एन्डरसन कांड !! ... पोलिटिकल गेम .. पुरा डीटेक्शन..
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सप्टेम्बर 1984 !!
भोपाल में यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री में एसा केमिकल हथियार का परीक्षण होनेवाला था जो सुरक्षा प्रबंधन का उल्लंघन था !! भोपाल के एक स्थानीय दैनिक में पत्रकार राजकुमार केसवानी ने यूनियन कार्बाइड में खौलते जहर की तमाम खबरें दीं। मगर इन खबरों पर कान देने वाला कोई नहीं था। सरकार चैन की नींद सोती रही। राजकुमार केसवानी लगातार खबरें लिखते रहे। उन्होंने राष्ट्रीय अखबारों में भी कार्बाइड के कारनामे का खुलासा किया मगर भोपाल में बैठी सरकार ही कंपनी की निगहबान बनी बैठी थीं।
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8 अक्टूबर 1984 को केसवानी ने आखिरी खबर बेहद गुस्से में लिखी थी। हेडिंग थी--"अब भी सुधर जाओ वर्ना मिट जाओगे।" ....
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2 डीसेम्बर 1984 की वो रात !!
भोपाल में यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री में 610 टैंक में मिथाइल आइसोसाइनाइट गैस छेद से विनाश हुवा था। हजारो निर्दोष लोगो की जान गई थी। सुबह की पहली किरण तक नगर की हर गली में, हर चौराहे पर, अस्पताल में, स्टेशन पर, ठेले पर, घर में लाशें बिखरी पड़ी थी।हर तरफ लाशें ही नजर आ रही थीं।
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एक सतर्क पत्रकार की चेतावनी को नजर अंदाज करने का नतीजा पूरा भोपाल भुगत रहा था।
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अधिक तथ्यों को समजिए :→
2-3 दिसंबर की रात जिस मिथाइल आइसोसाइनाइट ने भोपाल महानगर में जो विनाश बरता वह गैस हाइड्रोजन साइनाइट से 500 गुना अधिक जहरीली थी. इसका "आविष्कार" पहले विश्वयुद्ध की देन थी. मिथाइल आइसोसाइनाइट को शून्य डिग्री सेन्टीग्रेट पर प्रिजर्व रखना होता है और संवेदनशीलता इतनी अधिक है कि यह अपने आप विस्फोटित हो सकता है. इतनी जहरीली गैस को भोपाल के यूनियन कार्बाइड कारखाने में निर्मित नहीं किया जाता था बल्कि उसे अमेरिका से आयात किया जाता था. जिस अमेरिका से इसे आयात किया जाता था उस अमेरिका में नियम ऐसा सख्त था कि आधा टन से अधिक मिथाइल आइसोसाइनाइट को एक साथ रखना प्रतिबंधित है. लेकिन भारत में उस वक्त लापरवाही ऐसी कि जिस टैंक से रिसाव हुआ उसमें 67 टन मिथाइल आइसोसाइनाइट रखा हुआ था.
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निश्चित रूप से यूनियन कार्बाइड की स्थापना के साथ ही इस बात के पुख्ता इंतजाम किये गये थे कि जहरीले रसायन के कारोबार में कंपनी को किसी प्रकार के अवरोध का सामना न करना पड़े. निश्चित रूप से इसके लिए कंपनी ने उस वक्त की समाजवादी आर्थिक व्यवस्था के साथ जमकर खिलवाड़ किया होगा. उदाहरण देखिए. 1 जनवरी 1973 में भारत सरकार ने फेरा कानून को लागू किया और तय किया कि किसी भी कंपनी में 40 प्रतिशत से अधिक विदेशी निवेश फेरा कानूनों का उल्लंघन माना जाएगा. यूनियन कार्बाइड कारपोरेशन ने भारत सरकार के साथ मिलकर मिथाइल आइसोसाइनाइट का जो कारखाना स्थापित किया उसमें उसने 60 प्रतिशत शेयर अपने पास रखा.
इस पृष्ठभूमि में अगर हम भोपाल गैस त्रासदी को देखेंगे तो समज सकेंगे कि त्रासदी की पृष्ठभूमि जानबूझकर तैयार की गयी. अव्वल तो नियम कानून थे ही नहीं, और अगर कुछ रहे भी होंगे तो उनकी अनदेखी करना अधिकारियों और नेताओं ने अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझा क्योंकि "कोई अमेरिकी कंपनी भारत सरकार के साथ मिलकर कोई कारखाना स्थापित कर रही थी."
