सलमान खुर्शीद की किताब 'सैटेनिक वर्सेज' पर प्रतिबंध 56 मुल्कों ने नहीं, भारत सरकार ने लगाया था।
भारत को सबसे पहले यह मालूम हुआ कि इस किताब में जिन इस्लामिक आयतों को 'शैतानी' कहा गया है, वह इस्लाम के खिलाफ है। वह भी तब जब भारत कोई इस्लामिक मुल्क नहीं है। अभी तक तो नहीं है।
और तो और, इसको लेकर दंगे भी भारत में हुए। आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक 12 लोग मारे गए और 40 घायल हुए। उस वक़्त आंकड़े वही माने जाते थे जो सरकारी फ़ाइल में सरकारी अधिकारी ने लिख दिए। मोटा-मोटी सही आंकड़ों तक पहुंचने के लिए इसमें एक शून्य लगाने की जरूरत पड़ती थी।
आज से 35 साल पहले सलमान खुर्शीद ने कुछ सोचा और उसे लिखा। उस वक़्त कागजों पर लिखा जाता था। कल न्यूयॉर्क में सलमान खुर्शीद की गर्दन में किसी इस्लामिक कट्टरपंथी ने चाकू घोंप दिया। उनकी हालत गंभीर है और वे वेंटिलेटर पर हैं।
तीन दशक पहले अपने लिखे हुए को लेकर उन्हें अपनी मातृभूमि छोड़नी पड़ी। तब से ही उन्होंने यूरोप में शरण ले रखी थी। उनको सुरक्षा भी दी गई थी। क्योंकि जब आप किसी को शरण देते हैं तो उसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी भी लेते हैं।
आज लिखने-पढ़ने का प्रारूप थोड़ा बदल गया है। हम कीबोर्ड पर किसी और का लिखा रियल टाइम में ऑनलाइन पढ़ लेते हैं। किताबों की इतनी पहुंच नहीं होती थी। यह ज्यादा तेज़ है और इस पर प्रतिक्रिया भी जल्दी आती है। कन्हैया लाल और बहुत से लोग इसके उदाहरण हैं। हालांकि उन्होंने किसी के खिलाफ कुछ नहीं लिखा था। बल्कि लिखा तो नूपुर शर्मा ने भी कुछ नहीं था, सिर्फ बोला था। वो भी किसी कट्टरपंथी के द्वारा बोली गई बात के जवाब में।
हाल ही में भारत में जिन लोगों को मा₹! गया, उन्होंने सिर्फ नूपुर की बात का समर्थन किया था, जो खुद उनकी ही किताब में लिखी हुई है और बहुत से इस्लामिक स्कॉलर इसे सत्यापित करते हैं।
सलमान खुर्शीद के मामले में भी ऐसा ही था।
सलमान खुर्शीद ने जो लिखा, वह भी उनकी ही किताब को लेकर था। यह पुरानी बात है। एक पीढ़ी पहले की। लोग इसे भूल भी चुके थे। 35 साल में तो पूरी पीढ़ी बदल जाती है। फिर भी इतने पुराने लिखे हुए को लेकर उन पर हमला, और हाल ही में कुछ बिना लिखे हुए भी लोगों के '$₹ तन से जुदा' करना साबित करता है कि किसी के कुछ लिखने-विखने की जरूरत नहीं है। सिर्फ सोचना ही पर्याप्त है।
आज हम जिन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर लिख रहे हैं, मुझे नहीं लगता कि ये 35 साल सर्वाइव कर पाएंगे। लेकिन तब शायद कोई ऐसी टेक्नोलॉजी हो, जो आपके विचारों को बिना लिखे ही दूसरों तक पहुंचाने में सक्षम हो। आज आप जो लिख रहे हैं, वह भी कहीं नहीं जाने वाला है। उस वक़्त की टेक्नोलॉजी अवश्य ही इस वक़्त के लिखे हुए को रिकवर करने में तो सक्षम होगी ही!
और दूसरा पक्ष जो 1400 साल में बिल्कुल नहीं बदला है, उसकी आगे भी बदलने की संभावना नहीं है। वहां मुल्क का कॉन्सेप्ट नहीं है, वे शरीया कानून और खलीफा के निज़ाम में यकीन रखते हैं। लेकिन आपके संविधान और लोकतांत्रिक अधिकारों का इस्तेमाल भी खूब जानते हैं। वे आपकी ही टेक्नोलॉजी को आपके खिलाफ इस्तेमाल करने में माहिर है
उनकी किताब कोई दीनी किताब नहीं है। यह किताब धार्मिक, राजनैतिक और सैन्य तौर पर संगठित एक वैश्विक समुदाय के लिए आवश्यक सामाजिक कानूनों, विधिक प्रक्रियाओं, सैन्य नियमावली, कूटनीतियों, रणनीतियों और युद्धनीतिओं से भरी है। धार्मिक विद्वानों, समाजशास्त्रियों, सामरिक विशेषज्ञों और रणनीतिकारों से इसका अध्ययन करवाने और आवश्यक संशोधन की जरूरत है। इसको हल्के में लेना मूर्खता है।
क्योंकि जब कम्युनिकेशन का बिल्कुल आधुनिक और नया प्रारूप होगा, तो शायद आपका सिर्फ सोचना ही पर्याप्त हो?
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Peace if possible, truth at all costs.