मासिक धर्म विमर्श..

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पोस्ट >>> मासिक धर्म विमर्श ---

पुरुष उवाच ---
मासिक धर्म में मंदिर में स्त्री प्रवेश निषेध होता है । ये तो बेकार का टॉपिक है । लड़ाई वडाई देखी है । उसके लिए भी आंदोलनरत पोंगु इंडिया ।

मासिक धर्म में या pms में भी स्त्री की मानसिक अवस्था भावनात्मक रूप से फ्लक्चुवेट करती है । कई प्रकार की समस्या रहती हैं । मंदिर जाकर ठीक हो जाती हों ये तो देखने में खैर नहीं आया ।

ब्लड वगिराह भी रहता है । हाइजीनिक पॉइंट भी है । एक तो ये सिम्पल बात है ।

अब कहा जा सकता है ऑफिस भी तो जाती हैं ? बिलकुल जाती हैं । इस मामले पर शायद पिछले साल पोस्ट लगाया था कि इंग्लैण्ड में मासिक धर्म के समय पर छुट्टी का प्रावधान हो । ऐसा एक्सपर्ट्स का कहना था । मुझे नहीं पता उसके बाद क्या हुया । पर बहरहाल ये विषय था ।

हर बात में आंदोलन नहीं होता । कुछ समझ भी विकसित होनी चाहिए । इंग्लैण्ड वाले तो समझ रहे हैं कि छुट्टी मिले और भावनात्मक रूप से त्रस्त स्त्री को भी मेंसट्रुएशन समय में आराम मिले । बाकी बाते हैं बातो का क्या । जै राम जी की ।

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स्त्री उवाच --

मेरी नजर में आज की डेट में ज्यादा जरुरत है एक गैप की इस अवधि में.... पहले लड़कियों या महिलायों को इसलिए अलग रखते थे ताकि वो घर को गन्दा न करे,,,,,,, पर पहले औरतें इतनी कमजोर नहीं थी की वो इस अवस्था में कमजोर या बीमार महसूस करती...... उनका खानपान इसका कारण इस अवस्था में खाना भी अलग दिया जाता था....ताकि औरत को शारीरिक तौर पे मजबूती मिले .....मेरी नानी आज भी मुझे इस टाइम में मम्मी को 3-४ गिलास दूध के देने के लिए कहती हैं..... दलीया या पालक का साग जिसमे आटे का आलन होता है ....ही खाने को मिलता है..... (मुझे बिलकुल पसंद नहीं )

मासिक धर्म में लड़कियों के अंदर लौह तत्वों की कमी हो जाती है, इसी कारन उनमे कमजोरी और दर्द होता है..... पहले ये सब नहीं होता था खानपान की वजह से अब ये एक बिमारी टाइप का बन गया है..... मेंटली प्रेशर की वजह से हर्मोनिकल डिसऑर्डर होने के चांस बढ़ जाते हैं.... पहले औरतें सुभ उठते ही आटे के लिए चक्की और मट्ठा फेरती थी जिसके कारन उनके पेट की मांसपेशियां मजबूत होती थी....... शौच के लिए भी वो खेत में जाती थी जहाँ उन्हें बेठना होता था..... पर अब न खानपान है.....और पेट भी साफ़ नहीं होता अछे से.....इंग्लिश टॉयलेट के कारन.....सो बीमारियाँ पलती जा रही हैं शरीर के अंदर .......

अजीब लगता है जिस मासिक धर्म के आधार पर किसी औरत के अंदर की प्रजनन क्षमता का अनुमान लगता है.....उसे ही एक अजीबो-गरीब मानसिकता के साथ आज का पढ़ा-लिखा समाज पारिभाषित कर रहा है..... लोजिकली इस बात को समझें तो- ये एक "विशेष कमरे" की सफाई का अभियान होता है.....जो हर महीने होता है हम औरतों के शरीर के अंदर....... जिसमे एक दिन नन्हा मेहमान रहने के लिए आता है ......

