भारतीय इतिहास का विकृतिकरण

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बात हो रही थी इतिहासपुरुषों कि समयावधि के बारे में कुछ और तथ्य प्रस्तुत हैं -

कनिष्क का राज्यारोहण 78 ई. में हुआ - कनिष्क के राज्यारोहण के सम्बन्ध में भी पाश्चात्य औरभारतीय आधारों पर निकाले गए कालखण्डों में गौतम बुद्ध आदि की तरह लगभग 1300 वर्ष का ही अन्तर आता है। पाश्चात्य इतिहासकारों द्वारा कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि 78 ई. निश्चित कीगई है जबकि पं. कोटावेंकटचलम द्वारा ‘क्रोनोलोजी ऑफ कश्मीर हिस्ट्री रिकन्सट्रक्टेड‘ में दिएगए ‘राजतरंगिणी‘ के ब्योरों के अनुसार कनिष्क ने कश्मीर में 1254 ई. पू. के आसपास राज्य किया था।

यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि अन्य तिथियों की भ्रान्ति के लिए तो कोई न कोई कारण आज का इतिहासकार दे भी रहा है किन्तु कनिष्क के सम्बन्ध में तिथि की भ्रान्ति का कोई निश्चित उत्तर उसके पास नहीं है। इस संदर्भ में प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. रमेशचन्द्र मजूमदार का कहना है -

‘‘कनिष्क की तिथि भारतीय तिथिक्रम की सबसे उलझी हुईसमस्या है। इस विषय पर बहुत कुछ लिखा गया है किन्तु नए प्रमाणों के अभाव में कोई बात निश्चित रूप से नहीं कही जा सकती।.....‘‘ (डॉ. रमेश चन्द्र मजूमदार कृत ‘प्राचीन भारत‘ पृ. 101 - पादटिप्पणी)

चन्द्रगुप्त मौर्य, अशोक और कनिष्क की जोन्स आदि पाश्चात्य विद्वानों द्वारा निर्धारित तिथियों के संदर्भ में श्री ए. बी. त्यागराज अय्यर की ‘इण्डियन आर्कीटेक्चर‘ का निम्नलिखित उद्धरण भी ध्यान देने योग्य है -

एथेन्स में कुछ समय पूर्व एक समाधि मिली थी, उस पर लिखा था कि- ‘यहाँ बौद्धगया के एक श्रवणाचार्य लेटे हुए हैं। एक शाक्य मुनि को उनके यूनानी शिष्य द्वारा ग्रीक देश ले जाया गया था। समाधि में स्थित शाक्य मुनि की मृत्यु 1000 ई. पू. में बताई गई है।‘ यदि शाक्य साधु को 1000 ई. पू. के आसपास यूनान ले जाया गया था तो कनिष्क की तिथि कम से कम 1100 ई. पू. और अशोक की 1250 ई. पू. और चन्द्रगुप्त मौर्य की 1300 ई. पू. होनी चाहिए। यदि यह बात है तो जोन्स की धारणा कि यूनानी साहित्य का सेड्रोकोट्टस चन्द्रगुप्त मौर्य सेल्युकस निकेटर का समकालीन था, जिसने 303 ई. पू. में भारत पर आक्रमण किया था, एकदम निराधार और अनर्गल है। (‘दि प्लाट इन इण्डियन क्रोनोलोजी‘ पृ. 9)
दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि कनिष्क के राज्यारोहण के संदर्भ में दी गई तिथि भी मात्र एक भ्रान्ति ही है। भारतीय इतिहास की महानतम विभूतियों की तिथियों में यह अन्तर पाश्चात्य विद्वानों द्वारा जान-बूझकर डाला गया है ताकि उनके द्वारा पूर्व निर्धारितकालगणना सही सिद्ध हो जाए।