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उस वक्त भी जब कंपनी के नान एक्टिंग CEO वारेन एण्डरसन को पता चला कि हादसा हुआ है तो हादसे के चार दिन बाद 7 दिसंबर को वे मुंबई होते हुए भोपाल पहुंचते हैं. उस वक्त प्रत्यक्षदर्शी आज बयान दे रहे हैं कि जब एंडरसन हवाई अड्डे पर पहुंचा तो उसके हाथ एक ब्रीफकेश और एक गैस मास्क था. हवाई अड्डे से ही एंडरसन श्यामला हिल्स स्थित यूनियन कार्बाइड के गेस्ट हाउस पहुंचते हैं और उन्हें चार घण्टे के लिए गिरफ्तार किया जाता है. उनके ऊपर धारा 304 ए, 304,120 बी और 429 के तहत मामला दर्ज किया गया. जिन धाराओं के तहत मुकदमा दर्ज किया गया उसमें उन्हें पुलिस जमानत नहीं दे सकती थी लिहाजा गेस्ट हाउस में ही मजिस्ट्रेट को बुलाया गया और उन्हें जमानत दे दी गयी. इसके बाद मुख्यमंत्री कार्यालय की ओर से उन्हें राज्य सरकार का विशेष विमान मुहैया कराया गया और वे दिल्ली लाये गये. कुछ देर नार्थ ब्लाक के आस पास टहलने के बाद अपने विशेष विमान से वे अमेरिका रवाना हो गये.
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इन सारी परिस्थितियों के बीच क्या आप वारेन एण्डरसन को अपराधी मान सकते हैं? अगर वारेन एण्डरसन अपराधी थे तो फिर वे भोपाल क्यों गये? यदि प्रधानमंत्री कार्यालय और मुख्यमंत्री सचिवालय नहीं चाहता तो क्या वारेन एंडरसन जो कि खुद चलकर भोपाल गया था ? वहां से भाग सकता था ? निश्चित तौर पर अमेरिकी प्रशासन ने भारत सरकार के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी [ कांग्रेस ] पर दबाव डाला होगा और अपने एक महत्वपूर्ण नागरिक को सकुशल वापस आने के लिए कहा होगा. अमेरिका का ऐसा करना आश्चर्यजनक नहीं है और न ही एंडरसन को राक्षस कह देने से
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सप्टेम्बर 1984 !!
भोपाल में यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री में एसा केमिकल हथियार का परीक्षण होनेवाला था जो सुरक्षा प्रबंधन का उल्लंघन था !! भोपाल के एक स्थानीय दैनिक में पत्रकार राजकुमार केसवानी ने यूनियन कार्बाइड में खौलते जहर की तमाम खबरें दीं। मगर इन खबरों पर कान देने वाला कोई नहीं था। सरकार चैन की नींद सोती रही। राजकुमार केसवानी लगातार खबरें लिखते रहे। उन्होंने राष्ट्रीय अखबारों में भी कार्बाइड के कारनामे का खुलासा किया मगर भोपाल में बैठी सरकार ही कंपनी की निगहबान बनी बैठी थीं।
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8 अक्टूबर 1984 को केसवानी ने आखिरी खबर बेहद गुस्से में लिखी थी। हेडिंग थी--"अब भी सुधर जाओ वर्ना मिट जाओगे।" ....
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2 डीसेम्बर 1984 की वो रात !!
भोपाल में यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री में 610 टैंक में मिथाइल आइसोसाइनाइट गैस छेद से विनाश हुवा था। हजारो निर्दोष लोगो की जान गई थी। सुबह की पहली किरण तक नगर की हर गली में, हर चौराहे पर, अस्पताल में, स्टेशन पर, ठेले पर, घर में लाशें बिखरी पड़ी थी।हर तरफ लाशें ही नजर आ रही थीं।
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एक सतर्क पत्रकार की चेतावनी को नजर अंदाज करने का नतीजा पूरा भोपाल भुगत रहा था।
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अधिक तथ्यों को समजिए :→
2-3 दिसंबर की रात जिस मिथाइल आइसोसाइनाइट ने भोपाल महानगर में जो विनाश बरता वह गैस हाइड्रोजन साइनाइट से 500 गुना अधिक जहरीली थी. इसका "आविष्कार" पहले विश्वयुद्ध की देन थी. मिथाइल आइसोसाइनाइट को शून्य डिग्री सेन्टीग्रेट पर प्रिजर्व रखना होता है और संवेदनशीलता इतनी अधिक है कि यह अपने आप विस्फोटित हो सकता है. इतनी जहरीली गैस को भोपाल के यूनियन कार्बाइड कारखाने में निर्मित नहीं किया जाता था बल्कि उसे अमेरिका से आयात किया जाता था. जिस अमेरिका से इसे आयात किया जाता था उस अमेरिका में नियम ऐसा सख्त था कि आधा टन से अधिक मिथाइल आइसोसाइनाइट को एक साथ रखना प्रतिबंधित है. लेकिन भारत में उस वक्त लापरवाही ऐसी कि जिस टैंक से रिसाव हुआ उसमें 67 टन मिथाइल आइसोसाइनाइट रखा हुआ था.