जब घर की सफाई होती है तब क्या हम सब थकते नहीं हैं....???????????????अब बात करते हैं मन्दिर जाने की ......जब हम घर की सफाई कर रहे होते हैं तब धुल-मिटटी के कारन गंदे होते है और रसोई या मंदिर से दूर रहते हैं......कुछ इसी प्रकार की प्रक्रिया है ये भी.....बस और कुछ नहीं.....
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पुरुष उवाच ---
अब इसमें दो बाते हैं । एक तो मंदिर की परिकल्पना का आधार । जाहिर है कि और निर्गुण रूप वाले संसार भर के सम्प्रदायो के इकट्ठा होने वाले स्थलो से अलग है । एक बात तो ये है ।

दूसरी बात है हाइजीनिक की जिसका सम्बन्ध स्त्री के मानसिक स्तर पर मासिक धर्म के समय से जुड़ा है । ऐसा मेरा मानना है कि उस वक्त आराम का सख्त जरुरत होता है । पहले के समय में भी स्त्री के मासिक शुरू होने पर रसोई के काम से छुट्टी मिल जाती थी । ये एक उदाहरण है । मतलब आराम देने का ही होता था । अभी भी पालन होता है कई घरो में । और जिन घरो में ही पूजा स्थल है वहां तो घर भी मंदिर स्वरूप् ही है । तो वहां भी नियम पालन देखा ही है । इसको अलग अलग करके देखना पड़ता है । बाकी जिनको मंदिर अवधारणा का पता नहीं है तांत्रिक सगुण रूप का वो आन्दोलनरत रहते हैं । मैं स्वयं अधिकार के मामले को लेकर मुखर हूँ पर बेवकूफी का साथ नहीं देता । इतना ही है ।
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पुरुष उवाच ---
मैं कुछ बोलूँगा तो बोलोगे की बोलता है,,लेकिन फिर भी थोडा सा बोल ही देता हूँ,,,प्राचीन काल में महिलाओं को मासिकधर्म की परेशानी पुरे जीवन काल में बस ना के बराबर ही होती थी,,क्योंकि १३-१४ साल की आयु विवाह के बाद से एक के बाद दूसरा बच्चा पैदा करना और उसको दूध पिलाने के कारण ,मासिकधर्म लगभग होता ही नहीं था,,,
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स्त्री उवाच --
वैज्ञानिक आधार और आध्यात्मिक आधार दोनों ही मंदिर जाने के लिए मना करते हैं.... अब तो रसोई में जाना शुरू भी किया जा चूका है......... सभी नियम किसी न किसी वजह से बने .....उन्हें हर हाल में गलत साबित कोरने से बेहतर है उन्हें पहले समझें तब कुछ कहें..... पर अभी हाल में इन सब के लिए देखा है बहुत ज्यादा ही boldness आ गयी है.......... पर परेशानी ये नहीं की आप मंदिर जाए या नहीं....परेशानी ये है कि आप आज कितनी स्वस्थ हैं और कितनी जागरूक भी.......... सिर्फ़ पैड का इस्तेमाल करना ही सब कुछ नहीं होता ......इस दौरान हमें बहुत ख्याल रखना होता है ..... पर जागरूकता और जानकारी के अभाव में हम लोग इस मासिक धर्म को अपने अपने तरीके से परिभाषित और नियम लागू करते रहते ह-अं..... इस दौरान चिडचिडा मन भी हो जाता है.... तो कुंठा स्वतः ही मन में आती है .....

जरुरत जागरूकता के साथ सिर्फ अछे खानपान और अपना ख्याल रखने की है........ईश्वर ने हम औरतों को "जननी" का वरदान देके भेजा है ......जिसके साथ खिलवाड़ करना गलत है चाहे वो जान बुझ के या किसी और के द्वारा......
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पुरुष उवाच --- मासिक धर्म तो लंबे उम्र तक चलता है । बच्चे कितने पैदा हो सकते हैं ? दस भी हो जाएँ (केवल फेंटेसी) तब भी पंद्रह सोलह साल लगेंगे। फिर मासिक वापिस चालू हो जायेगा। पर ये पॉइंट नहीं है पोस्ट का