(ङ) विक्रम सम्वत के प्रवर्तक उज्जैन के राजा विक्रमादित्य का कोई ऐतिहासिक व्यक्तित्व नहीं - भारतवर्ष में श्रीराम, श्रीकृष्ण, गौतम बुद्ध और आचार्यशंकर के पश्चात यदि किसी का व्यक्तित्व सर्वाधिक विख्यात रहा है तो वह उज्जैन के राजा विक्रमादित्य का रहा है किन्तु आश्चर्य तो इस बात का है कि जिस राजा की इतनी प्रसिद्धि रही हो उसे कल्पना जगतका वासी मानकर पाश्चात्य विद्वानों ने उसके ऐतिहासिक व्यक्तित्व को ही नकार दिया है।

उज्जैनी के महाराजा विक्रमादित्य के ऐतिहासिक व्यक्तित्व को नकारने से पूर्व निम्नलिखित तथ्यों पर विचार कर लिया जाना अपेक्षित था, यथा-

(1) भारत का पौराणिक महापुरुष हैं भारत का पौराणिक महापुरुष हैं - महाराजा विक्रमादित्य का सविस्तार वर्णन भविष्य, स्कन्द आदि पुराणों में दिया गया है। भविष्य पुराण के प्रतिसर्ग पर्व के प्रथम खण्ड में दिए गए ब्योरे के अनुसार विक्रमादित्य ईसवी सन के प्रारम्भ में जीवित थे। उनका जन्म कलि के 3000 वर्ष बीत जाने पर 101 ई. पू. में हुआ था और उन्होंने 100 वर्ष तक राज्य किया था। (गीता प्रेस, गोरखपुर, ‘संक्षिप्त भविष्य पुराण‘, पृ. 245)(2) साहित्यिक रचनाओं का अमर नायक है साहित्यिक रचनाओं का अमर नायक है - भारत की संस्कृत, प्राकृत, अर्द्धमागधी, हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला आदि भाषाओं के ग्रन्थों में विक्रमादित्य से सम्बंधित ऐसे अनेक विवरण मिलते हैं जिनमें उसकी वीरता, उदारता, दया, क्षमा आदि गुणों की अमर गाथाएँ भरी हुई हैं।(3) दन्तकथाओं और लोकगीतो का प्रेरणापुंज है - देश के विभिन्न भागों में स्थानीय भाषाओं में ही नहीं बोलियों में भी ऐसी अनेक दन्तकथाएँ, लोकगाथाएँ, लोकगीत प्रचलित हैं जिसमें बड़े व्यापक रूप में विक्रमादित्य के भिन्न-भिन्न गुणों का गान किया गया है।(4) सम्वत का प्रवर्तक है - देश में एक नहीं अनेक विद्वान ऐसे हैं जो 57 ई. पू.में प्रवर्तित हुए विक्रम सम्वत को उज्जैनी के राजा विक्रमादित्य द्वारा ही प्रवर्तित मानते हैं। भारतवर्ष में कलि सम्वत के समान ही इस सम्वत का प्रयोग सब क्षेत्रों में किया जाता है।

इस सम्वत के प्रवर्तन की पुष्टि ‘ज्योतिर्विदाभरण‘ ग्रन्थ से होती है। जो कि 3068 कलि अर्थात 34 ई. पू. में लिखा गया था। इसके अनुसार विक्रमादित्य ने 3044 कलि अर्थात 57 ई. पू. में विक्रम सम्वत चलाया था।
(5) भारत का ऐतिहासिक व्यक्तित्त्व है - कल्हण की ‘राजतरंगिणी‘ के अनुसार 14 ई. के आसपास कश्मीर में अंध युधिष्ठिर के वंश के राजा हिरण्य के निःसन्तान मर जाने पर अराजकता फैल गई थी जिसको देखकर वहाँ के मंत्रियों की सलाह पर उज्जैनी केराजा विक्रमादित्य ने मातृगुप्त (जिसे कई लोग कालीदास भी मानते हैं) को कश्मीर का राज्य सम्भालने के लिए भेजा था।

