अंग्रेजों के दांत खट्टे करनेवाली भारत की आठ बहादुर महिलायें

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नारी ‘शक्ति’ का साक्षात स्वरूप है,भले ही शक्ति का आधिक्य ‘पुरुषों’ में दिखाई पड़ता है। परन्तु शक्ति का उद्गम नारीत्व से ही संभव है। पराधीन भारत की ‘स्वतंत्र’ होने की छटपटाहट ने सन सत्तावन में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध एक ‘विद्रोह’ को जन्म दिया। इस स्वतन्त्रता संग्राम में समूचे देश ने सभी जाति-धर्म और लिंगगत भेदभाव भुलाकर भाग लिया। यहां महिलायें कहीं पर पुरुषों से कम नहीं रहीं और आर्यावर्त को स्वतंत्र कराने के लिए अपना ‘सर्वस्व’ न्योछावर करने में ‘रिन्चक’ मात्र भी पीछे न रही। ये हैं 8 बहादुर भारतीय नारी जिन्होंने ब्रिटिश शासन को नाकों चने चबा दिए।

 रानी लक्ष्मीबाई
rani lakshmibai
युगों-युगान्तरों तक झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई का नाम क्रांतिकारियों में सबसे ऊपर लिया जाएगा। बनारस के एक ब्राह्मण दम्पति के यहाँ जन्मी मणिकर्णिका बचपन से ही पढ़ाई के साथ-साथ शिकार ,तलवार-बाजी, घुड़सवारी आदि विधाओं की शिक्षा में ध्यान देती रहीं। 1842 में झाँसी नरेश गंगाधर राव से विवाहोपरांत मणिकर्णिका (मनु) लक्ष्मीबाई हो गयीं। उन दिनों ब्रिटिश गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी ने भारतीय राज्यों को ‘हड़पने’ के लिए नए-नए नियम रच रहा था। गंगाधर राव की आकस्मिक मृत्यु के पश्चात रानी ने सब कुछ अपने अधिकार क्षेत्र में ले लिया। डलहौजी ने रानी के दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी मानने से इनकार करते हुए ‘झांसी’ को हड़प लिया और रानी को महल छोड़ने का आदेश दिया लेकिन लक्ष्मीबाई ने निश्चय किया की वह झांसी को नहीं छोड़ेंगी। ब्रिटिशों के ‘झांसी’ पर जबरन कब्जे के बाद रानी खुल कर अन्य क्रांतिकारियों के साथ हो गयीं। रानी में साहस व देशभक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी थी इसलिये उन्होंने उनका जमकर सामना किया और अंततः वीरगति को प्राप्त हो गयीं।
बुन्देले हर बोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी ।
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी ।।
– सुभद्राकुमारी चौहान

 वीरांगना ऊदा देवी
Maharani Uda Devi
लखनऊ का सिकंदरबाग़ आज भी ऊदा देवी के अप्रतिम शौर्य की दास्ताँ चीख-चीख कर सुनाता है। ब्रिटिश फ़ौजी सिकंदर बाग़ में घुसने कर कब्जा करने की कोशिश कर रहे थे,परन्तु उनके समक्ष ऊदा देवी नामक एक वृहद् दीवार थी। उन्होंने अकेले ही घंटों तक अंग्रेजी सेना को रोके रखा । ब्रिटिश जनरल कूपर व जनरल लैम्सडन सहित कई सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। अंततः करीब 3 घंटे बाद अंग्रेजों की कई पलटने दीवार के उस पार जा पाई। इस तरह वीरांगना ऊदा देवी शहीद हो गयी,पर जीतेजी हार नहीं मानी।

किसने अंग्रेजी सेना को गाजर-मूली की तरह काटा ??
 रणचंडी ‘मुन्दर’
Mundar
आपने ये नाम शायद ही कभी सुना हो परन्तु ‘मुन्दर’ रानी लक्ष्मीबाई की बाल सखा थी। ये झांसी की स्त्री सेना की कमांडर तथा रानी के रक्षा दल की नायिका थी । मुन्दर ने अंग्रेजों के विरुद्ध सभी युद्धों में रानी लक्ष्मीबाई के अंग-संग की तरह रह कर भीषण युद्ध किया। ये दोनों हाथों से घोड़े की लगाम दांतों से कसे ‘मुन्दर’ अंगरेजी सेना को गाजर मूली की तरह काटने में महारथी थी। मुन्दर का अंतिम संस्कार लक्ष्मीबाई के साथ ही किया गया था।

झलकारी देवी
jhalkari Devi
यह नाम ‘वीरता’ की मिसाल और संपूर्ण संसार में त्याग और बलिदान का अनुपम उदाहरण है। झलकारी झाँसी राज्य के एक बहादुर कृषक सदोवा सिंह की पुत्री थी। उनका जन्म 22 नवंबर, 1830 ई. को झाँसी के समीप भोजला नामक गाँव में हुआ था। इनके माता-पिता अधिकांश समय प्रायः जंगल में ही काम करने में व्यतीत होता था। जंगलों में रहने के कारण ही झलकारी के पिता ने उसे घुड़सवारी एवं अस्त्र-शस्त्र संचालन की शिक्षा दिलवाई थी। इन्होंने महारानी लक्ष्मीबाई को किले से बाहर निकलवाने में मदद की,परन्तु एक ‘गद्दार’ के कारण पकड़ी गयीं परन्तु पुनः भागने में कामयाब रहीं। इसके बाद हुए भयंकर युद्ध में उन्होंने एक ‘तोपची’ की भूमिका निभाई और अंततः रणक्षेत्र में शहीद हो गयीं।

कौन थी लक्ष्मीबाई की भतीजी ??