पुरुष उवाच --- स्त्रीजी मेरे को प्रॉब्लम है मूर्ख आंदोलनकारियों से । बस इतना ही । मेरे लिए तो मामले क्लियर रहते हैं प्लस मेरा अपना नजरिया भी अलग है । मेरी पूजा साधना में ये व्यवधान नहीं बनता है । पर अगर बात मंदिर की हो तो उस पर वही नजरिया रहेगा जो ऊपर पोस्ट में है । बाकि चैक करता कौन है ?
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स्त्री उवाच --पुरुष जी अब अगर आप औरत होते तो मैं आपसे सवाल करती कुछ...... : इस दौरान पूजा तो दूर की बात है आप किसी से अछे से बात नहीं कर पाते हो....... शारीर में भारीपन रहता है तो आलस्य भी आता है.... मैं आपको वैज्ञानिक तथ्यों पे बता रही हूँ.... पूजा न करना मनोवैज्ञानिक आधार पर सही है.....क्योकि हम हिंदुयों में पूजा सिर्फ घंटी हिलाना नहीं होता है...... पूजा विधिविधान से की जाती है....जिसमे पहले भगवान् को स्नान कराना फिर मंत्र उचारण वगेरह होते है......इस वक़्त में इतने विधान हमरे तो बस का नही.... शायद आज के इस भागमभाग में जब सब दर्द से पीड़ित रहती हैं तब तो बिलकुल नहीं......

पुरुष उवाच --- समझ गया

स्त्री उवाच --I m repeating जरुरत जागरूकता के साथ सिर्फ अछे खानपान और अपना ख्याल रखने की है........ईश्वर ने हम औरतों को "जननी" का वरदान देके भेजा है ......जिसके साथ खिलवाड़ करना गलत है चाहे वो जान बुझ के या किसी और के द्वारा......

स्त्री उवाच --आन्दोलन वगेरह की जगह एक जागरूकता की जरुरत है ....... बाकि मेरे हिसाब से सब ठीक चल रहा है..... नियम पुराने हैं सिर्फ इसलिए हम इन्हें नहीं तोड़ सकते ......उनका आज के दौर में क्या लाभ है ये जुरुरी है और भी बातें और नियम हैं जिन पर स्टैंड लेने की जरुरत हैं..... ( जेसे शादी जरुरी है क्या करना लडकियों के लिए ...... क्या वो ब्रह्मचारी नहीं रह सकती ? )

मैं सिर्फ आधुनिकता के नाम पर अपने संस्कार छोड़ नहीं सकती..... अगर वो हमारे आड़े नहीं आ रहे तब तो बिलकुल भी नहीं..... मैंने इसलिए उदहारण भी दिया घर की सफाई का.....जब उस दौरान आप पूजा या रसोई में या कुछ खाने से परहेज करते हैं तो फिर इस समय में भी वही परहेज लाजिमी है........ कामाख्या देवी के मन्दिर में तो बाकायदा इन दिनों में मन्दिर में अलग नियम चलते हैं...........

कुछ लडकियाँ देखि ह मेने जो आधुनिकता के नाम पे कोई नियम नहीं मानती ........ वो उनकी स्वतंत्रता है.....पर वो हमारे इन नियमों पे उंगली भी नहीं उठा सकती या सकता ......... कभी कभी मुझे लगता है ...........हम लोगों से ज्यादा वैज्ञानिक सोच वाले हमारे दादी-नानी थे ..... उनके नियम कड़े जरुर है पर स्वास्थ्यवर्धक हैं......आप चाहें तो में उन पर भी वाद-विवाद कर सकती हूँ

