'गुडबाय' एक बेकार फिल्म है, न देखें

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कई बार फिल्म बनाने के लिए आप कथा ढूँढते हैं और कई बार विचार, परंतु कुछ लोग विचार के आगे विवश हो कर फिल्म बना लेते हैं। तात्पर्य यह है कि आपने कुछ सोचा कि इस विषय पर फिल्म बनी नहीं है, तो मैं बनाऊँगा और फिर आप अन्य किसी भी आयाम की ट्रीटमेंट उचित ढंग से न करते हुए कुछ बना लेते हैं। 


'गुडबाय' में अभिनेता अच्छे लिए गए हैं और कहानी सपाट है। ढाई घंटे की फिल्म में पहला कॉन्फ्लिक्ट रिजॉल्यूशन दो घंटे के बाद आता है और वह भी डेढ़ मिनट के वार्तालाप में। कहानी है एक माँ की मृत्यु की जिसके बच्चे दूर रहते हैं। अकेला पिता तनाव और अपने पूर्व व्यवहार के कारण बच्चों में बहुत प्रिय नहीं है। एक बेटी है जो सदैव ही प्रश्न उठाती रहती है, लड़ती है और ताना मारती फिरती है। 


कहानियों में परिस्थितियाँ होती हैं, संघर्ष होते हैं, अंतर्द्वंद्व होते हैं और पात्र उनसे जूझता हुआ आगे बढ़ता है। दो घंटे तक बाप-बेटी नाक फुलाए घूमते रहे और माँ की आलमारी से मिली एक पतंग और उसके पीछे की कहानी ने सब सही कर दिया। इससे पहले दोनों को एक दूसरे की तरफ नर्म होते हुए भी नहीं दिखाया गया कि हमें लगे ऐसा होगा। 


यहाँ कहानी में यह स्कोप था कि फिल्म के आधे होते-होते पात्रों को परिस्थिति की समझ होने लगती और संबंधों को जीवित करने की चेष्टा का आरंभ हो जाता। सब ऐसे लगे रहे जैसे माँ को जला कर निकल जाना है। पात्रों में कुछ ठीक करने की उत्कंठा कहीं दिखी नहीं। 


पूरी फिल्म एक व्यक्ति की मृत्यु, शोक का काल, अंत्येष्टि, अस्थि विसर्जन और बाल मुँड़वाने की सीधी समयरेखा पर चलती है। फ्लैशबैक्स का प्रयोग घिसे-पिटे 'माँ टाइप' की सर में तेल लगाने वाली और बेटी को इयररिंग देने वाली नॉस्टैल्जिया हेतु हुआ है। इस पूरी फिल्म में एक परिवार मृत्यु के शोक और पिता के प्रभाव से बाहर आने के संघर्ष का सतही चित्रण है। 


अमिताभ बच्चन ने नकियाने को ही अभिनय मान लिया है संभवतः। अब वो फिल्मों में वही कर रहे हैं जो नवरत्न तेल से ले कर चप्पलों के विज्ञापन में करते हैं। बाकी के पात्रों के पास न तो संवाद ऐसे थे कि कुछ इम्पैक्ट बन पाता, न ही परिस्थितियाँ कि मुखाभिनय आदि से दृश्य में जीवन डाला जा सके। 


ओटीटी वालों के पास इन्वेस्टमेंट का पैसा है तो वो कुछ भी पैसा ऑफर कर के किसी को भी फिल्म में ले कर कुछ भी परोस रहे हैं। 


संगीत भी भूलने लायक ही है। मूलतः जब कहानी में लेखक ने और निर्देशन में निर्देशक ने किलो भर टट्टी कर दी हो तो संगीत, सिनेमेटोग्रफी आदि कुछ खास उखाड़ नहीं पाते। न ही यह फिल्म वैसी है कि समीक्षा का सम्मान किया जा सके। 


मैं ओटीटी रिलीज बिलकुल नहीं देखता। इसका ट्रेलर देखा तो सोचा कि देखूँ अमिताभ बच्चन कर क्या रहे हैं। मुझे दिखा कि पैसे के लिए कोई भी रोल कर ले रहे हैं, किसी भी निर्देशक के साथ काम कर रहे हैं और अभिनय के नाम पर कुर्सी पर बैठे हुए, गर्दन झुका कर कपाल के नीचे के कोटरों से आँखों को ऊपर की ओर निकालते हुए नकियाने के अलावा कुछ नहीं कर पा रहे। 


समय व्यर्थ करना है त देख लीजिए।

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