महारानी तपस्विनी देवी(सुनंदा)
Maharani Tapaswini Devi
ये रानी लक्ष्मीबाई की भतीजी उनके एक सरदार पेशवा, नारायण राव की पुत्री थीं। क्रान्ति में उन्होंने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ,विशेष रूप से जनक्रांति के लिए पूर्व, उत्तर भारत के सन्यासियों ने गाँव-गाँव घूमकर ” लालकमल ” की पहचान छावनियो में सैनिको तक पहुंचाकर उन्हें भावी क्रान्ति के लिए प्रेरित किया। इन सबके पीछे महारानी तपस्वनी की प्रेरणा थी.महारानी का वास्तविक नाम सुनन्दा था। वह बाल विधवा थीं और समकालीन हिन्दू विधवाओं की तरह सुनन्दा किशोर अवस्था से ही तप-संयम का जीवन व्यतीत कर रही थीं। पिता की मृत्यु के बाद जागीर की देखभाल का काम भी उनके कंधो पर आ गया। उन्होंने किले की मरम्मत कराने , सिपाहियों की नई भर्ती करने के लिए तैयारिया शुरू कर दी। अंग्रेजो को उनकी इन गतिविधियों का भेद मिल गया। उन्होंने देवी को पकड़कर त्रिचरापल्ली के किले में नजरबंद कर दिया। वहाँ से छूटते ही देवी सीतापुर के पास  निमिषारण्य में रहने चली गयीं और संत गौरीशंकर की शिष्या बन कर वैराग्य धारण कर लिया। युद्ध के समय माता तपस्वनी स्वंय भी घोड़े पर सवार , हो मुठभेड़ों से जूझते हुए सारी व्यवस्था का निरिक्षण करती थीं । अपने छापामार दस्तों के साथ अंग्रेजो के फौजी -ठिकानों पर हमला भी करती थी। अन्ततः क्रांति की अलख जगाते-जगाते 1907 में वे पञ्चतत्व में विलीन हो गयीं।

वीरांगना अवन्तिका बाई
Avantika Bai
डलहौज़ी की हड़प नीति का रामगढ़(मध्यप्रदेश जिला मंडला) भी शिकार हुआ। रानी की इच्छा के विपरीत वहाँ एक तहसीलदार नियुक्त किया गया ओर राजपरिवार को पेन्शन दे दी गई। 1857 की क्रांति की आग रामगढ़ में भी जोरों से भभकी। 1858 को अग्रेजी फौजों ने रामगढ़ पर हमला कर दिया । रानी ने हांथों में तलवार उठा ली । अंग्रेज अफसर वाशिंगटन को अपनी जान बचाकर भागना पड़ गया। वाशिंगटन के नेतृत्व में अधिक सैन्य बल के साथ पुन: रामगढ़ पर आक्रमण किया गया। इस बार भी रानी के कृतज्ञ और बहादुर सैनिकों ने अंग्रेजों से जमकर मुकाबला किया। पर अंग्रेज कब्जा करने में कामयाब रहे। अवन्तिका बाई ने जंगलों से ही ‘गुरिल्ला’ युद्ध छेड़ दिया और अंततः अंग्रेजों के हाथों मरने से बेहतर उन्होंने खुद की जान लेना उचित समझा और अपने सीने में कटार घौंप ली।

नाना साहेब की बेटी ने अंग्रेजों को क्या नहीं बताया ??

मैना देवी
Maina Devi Father Nana Sahib Mahal
नाना साहब की पुत्री कुमारी मैना देवी को अंग्रेजों ने पकड़ लिया और अन्य क्रांतिकारियों से ठिकाना पूछा परन्तु पेशवा पुत्री उस छोटी सी आयु में भी अपने देश की रक्षा के प्रति सजग थी। ढेरों अनैतिक यातनाओं के बाद भी उसने किसी भी क्रांतिकारी का नाम व ठिकाना अंग्रेजों को नहीं बतलाया। क्रूर और दरिन्दे ब्रिटिश सैनिकों ने उस बच्ची को ज़िंदा जला दिया। इस घटना ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत को बुरी तरह भड़का दिया था।

रानी हिन्डोरिया
Rani Hindoriya
मध्य भारत के दमोह की हिंडोरिया रियासत के ठाकुर किशोर सिंह की रानी हिंडोरिया ने अपने पति के साथ अंग्रेजों के विरुद्ध युद्द में भाग लिया और अपने क्षेत्र से गोरों के सफाए में कामयाब रहे। हालांकि बाद में अंग्रेजों की विशाल आधुनिक सेना ने हिंडोरिया पर विजय प्राप्त कर ली परन्तु रानी नहीं झुकीं और अंततः उन्होंने भी ‘गुरिल्ला वारफेयर’ को उचित समझते हुए अंतिम समय तक अंग्रेजी शासन के लिए परेशानी बनी रहीं।

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