प्रवेश वर्जित होना भी चाहिए...... मैं इस नियम का खुद कड़ाई से पालन करती हूँ..... और साथ वालों को करवाती भी हूँ.... मंदिर के अंदर अगर कोई सफाई कर्मचारी गन्दगी से लथपथ चला जाये तब केसा लगेगा.....कुछ वेसा ही उस समयावधि में होता है.... भले ही आप कितने ही precaution लीजिये .....ये तो वही बात हुई कि कोई सफाई कर्मचारी.....रबर के ग्लुब फन के झाड़ू लगा रहा है और फिर सीधे मंदिर में पूजा करने चला जाए ????
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पुरुष उवाच --- मासिक स्त्रियों को होता है तो वही बोलने का अधिकार भी रखती हैं । ये तो प्रथम बात ही है । दूसरा नजरिया मंदिर का नहीं आराम का है । इसमें क्या दिक्कत है । तीसरा नजरिया हाइजीन को लेकर है । वो स्त्री पक्ष ही अपनी मानसिक अवस्था और शारीरिक अवस्था को समझ के बेहतर कह सकता है । पुरुषो के भेजे में क्या घुसेगा ये बात ?

मेरी पोस्ट मंदिर पर दरअसल है ही नहीं । वो तो केवल एक पार्ट है । मंदिर संरचना का विषय ही अलग हो जाता है । एक पोस्ट देख कर ये पोस्ट लिखा हूँ । आराम के लिए । बाकी संवाद है ही ।

स्त्री उवाच --
मै मैं आपके विरोध में नहीं हूँ.... पर हा मैंने अपनी बात पूरी विस्तार से कही है ...... मुझे आपकी पोस्ट भी समझ में आ गयी थी मेने तोप वाली बात तो डब्बू भाई के गोलियों के जवाब में मजाक में कही थी आपको गलत लगा हो तो माफ़ी चाहती हूँ.... बाकि यहाँ एक प्लेटफार्म मिला कुछ विस्तार से कहने का सो कह दिया....

पुरुष उवाच ---
स्त्री जी मैं आपको बधाई देता हूँ कि अनेक विचार हमारे मन में होते हुवे भी हम पुरुष होकरआज के माहौल में कह नहीं पाते जबकि उन्होंने जो बाते और जानकारी रखी वह बिलकुल वैज्ञानिक ही लगती हैं. मैंने शुरू में संजय जी को संबोधित करके एक संकेत दिया था कि ''परम्पराए ऐसे ही नहीं बनी ! जो लोग अतार्किक बात करते हैं उन्हें कह दो कि विज्ञान की सरल और कम शब्दों में क्या परिभाषा हैं'' ! वैसे इन बातों और विचारों को तर्कों से बाहर रखना मानवीय धर्म रहा होगा दूसरा यह किु जो पूर्वज और बुजुर्ग लोगबाग कुछ देख, समझ, जान गए उनकी बातों को अगली पीढ़ी को बस ग्रहण करके आगे बढ़ना चाहिए.