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निश्चित रूप से यूनियन कार्बाइड की स्थापना के साथ ही इस बात के पुख्ता इंतजाम किये गये थे कि जहरीले रसायन के कारोबार में कंपनी को किसी प्रकार के अवरोध का सामना न करना पड़े. निश्चित रूप से इसके लिए कंपनी ने उस वक्त की समाजवादी आर्थिक व्यवस्था के साथ जमकर खिलवाड़ किया होगा. उदाहरण देखिए. 1 जनवरी 1973 में भारत सरकार ने फेरा कानून को लागू किया और तय किया कि किसी भी कंपनी में 40 प्रतिशत से अधिक विदेशी निवेश फेरा कानूनों का उल्लंघन माना जाएगा. यूनियन कार्बाइड कारपोरेशन ने भारत सरकार के साथ मिलकर मिथाइल आइसोसाइनाइट का जो कारखाना स्थापित किया उसमें उसने 60 प्रतिशत शेयर अपने पास रखा.
इस पृष्ठभूमि में अगर हम भोपाल गैस त्रासदी को देखेंगे तो समज सकेंगे कि त्रासदी की पृष्ठभूमि जानबूझकर तैयार की गयी. अव्वल तो नियम कानून थे ही नहीं, और अगर कुछ रहे भी होंगे तो उनकी अनदेखी करना अधिकारियों और नेताओं ने अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझा क्योंकि "कोई अमेरिकी कंपनी भारत सरकार के साथ मिलकर कोई कारखाना स्थापित कर रही थी."
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उस वक्त भी जब कंपनी के नान एक्टिंग CEO वारेन एण्डरसन को पता चला कि हादसा हुआ है तो हादसे के चार दिन बाद 7 दिसंबर को वे मुंबई होते हुए भोपाल पहुंचते हैं. उस वक्त प्रत्यक्षदर्शी आज बयान दे रहे हैं कि जब एंडरसन हवाई अड्डे पर पहुंचा तो उसके हाथ एक ब्रीफकेश और एक गैस मास्क था. हवाई अड्डे से ही एंडरसन श्यामला हिल्स स्थित यूनियन कार्बाइड के गेस्ट हाउस पहुंचते हैं और उन्हें चार घण्टे के लिए गिरफ्तार किया जाता है. उनके ऊपर धारा 304 ए, 304,120 बी और 429 के तहत मामला दर्ज किया गया. जिन धाराओं के तहत मुकदमा दर्ज किया गया उसमें उन्हें पुलिस जमानत नहीं दे सकती थी लिहाजा गेस्ट हाउस में ही मजिस्ट्रेट को बुलाया गया और उन्हें जमानत दे दी गयी. इसके बाद मुख्यमंत्री कार्यालय की ओर से उन्हें राज्य सरकार का विशेष विमान मुहैया कराया गया और वे दिल्ली लाये गये. कुछ देर नार्थ ब्लाक के आस पास टहलने के बाद अपने विशेष विमान से वे अमेरिका रवाना हो गये.
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इन सारी परिस्थितियों के बीच क्या आप वारेन एण्डरसन को अपराधी मान सकते हैं? अगर वारेन एण्डरसन अपराधी थे तो फिर वे भोपाल क्यों गये? यदि प्रधानमंत्री कार्यालय और मुख्यमंत्री सचिवालय नहीं चाहता तो क्या वारेन एंडरसन जो कि खुद चलकर भोपाल गया था ? वहां से भाग सकता था ? निश्चित तौर पर अमेरिकी प्रशासन ने भारत सरकार के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी [ कांग्रेस ] पर दबाव डाला होगा और अपने एक महत्वपूर्ण नागरिक को सकुशल वापस आने के लिए कहा होगा. अमेरिका का ऐसा करना आश्चर्यजनक नहीं है और न ही एंडरसन को राक्षस कह देने से
Peace if possible, truth at all costs.