ायदा और इस्लामिक स्टेट्स (ISIS) की गले काटने वाली वीडिओ में पायी जाती है।
कश्मीरी अलगाववादी और आतंकवादियों की जन्नत के रास्ते हिंदुस्तान की हार से गुजरते हैं।
कभी जैश ए मोहम्मद के मौलाना मसूद अज़हर को सुनना। पता चलेगा ये कश्मीरियत और इसकी जंग क्या है। वह कहता है- जिहादी लश्कर हिंदुस्तान को फतह करेंगे। जब तक हिंदुस्तान फतह नहीं होगा, जन्नत नहीं खुलेगी।
मजहबी नफरत के इस जहर को कश्मीरियत बता कर कश्मीर की नस्लें बड़ी हुई हैं। काफिरों से लड़ो, उन्हें नेस्तनाबूत करो, यही मजहब है, और मजहब ही कश्मीरियत है। जो इस मजहब में यकीन नहीं लाये, उसे
क़त्ल करो। यह है कश्मीरियत जो जैश और लश्कर ने
कश्मीरियों को पढ़ाई है।
नफरत की ये खूनी कहानी तब से शुरू हुई जब नब्बे के दशक में कश्मीर की बर्फ से ढकीं वादियाँ आग उगल रही थीं। हजारों मुजाहिदीन के जत्थे पाकिस्तान से तैयार होकर कश्मीर में आकर गले मिल रहे थे। मकसद था कश्मीर से कश्मीरी हिन्दू-सिखों और बाकी अल्पसंख्यक समुदाय का क़त्ल ए आम , उनका पलायन और अंत में कश्मीर को हिंदुस्तान से अलग करना।
लश्कर ए तैय्यबा, हरकत उल मुजाहिदीन, हिज्ब उल मुजाहिदीन और ना जाने कितने आतंकवादी संगठन कश्मीर से मजहब के नाम पर लड़कों की भर्ती करते, उन्हें पाकिस्तान ट्रेनिंग के लिए भेजते और फिर वापस लाकर कश्मीर में खून बहाने के लिए खुला छोड़ देते।
और फिर हिन्दुओं का क़त्ल ए आम, बलात्कार और पलायन शुरू हुआ। सदियों से बसने वाले पांच लाख कश्मीरी हिन्दू और सिख अपने पूर्वजों के घर कश्मीर वादी छोड़ने को मजबूर हुए। सैंकड़ों क़त्ल कर दिए गए। न जाने कितनी महिलाओं को क़त्ल करने से पहले उनकी इज्जत को तार-तार किया गया। मस्जिदों से हिन्दुओं को घाटी से भगाने या कत्ल करने का खुलेआम ऐलान होने लगा। दुधमुंहे बच्चों से लेकर बीमार और लाचार बुजुर्गों तक की हत्या की गयी। पीढ़ियों से साथ मिलकर रहने वाले मुस्लिम पड़ोसी ही जान के दुश्मन बन कर आतंकवादियों के साथ मिलकर हिन्दुओं और सिखों पर टूट पड़े। आम आदमी और आतंकवादी में फर्क करना मुश्किल था।
भारत- पाकिस्तान के क्रिकेट मैच होते थे तो घाटी पाकिस्तान के झंडों से हरी हो जाती थी। कोई देशभक्त हिंदुस्तान के झंडे के साथ दिख नहीं सकता था। तिरंगा जलाने, हिन्दुस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाने, पाकिस्तानी झंडा फहराने जैसी घटनाएँ रोज की बात हो गयीं।
कुछ ही समय में कश्मीर को असली कश्मीरियों (हिन्दुओं-सिखों) से खाली कर दिया गया।
इतिहास के इस सबसे भयानक पलायन पर न तो देश के मानवाधिकारवादी कुछ बोले और न ही केन्द्र सरकार के कानों पर जूं रेंगी। सोहराबुद्दीन और इसरतजहां जैसे खूंखार आतंकवादियों की मौत पर दिन रात आंसू बहाने वाले सेकुलर राजनीतिक दलों एवं तीस्ता सीतलवाड़ और अरुंधति रॉय जैसी पराक्रमी जीवों के मुंह पर भी ताला लग गया।
कश्मीर घाटी से हिंदुओं के चले जाने से वहाँ ऐसे जश्न मनाये थे कि मानों इस्लामी ताकतों ने अपना लक्ष्य पूरा कर लिया है और कश्मीर अब निजामे -मुस्तफा बन गया है।