बाबाजी उवाच --
मानवमात्र को पवित्र तन के साथ ही मन्दिर के परिवेश में प्रवेश करना चाहिये। किसी भी कारण से शारीरिक अपवित्रता होने पर किसी भी पवित्र परिवेश में प्रवेश करने से बचना चाहिये। इसमें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह पुरुष है या स्त्री। साथ में हमें यह भी ध्यान देना चाहिये कि शारीरिक पवित्रता पर इतना जोर केवल जप-पूजा आदि बाह्य कर्मकाण्ड के लिये है, ध्यान जैसी आध्यात्मिक साधनाओं के लिये नहीं। इसलिये मेरे मत से मासिक धर्म के समय में भी हृदयस्थ भगवान् का ध्यान व चिन्तन करने से न तो कोई किसी को रोक सकता है, बल्कि मेरे विचार से उस काल में शरीर को विश्राम देते हुए सद्विचार और भगवच्चिन्तन ही करना चाहिये। महाभारत (१२.५३.७) में जहां भगवान् श्री कृष्ण की दिनचर्या का वर्णन किया गया है, वहां पर उन्हें स्नान से पहले ही परब्रह्म परमात्मा का ध्यान करते हुए वर्णित किया गया है; इस आधार पर मैं यह बात कर रहा हूं। रही आज के भारतीय समाज की बात, तो मुझे लगता है कि अपने यहां तो समाज आज २ भागों में विभाजित हो कर रह गया है - हद से कहीं ज्यादा प्रगतिवादी (जो हर अच्छे प्राचीन विचार को भी बिना सोचे समझे रूढीवादी कह कर नकार देते हैं) और हद से ज्यादा रूढिवादी (जो हर अच्छे नूतन विचार को भी बिना सोचे समझे पाश्चात्य संस्कृति का दुष्प्रभाव कह कर नकार देते हैं); जबकि समाज का वास्तविक विकास होता है दोनों का सन्तुलन ढूंढने पर यानी पुराने युग की अच्छी बातों को रख कर नये युग की अच्छी बातों को अपनाने से। यही तो हमारे ऋग्वेद के महर्षियों ने हमें उपदेश दिया था - आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः (हमारे लिये कल्याणकारी विचार हमारे पास पूरे विश्व से चल कर आयें)। विद्वद्गण व साधुपुरुष सदैव हंस के समान गुणग्राही होते हैं, यह विचार अपने देश में बहुत प्राचीन काल से चला आ रहा है। पर आज तो अपने यहां हर बात का राजनीतिकरण करने की ऐसी बुरी आदत का प्रचलन हो गया है, सो जिसके मूंह पर जो आता है, सो बोलता रहता है। सारे मानों गुणग्राहिता को ताक पर रख कर सर्वथा दोषग्राही बन कर रह गये हैं। जो भी हो, वास्तविकता यह है कि भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से नारी का जो सम्मान रहा है, वह न तो विश्व में किसी और संस्कृति में कभी रहा है और न कभी हो सकेगा; पर अब इस बात को शायद समझने वाले भारत में भी बहुत कम रह गये हैं, यह बहुत बड़े दुर्भाग्य की बात है। माननीया स्त्री उवाच --जी के विचार इस सन्दर्भ में मुझे सबसे अधिक सन्तुलित, विचारपूर्ण, शोभनीय और ग्राह्य लगे। मातृशक्ति के सशक्तीकरण में ही विश्व का सशक्तीकरण संभव है। जय श्री राम॥

युवा स्त्री उवाच ---
आपसे सहमत। कुलमिलाकर बात हाइजीन और आराम की है क्योंकि पहले अधिकांश लोग प्रतिदिन चलकर मंदिर जाते और हाँ विधि विधान से पूजा करने वालों के लिए मुश्किल भी। बाकि अपन जैसे लोग जो 24 घंटों में मनमर्जी कभी भी उठकर अपने महादेव को नींद से उठाकर नहलाने बैठा देते हैं और खुद के साथ 24 hrs लिए फिरते हैं, उनके लिए कोई दिक्कत नहीं। मैं जाती हूँ मंदिर मासिक धर्म में भी। मगर उसके पीछे कोई क्रांति का इरादा नहीं होता। गर मन होता है मुझे और उसको कि ज़रा बैठकर गप्पे मारें तो पहुँच जाती हूँ। माँ रसोई में आती जाती पर मंदिर नहीं जाती थी। (थी इसलिए की फिलहाल भगवान पर उनका भयंकर वाला गुस्सा कार्यक्रम चल रहा है)