‘नेपाल राजवंशावली‘ में भी नेपाल के राजा अंशुवर्मन के समय (ईसा पूर्व पहली शताब्दी) में उज्जैनी के विक्रमादित्य के नेपाल आने का उल्लेख किया गया है। ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि विक्रमादित्य ने नेपाल के राजा को अपने अधीन सामन्त का पद स्वीकार करने के लिए कहा था। कुछ लोगों का ऐसा भी मानना है कि विक्रमादित्य ने विक्रम सम्वत की स्थापना नेपाल में ही की थी।

बाबू वृन्दावनदास ‘प्राचीन भारत में हिन्दू राज्य‘ में लिखते हैं कि उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य ने ही विक्रम सम्वत की स्थापना 57 ई. पू. में की थी। उनका यह भी कहना है कि-

‘‘भारत में अन्य सभी सम्राटों, जिनके नाम के साथ विक्रमादित्य लगा हुआ है, यथा- श्रीहर्ष, शूद्रक, हल, चन्द्रगुप्त द्वितीय, शिलादित्य, यशोधर्मन आदि, ने ‘विक्रमादित्य‘ को उपाधि के रूप में ग्रहण किया है, जबकि उज्जैनी के इस राजा का मूल नाम ही विक्रमादित्य है। उपाधि के स्थान परमूल नाम अधिक महत्त्वपूर्ण है।‘‘

यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि यदि पाश्चात्योन्मुखी आधुनिक भारतीय इतिहासकारों की यह बात मान ली जाती है कि ईसा पूर्व और ईसा बाद की पहली शताब्दियों में कोई विक्रमादित्य नहीं हुआ तो अरब देश के उस कवि की कविता का क्या उत्तर होगा जिसे उसनेमोहम्मद साहब के जन्म से 165 वर्ष पूर्व लिखा था। उस कविता का हिन्दी अनुवाद जो विक्रम सम्वत के 2000 वर्षों के पूर्ण होने के उपलक्ष्य में 1946 ई. में मनाए गए उत्सव के स्मृति अंक में दिया गयाथा, इस प्रकार है-

‘‘भाग्यशाली हैं वे, जो विक्रमादित्य के शासन में जन्मे या जीवित रहे। वह सुशील, उदार, कर्तव्य परायण शासक, प्रजाहित में दक्ष था, पर उस समय अरब परमात्मा का अस्तित्त्व भूलकर वासनासक्त जीवन बिता रहा था किन्तु उस अवस्था में सूर्योदय जैसा ज्ञान और विद्या का प्रकाश दयालु विक्रम राजा की देन थी, जिसने पराए होतेहुए भी हमसे कोई भेदनहीं बरता जिसने निजी पवित्र (वैदिक) संस्कृति हम में फैलाई और निजी देश से विद्वान, पंडित और पुरोहित भेजे ...... पवित्र ज्ञान की प्राप्ति हुई और सत्य का मार्ग दिखाया।‘‘

यह कविता मूल रूप में सुलतान सलीम के काल (1742 ई.) में तैयार ‘सैरउलओकुन‘ नाम के अरबी काव्य संग्रह से ली गई है।

कहने का अभिप्राय यह है कि पाश्चात्य विद्वानों ने जिस विक्रमादित्य के व्यक्तित्त्व को ही नकार दिया है उसके विषय में भविष्य पुराण, ज्योतिर्विदाभरण, सिद्धान्त शिरोमणि (भास्काराचार्य), नेपाल राजवंशावली, राजतरंगिणी, महावंश, शतपथ ब्राह्मण की विभिन्न टीकाएँ, बौद्ध ग्रन्थ, जैन ग्रन्थ तथा अनुश्रुतियाँ आदि भारतीय ऐतिहासिक स्रोत एकमत हैं। अतः लगता है कि यह स्थिति भारत के इतिहास को विकृत करने के लिए जान बूझकर लाई गई है।

✍🏻रघुनंदन प्रसाद शर्मा

कल कुछ और तथ्यों की बात करेंगे ........

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