आतंकवादियों को अब तक समझ में आ चुका था कि मजहब के नाम पर कश्मीर का एक बड़ा वर्ग उनके साथ आ चुका है। उन्होनें उत्साहित होकर बचे-खुचे हिन्दुओं और सिखों के खून से कश्मीर की धरती को लाल करना शुरू कर दिया। पूरे कश्मीर पर मानों आतंकवादियों का राज हो चुका था और पाकिस्तानी मुजाहिदीन कश्मीर पर दावा ठोक रहे थे।
इस वक़्त भारत की सेना ने कश्मीर में लगी आग को अपने खून से बुझाया। हकीकत में पूरी मानव जाति के इतिहास में भारत की सेना ने जितने मानव अधिकार उल्लंघन सहे उसके उदाहरण ज्यादा नहीं मिलेंगे। हमारे सैनिक महीनों बन्दूक के साये में सोते, जागते, खाते, जीते और मरते रहे। पत्थरों पर पत्थर बन कर कई दिन तक पड़े रहते ताकि सरहद पार से आने वाले आतंकवादियों को रोका जा सके। हमारे सैनिक बम धमाकों में मारे जाते। लाश चिथड़े बनकर बिखर जाती और घर केवल खाली वर्दी भेजी जाती। फौजी अगर मुजाहिदीन के हाथ लगते थे तो पहले जिस्म के एक एक हिस्से को धीरे धीरे काट कर अलग किया जाता था फिर मरने के लिए छोड़ दिया जाता था।
वहीं हजारों बेगुनाह हिन्दुओं और सिखों का कत्ल कर हत्यारे मुजाहिदीन "गाज़ी"कहलाये। जिन्हें कश्मीर की कट्टरपंथी जनता का भारी समर्थन प्राप्त था। कश्मीर की आजादी के लिए लड़ने वाले इन हीरो गाजियों में बड़ी संख्या में स्थानीय मुस्लिम युवक भी शामिल थे। उन दिनों मुजाहिदीनों में बहुत मशहूर था कि जेहाद की राह में जीवित रहे तो आजाद कश्मीर में एक सम्पन्न और ऐश से भरी जिन्दगी मिलेगी और यदि शहीद हो गये तो जन्नत में ७२ हूरें मिलेंगी।
आज वही कश्मीर कलंक, तंगहाली और आतंक के साये में जीने को मजबूर है। असल में कश्मीरी उन गुनाहों की सजा भुगत रहे हैं जो उनकी जमीन पर उन्हीं की आँखों के सामने हुई थी। पर दुर्भाग्य देखिए ज्यादातर कश्मीरी इसके लिए भारतीय सेना और सरकार को दोष देते हैं पाकिस्तान या आतंकवादियों को नहीं।
आज भी कश्मीर में कई अलगाववादी संगठन मौजूद हैं जिन्हें लोगों का समर्थन भी मिलता है और समय-समय पर इनके द्वारा भारतविरोधी बयान भी सुनने को मिलते है।
अभी भी कश्मीर में तिरंगा जलाया जाता है और पाकिस्तान तथा ISIS के झंडे फहरते दिख जाते हैं। एक बात तो यहाँ के लोगों और इनके नेताओं ने साबित कर दी है कि मुल्क और तरक्की इनके लिए कोई मुद्दा नहीं है यदि कोई मुद्दा है तो वो है केवल मजहब।
इस्लामी आतंकवाद का कश्मीर के मुस्लिमों को क्या-क्या खामियाजा भुगतना पड़ा इसे कोई भी अपनी आंखों से देख सकता है। घाटी में तबाह हो चुकी अर्थव्यवस्था, अनपढ़ और गंवार होती आने वाली पीढ़ियां, आतंकवाद की भेंट चढ़ चुकी खूबसूरत इमारतें तथा अन्य वस्तुएं इस्लामी आतंकवाद के कुप्रभाव की मुंह बोलती तस्वीरें हैं । फिर भी कश्मीर का एक बड़ा वर्ग हिन्दुस्तान की काफिर हुकूमत से आजादी का सपना देखता है। वो भी केवल मजहब के नाम पर। धर्मान्धता और संकीर्णता की इस मानसिकता पर तरस आता है।
इतना भुगतने के बाद भी इनकी मानसिकता में कोई फर्क नहीं आया। पता नहीं ये सब कब बदलेगा।

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