तो मैं इसपर बाबा से बात करती थी कि बाबा देव बाप्पा ने ही यह सिस्टम दिया है, सृजन का मूल है, अपने यहाँ न सफाई की समस्या, ना काम के बोझ की तो माँ क्यों नी जाती मंदिर? बोलो ना उनको! तो निर्णय माँ पर होता। बाबा कहते थे कि किसी भी बात के लिए औरों को कम्पेल नही करना चाहिए। तेरा मन कहता है कि मंदिर जाना चाहिए तो जाना चाहिए और गर कोई नहीं जाना चाहता तो उसपर ज़बरदस्ती क्यों? हर एक को अपना निर्णय लेने दो।
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बाबाजी उवाच --
फिर भी जहां करणीय और अकरणीय के निर्णय करने का प्रश्न हो, तो तर्कसंगति की सीमा तक अवश्य ही शास्त्र का अनुसरण करना चाहिये। यही गीता जी के १६वें अध्याय के अन्त में भगवान् ने अर्जुन को भी कहा है - तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ। ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि॥ अर्थात् जब करणीय और अकरणीय की व्यवस्था का प्रश्न हो, तो हे अर्जुन, तेरे लिये शास्त्र ही प्रमाणभूत है; शास्त्र का इस सन्दर्भ में क्या विधान है उसको जान कर तू इस संसार में कर्म कर सकता है॥... मेरे विचार से परमात्मा तो सर्वव्यापक है, उनसे बात कहीं भी बैठ कर की जा सकती है, और उन्हें वास्तव में हमारी पवित्रता और अपवित्रता से कोई फर्क भी नहीं पड़ने वाला, वे तो नित्य पवित्र हैं और सभी को स्मरण मात्र से पवित्र करने वाले है, जैसा कि कहा भी है - अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा। यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः (अर्थात् चाहें पवित्र हो या अपवित्र, या किसी भी अवस्था में हो, जो एक बार पुण्डरीकाक्ष भगवान् का स्मरण करले वे निश्चय ही अन्दर-बाहर से पवित्र है)। परन्तु साथ में हमें यह भी ध्यान देना चाहिये कि मन्दिर एक शास्त्रीय भावना से निर्मित शास्त्रीय कृत्यों के अनुष्ठान के लिये निर्मित स्थान विशेष है, जिसकी पार्थिव सीमायें हैं और जहां की पवित्रता-अपवित्रता का विचार सदैव करना पड़ता है। शास्त्रीय विषयों में शास्त्रज्ञों के विचारपूर्ण किये गये निर्णय का ही अनुसरण सभी के लिये कल्याणकारी है, हर एक को अपने स्वयं निर्णय करने देने की स्वतन्त्रता देने से सार्वभौमिक नियमों की क्षति होती है। मन्दिर जाने न जाने का निर्णय अपना व्यक्तिगत है, पर जाने पर मन्दिर के नियमों के पालन करने न करने का निर्णय व्यक्तिगत मानना उचित नहीं माना जा सकता, इससे अव्यवस्था आती है। जैसे पुरुष को स्नान किये बिना मन्दिर जाना उचित नहीं माना जा सकता, ऐसे ही नारी को भी ऋतुस्नान किये बिना मन्दिर जाना उचित नहीं माना जा सकता, क्योंकि ऋतुस्नान के बाद ही पवित्रता मानी गयी है - रजस्युपरते साध्वी स्नानेन स्त्री रजस्वला। ऋतुस्नान का विधान ३ दिन के उपरान्त है। ऐसे विधान विश्व के लगभग सभी धर्मों में हैं और पारम्परिक रूप से लगभग सर्वत्र स्वीकार किये जाते हैं। ये नियम केवल भारत में हों, ऐसी बात नहीं, इण्डोनेशिया में सभी हिन्दू मन्दिरों में यही नियम हैं, थाईलैण्ड के बौद्ध मन्दिरों मे, जापान के कुछ शिन्तो स्थानों में, इसलाम में और कई पारम्परिक Orthodox Churches में ये नियम सर्वत्र पालन किये जाते हैं। मैंने भी पहले कई नियमों का विरोध किया था (आज भी तर्कसंगत न होने पर करता हूं), पर आज समझ में आता है कि इस प्रकार के नियमों का पालन करने से अपने अन्दर एक विनम्रता, जिसके साथ ज्ञान की पात्रता, का आधान होता है। अतः अपने प्राचीन आचार्यों द्वारा बनाये गये जो नियम तर्कसंगत प्रतीत होते हों, उन्हें स्वीकार कर निष्ठापूर्वक पालन करने में ही हमारा आध्यात्मिक विकास है। अब मन्दिर में प्रवेश करने वाला प्रत्येक व्यक्ति पवित्र है या नहीं, यह तो कोई देख नहीं रहा; पर इन नियमों का विरोध करने से समाज में उच्छृंखलता, उद्दण्डता और धृष्टता ही बढ़ती है, जिन दुर्गुणों के परिणामस्वरूप व्यक्ति और समाज दोनों की हानि ही होती है। यदि आपको इसमें कुछ गलत लगता हो, तो कृपया सूचित करें।
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युवा स्त्री उवाच --- आपका दृष्टिकोण सर्वथा उचित है, विशेषतः नियमपूर्वक कर्मकांड पालन करने वालों के लिए तो यह सर्वथा अनुकरणीय है. इसमें कुछ गलत लगने जैसा है ही नहीं किंतु फिर भी मैं इसका अनुकरण नहीं करुँगी क्योंकि मेरा मार्ग ज़रा भिन्न है वैसे वैष्णव मंदिरों में मेरा जाना अनायास होता नहीं किंतु वहां जाते समय उनके नियमों, विधान को ध्यान में रखकर ही आचरण करना उचित है, तो अपने आप उसी प्रकार का शील पालन घटित होता है. वह भी मैं करती नहीं, अपने आप होता है. बाकि अपने प्रिय (महादेव), अपने बेबी (गणपति), कालिका या अपने भाई (हनुमंत) के पास मैं चली जाती हूँ बस! कभी भी, कैसे भी. (और यह मैं व्यक्तिगत मामला बता रही हूँ. सभी ने इस प्रकार आचरण करना चाहिए ऐसा कतई नहीं है)
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बाबाजी उवाच --
शिव - विष्णु का भेद कर रही हैं देवि! चलिये, मुझे पता है सगुणोपासना में यह सब भेद चलता ही है। हृद्गत भावना भी रमणीय ही है और आन्तरिक प्रेम के दृढ भाव अपने लिये नियमों का निर्माण भी स्वयं करते हैं, यह भी मैं जानता ही हूं। प्रेम में आग्रह पूर्वक की गयी बाल हठ को तो सांसारिक माता-पिता भी स्वीकार करते ही हैं, फिर सारे जगत् के माता-पिता क्यों न करेंगे, यही विश्वास किया जा सकता है। इससे अधिक अब और क्या कहूं!! लेकिन यह बालसुलभ सरलता जीवन के प्रत्येक पहलू में है या नहीं, इसका निर्णय कोई बाहर का नहीं, अपितु हम स्वयं आत्ममन्थन द्वारा ही कर सकते हैं। अगर जीवन के प्रत्येक पहलू में नहीं, तो केवल आपने प्रतिकूल पड़ने वाले धार्मिक बिन्दुओं, विधिविधानों और नियमों को लेकर परमात्मा के सामने इस बालसुलभ सरलता का प्रदर्शन कहीं समाज में दम्भ (यानी धर्मध्वजिता) और वितण्डा की आधारशिला न बन जाये, इस खतरे पर भी विचार करना आवश्यक है। कृपया इस टिप्पणी को व्यक्तिगत न लेवें, मैं तो आपसे कभी मिला भी नहीं। मैं आज की सामाजिक स्थिति को देख कर यह टिप्पणी सर्वसामान्य को ही ध्यान में रख कर कर रहा हूं। कुल मिला कर जिस प्रकार भोज्य पदार्थों की एक विशेष निश्चित मात्रा और नियत पद्धति से प्रयोग करने पर ही स्वादुतर व स्वादुतम भोजन का निर्माण होता है, क्योंकि लवण शर्करा आदि रसों का एक संतुलन बनाना पड़ता है; इसी प्रकार मानवमात्र का सर्वोत्कृष्ट आन्तरिक विकास भी एक निश्चित मार्ग का नियमपूर्वक अनुसरण करने से ही होता है, मनमाना उच्छृंखल आचरण करने से नहीं; क्योंकि यह भी तो विभिन्न आन्तरिक रसों को परम रस की अनुभूति में चरमोत्कर्ष की ओर ले जानी की प्रक्रिया ही तो है। इसमें उस रास्ते पर पहले चल चुके अनुभवी आचार्यों के अनुभव सम्पन्न ज्ञान का लाभ न उठाना मुझे तो निरर्थक अभिमानमात्र ही प्रतीत होता है। केवल इतनी ही बात मैं कहना चाह रहा हूं। जो भी हो, इस सन्दर्भ में आपका मतभेद यदि बना रहता है, तो मैं उसका भी सम्मान करता हूं। धन्यवाद.... भगवान् शंकराचार्य की इस स्तुति के साथ आपके हृदय में विराजमान मां त्रिपुरसुन्दरी को नमन करता हूं - "स्मरेत्प्रथमपुष्पिणीं रुधिरबिन्दुनीलाम्बराम्" (त्रिपुरसु्न्दर्यष्टकम्)
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युवा स्त्री उवाच --- भेद नहीं कर रही पर सगुण रूप में प्रेमी और स्नेही- मित्र से आचरण का फर्क आ जाता है ना! बाबाजी

युवा स्त्री उवाच --- नहीं, व्यक्तिगत नहीं ले रही. आपको शायद भान ना हो किंतु आप मेरे सर्वाधिक सम्माननीय, आदरणीय एवं अनुकरणीय मित्रों में से हैं. आपका विचार तथा दृष्टिकोण अधिकाधिक व्यक्तियों के हित में ही है. जैसे कोई औषधि यदि 99 % व्यक्तियों पर लागू हो तो उसे सर्वग्राह्य ही कहा जाता है. फिर बचे हुए 1% भिन्न औषधि का सेवन करते हैं तो यह उनके अनुरूप है. मंतव्य बस यही है कि भिन्नऔषधि के सेवन से लाभ प्राप्त करने वाले को अनुचित ना माना जाए (यह मैं आपके नहीं, सर्वसामान्य के लिए कह रही हूँ )
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बाबाजी उवाच -- विधिहीन यज्ञ को भी भगवान् श्री कृष्ण ने गीता १७.१३ में यज्ञ तो स्वीकार किया ही है, हां, अन्य यज्ञों की अपेक्षा अज्ञान से ग्रसित होने के कारण तामसिक कोटि का कहा है, वह बात अलग है। हालांकि वहां तामसिक यज्ञ के लक्षण में श्रद्धाहीनता को भी जोड़ा है। इससे कोई भी शायद यह कह सकता है कि विधिहीन यज्ञ भी श्रद्धायुक्त होने पर तामसिक नहीं; तो इस सन्दर्भ में मैं शायद निरुत्तर हो जाऊंगा; जैसा मैं ऊपर कह ही चुका हूं, क्योंकि जो भी हो, पवित्रता और अपवित्रता के इस विचार-विमर्श में महर्षि बौधायन की एक आख्यायिक मुझे सदैव बहुत सु्न्दर लगती रही है, जो उन्होंने अपने धर्मसूत्रों में दी है - जब देवताओं से पूछा गया कि श्रद्धा से रहित पवित्र व्यक्ति द्वारा समर्पित नैवेद्य आप स्वीकार करेंगे या अपवित्र श्रद्धालु व्यक्ति का, तो सभी देवताओ ने विमर्श पूर्वक कहा कि इन दोनों द्वारा चढ़ाया गया नैवेद्य समान समझा जाना चाहिये; पर इस पर परमपिता ब्रह्मा जी ने अन्तिम निर्णय यही दिया कि श्रद्धा से रहित पवित्र व्यक्ति की अपेक्षा श्रद्धावान् अपवित्र व्यक्ति का ही नैवेद्य श्रेष्ठ है। यही निर्णय सभी के द्वारा स्वीकार्य हुआ; जो हमारे प्राचीन विचारकों की वैचारिक उदात्तता को प्रदर्शित करता है। फिर जिस देश ने उन्मुक्त हृदय से की गयी भक्ति की सहजीया पद्धति को भी स्वीकार किया है, वहां इन बातों पर मेरी ओर से अधिक आग्रह शायद उचित भी नहीं। वैसे भी "भिन्न औषधि के सेवन से लाभ प्राप्त करने वालों को" (उसी भाव में जिस भाव में आप प्रयोग कर रही हैं) इस देश में सदैव नितान्त सम्माननीय स्थान दिया गया है, फिर चाहें वह कश्मीर की लल्लेश्वरी हों या राजस्थान की मीराबाई; उनको इस राष्ट्र ने जो सम्मान दिया है, वह सर्वविदित है।

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